Friday 7 September 2012

A review of Dr Nagaich's book on Maharshi Dayanand

समीक्षा
 भारतीय समाज के युगान्तरकारी प्रहरी महर्षि दयानन्द
                                      प्रभुदयाल मिश्र
डा. उमाशंकर नगाइच का पुनर्प्रकाशित ‘महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन’ शोध प्रबंध महान् मेधा पुरुष ऋषि दयानन्द सरस्वती के अमूल्य सामाजिक अवदान के साथ-साथ उनकी उस युगान्तरकारी प्रतिभा का भी प्रामाणिक उद्घाटन करता है जिसके योग के बिना भारतीय समाज न केवल दिशाहीन रहता, वल्कि वह अपनी अपूर्णता में ही आज शेष होता । इस महामानव के व्यक्तित्व की विराटता एक अर्थ में ‘ परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्क्रताम्’ के दैवी संकल्प को ही पूरा करती प्रतीत होती है । हमारे समाज और हमारे वर्तमान युग के इस जीवन्त सशक्त प्रहरी के प्रकट और परिपूर्ण जीवन दर्शन का साक्षात्कार प्रत्येक ‘समाजिक’ के एक धर्म कर्तव्य से कम नहीं है । इस दायित्व का उत्तरदयित्वपूर्ण ढंग से स्मरण कराने के लिए डा. नगाइच निश्चित ही साधुवाद के पात्र हैं ।
एक शोध प्रबंध अपनी संदर्भ साधना और दुष्क्रमिकता में बोझिल हो जाता है । डा. नगाइच के सुदीर्घ उद्धरण प्रायः इस आशंका को जहां तहां उत्पन्न करते हैं । किन्तु किसी भी लेखन की प्रामाणिकता का संदर्भ सरोकार तो अपरिहार्य होता ही है, एक पाठक यह आश्वस्ति भी लेकर चलना चाहता हेै कि उससे विषय से संबंधित कोई महत्वपूर्ण तथ्य छूट नहीं रहा है । इस प्रकार का आश्वासन लेखक ने पूरी सिद्यत के साथ प्रस्तुत किया है । इसके लिए भी उनकी यह कृति आशंसनीय है ।
महर्षि दयानन्द वे महान् युग चेता थे जिन्होंने वेदों के विस्मृतप्राय ज्ञान को न केवल पुनर्प्रकाशित किया बल्कि सायण की परम्परा में पश्चिम के विद्वानों द्वारा इनके कर्मकाण्ड परक लौकिक भाष्य को भी विराम लगाया । स्वभाविक रूप से श्री अरविन्दो और मधुसूदन ओझा आदि कालान्तर में इनके गूढ़ रहस्यों के उद्घाटन की दिशा में प्रवृत्त हुए और वर्तमान में तो वेदों की वैज्ञानिकता विचारकों का जैसे एक आवश्यक उपादान ही हो गई है । आंतरिक तौर पर भी भारत के एक वर्ग की धर्मभीरुता में प्रायः परम्परा पोषक समाज की इतनी व्यापक चुनौतियों का सामना करते हुए शुद्ध ज्ञान और विज्ञान की उनके द्वारा प्रदान की गई दिशा सहस्राब्दियों का भी अतिक्रमण करते हुए अत्यंत दीर्घ दृष्टिपूर्ण है । आज भी इस तथ्य की कल्पना की जा सकती है कि भविष्य में जब कभी भी मनुष्य धर्म की संकीर्णताओं और ईश्वर को अपने दुराग्रहों से परे देखने की चेष्टा करेगा तो उसे ऐसा ही परमात्मा मिलेगा जो अपनी निरपेक्षता में सबका होगा । उस समय उसे सुगंध, दीपक अथवा किसी मानवीय चेष्टा से बचाने जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा स्वसाध्य और सर्वत्र ही है ।
पुस्तक में यद्यपि महर्षि दयानन्द द्वारा संद्रष्ट भारतीय और मानव समाज विषयक दृष्टि बहुमुखी है, किन्तु यहां वर्ण व्यवस्था के संबंध में संक्षिप्त उल्लेख समीचीन प्रतीत होता है ।  ऋग्वेद से आरम्भ ‘चतुर्वर्ण’ के रूप में विज्ञात इस व्यवस्था पर लेखक ने पृष्ठ 83 से लेकर 126 अर्थात् 43 पृष्ठों में विचार किया है । अपनी व्याख्या के संपोषण में लेखक ने 100 संदर्भ ग्रन्थों का व्यापक आधार लिया है । स्वभावतः लेखक का निष्कर्ष यह है-
‘ इस वर्णन में कहीं भी ऊंच-नीच, छोटे-बडे़ या अस्पृश्य-अस्पृश्य का संबंध नहीं । मुख, बाहु, उरू और पांव-ये सभी एक ही शरीर के अंग और अपने-अपने स्थान पर सब ही समान रूप से महत्वपूर्ण हैं ।...पांव के बिना गति असंभव है । इसलिए शरीर में जो स्थान पांवों का है, वही स्थान समाज में गति और प्रगति के आधार श्रमसाधक वर्ग का है । ’                                           पृष्ठ 116
जन्म से ही कोई उच्च वर्ण का नहीं हो जाता, इसकी पुष्टि में लेखक ने अनेक उदाहरण देते हुए बताया है कि वशिष्ठ वेश्या, पाराशर चाण्डाली, वेदव्यास मल्लाह कन्या, मतंग और जाबाल शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि हुए हैं । क्षत्रिय कुल के पृषध को हत्या के कारण शूद्र हो जाना पड़ा ।  क्षत्रिय विश्वामित्र ने तपस्या से ब्राह्मणत्व प्राप्त किया । इतरा नाम की दासी से उत्पन्न ऐतरेय महीदास शूद्र माता के पुत्र थे किन्तु वे ब्राह्मण ग्रन्थ के रचयिता बने । मातंग चाण्डाल कुल के होकर भी ऋषि बन गए । नागवर्गीय अर्बुद ने वैदिक सूक्तों को रचा । इसी तरह दीर्घतमा उशिज नामक दासी और कक्षीवान् इलूष नामक दासी से उत्पन्न हुए थे । असुर कुल की स्त्री से उत्पन्न त्वष्टा पुत्र विश्वरूप देवताओं के पुरोहित बने । कण्व पुत्र वत्स का जन्म भी असुर माता से हुआ ।  इत्यादि ।
लेखक की भाषा विषय के अनुरूप परिनिष्ठित और सार संग्रही हेै । मुद्रण कार्य में भी, विशेषकर संस्कृत संदर्भेां की शुद्धता पर आवश्यक ध्यान दिया गया है जो लेखक में आर्ष परम्परा के समर्थ संवहन का ही प्रकटीकरण है ।
पुस्तक- महर्षि दयानन्द का समाज दर्शन
लेखक- डा. उमाशंकर नगाइच
प्रकाशक- आर्ष गुरुकुल महाविद्यालय, नर्मदापुरम्
मूल्य-300 रुपये                 अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, 35 ईडन गार्डन, राजाभोज मार्ग, भोपाल 16

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