अपनी उम्र के सढसठ साल

यह जिस जाग्रत पुरुष की जीवनी है
वह,वह कहां है !

वह जो बदलता रहा लगातार
बेखबर
और मानता रहा अपने आपको समान और स्थिर
तब तक जब तक
यकायक किसी ने पुकारा नहीं था कहकर 'दादा जी' अथवा 'अंकिल'
बावजूद उसके जो सोता था
और सोया रहा लगातार एक और
स्वप्न पुरुष
आज तक !

इसलिये कतराता हूं मैं सदा ही उनसे
जो देते हैं मुझे वधाई
उस बात के लिये
जिससे मेरा कोई लेना नहीं, देना नहीं
जो नहीं है मेरी कोई करतूत
सिबाय एक अपब्यय के
अंतहीन
और सर्वनाश की आकस्मिकता के खतरे से
परिपूर्ण!

आश्वासन संभवतः यह है
कि न तो मुझे पता है अपने गुनाहों का
और न ही जानता हूं अपना कोई पुण्य
(ऐसा कुछ क्या कहीं होता भी है?)
इसलिये अपने एक होने
और न होने में भी
मैं भेद कहां कर पाता हूं!

इतने वर्षों का अपनी आंख के सामने से
इस तरह होश में गुजर जाना
( याकि सामने खड़े समय से मेरा घिसटकर चलते रहना)
किसकी दरियादिली है?
शब्द की शिलाओं पर
ठहरा समय
शायद पूछता है यही सवाल
मेरे पूरे करने पर
अपनी उम्र के सढसठ साल ।

१६-१०-१३/ ३.२०
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binay rajaram
Oct 17, 2013


भाव गहरा
कविता की पंक्तिओं में
क्या खूब उतरा !

जन्म दिन की बहुत साड़ी बधाइयाँ !
---- प्रो. राजाराम / डॉ. बिनय 
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