निर्वचन मई २०२३
ऋषि अगस्त्य के श्री राम
भारत में १२वीं सदी से लगातार रामार्चन के लिए अगस्त्य संहिता' प्रमुख ग्रन्थों में से एक है । अगस्त्य संहिता के भविष्य खण्ड के १३१-१३५ अध्यायों में 'रामानंदजन्मोत्सव' का भी एक प्रसंग कुछ संस्करणों में मिलता है जिसमें कलियुग के ४४०० वर्ष बीत जाने पर उल्लेख हुआ है कि-
आविर्भूतो महायोगी द्वितीय इव भास्कर:
रामानंद इति ख्यातो लोकोद्धरणकारण:
यह प्रश्न उठता है कि १२९९ ईसवी में इस प्रकार जन्मे श्रीरामानंद जी १५१८ और १५२७ में जन्मे कबीर और रैदास के गुरु कैसे हो सकते थे? इसलिए विद्वान इस खण्ड को प्रक्षिप्त मानते हैं । पर अगस्त्य संहिता रामोपसना का प्राचीनतम वैष्णवागम ग्रन्थ सर्वथा मान्य और स्वीकृत है । यदि रामतापनीयोपनिषद् रामोपासना का निगम कल्प है तो अगस्त्य संहिता आगमिक । अध्यात्म रामायण भी अगस्त संहिता का उल्लेख करती है । अथर्ववेद से संबंधित 'रामतापनीयोपनिषद्' में अनेक स्थलों पर अगस्त्य संहिता की शब्दावली से मेल खाते अनेक श्लोक मिलते हैं ।
अगस्त्य संहिता में श्री राम के षोडसोपचार पूजन द्रारा नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मकाण्डों को विहित किया गया है । श्री राम की अनन्या भक्ति इसका मूल प्रतिपाद्य है । यह महामुनि अगस्त्य के अपने शिष्य सुतीक्ष्ण के साथ संवाद रूप में अभिकथित है । अगस्त्य जी अपने उत्तर में शिव-पार्वती के संवाद द्वारा इसे विस्तार देते हैं । भगवान शंकर के अनुसार भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा को विश्व कल्याण के लिए पर षडक्षर राममंत्र का उपदेश किया । संहिता के सप्तम अध्याय में बताया गया है कि इसी षडक्षर मंत्र को उन्होंने भगवान शिव को प्रदान किया जिसके कारण भगवान शिव ने काशी में मरने वाले जीवों का उद्धारत्व प्राप्त किया ।
फलं भवतु देवेश सर्वेषां मुक्तिलक्षणम्
मुमूर्षाणां च सर्वेषां दास्ये मन्त्रवरं परम् । अगस्त्य संहिता ७/३४
मानस प्रेमी यहाँ तुलसी के कथन - 'कासीं मरत जंतु अवलोकी, जासु नाम बल करउं बिसोकी।' ( बाल. १/११९) का स्पष्ट आधार प्राप्त कर सकते हैं !
महर्षि अगस्त्य आगम, निगम, इतिहास और पुराण यहाँ तक कि तमिल भाषा के आधुनिक वैय्याकरणी के रूप में अभिज्ञात हैं । वाल्मीकि और तुलसी रामायण उन्हें रावण के संहार में राम का परम सहायक सिद्ध करती है । वाल्मीकि रामायण का अगस्त्य द्वारा प्रदत्त ३१ श्लोकों का आदित्य हृदय स्तोत्र वह परमास्त्र था जिसका श्री राम उपयोग करते हैं । तुलसी ने भी श्री राम द्वारा अंतत: 'छांडे सर इक्तीस' का उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में श्री राम की सभा में अगस्त्य द्वारा विवर्णित अनेक कथा प्रसंगों का प्रामाणिक साक्ष्य मिलता है ।
ऐसे ऋषि, वैज्ञानिक और लोक कल्याण के सर्वोच्च विधायक महर्षि अगस्त्य की श्री रामाराधना विषक अगस्त्य संहिता का अध्ययन, शोध और अवगाहन वर्तमान प्रबुद्ध समाज को सर्वथा ही विधेय हो जाता है ।
निर्वचन जून 23
वेद का लोक-संस्करण श्रीरामचरितमानस
श्रुति वचन है- ऋते ज्ञानान्न मुक्ति
(हिरण्यकेशीय शाखा) अर्थात् ज्ञान
के बिना मुक्ति नहीं । ज्ञान है सत्य का
स्वानुभव । और सत्य- हमारे नित्य संध्या विधान के मंत्र ‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ में जब
स्मरण किया जाता है तो स्पष्ट है कि सभी को उसके साक्षात्कार का अवसर प्राप्त है ।
श्रीमद्भागवत का तो प्रथम श्लोक के अंतिम चरण में इसी आशय के प्रतिज्ञा कथन ‘सत्यं
परं धीमहि’ से ग्रंथ का आरंभ किया गया है । भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार स्तम्भ
वेद-वेदांग से लेकर स्मृति, पुराण इतिहास आदि सभी शास्त्रों में इसी सत्य के ‘शब्द
प्रमाण’ भरे हुए हैं । इनमें गीता और रामायण हमारी दो हथेलियों में उपलब्ध ऐसे दर्पण
ही हैं जिनसे इसके साक्षात्कार का हमें अवसर सदा ही सुलभ बना हुआ है ।
गीता
में भगवान श्रीकृष्ण की स्पष्ट घोषणा है ‘ज्ञानं तेsहं
सविज्ञानमिदं वक्षयाम्यशेषत:’ (7/2) अर्थात् श्री कृष्ण की घोषणा है कि वे ज्ञान
को उसकी प्रायोगिकता में समझा रहे हैं । रामचरित मानस में श्री राम लक्ष्मण के
प्रश्नों के उत्तर में संक्षेप में सार स्वरूप इसी सत्य का प्रतिपादन इस प्रकार करते
हैं –
‘मैं अरु मोर तोर तें माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया
गो गोचर जहॅ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई । ..
माया ईस
न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव
बन्ध मोच्छप्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव । (
आरण्यकांड 15)
ईश्वर और मनुष्य के बीच की दूरी मात्र माया के अंधेरे
की इस दीवाल की ही है जो ज्ञान के प्रकाश से उसे तत्क्षण मुक्ति के द्वार में
प्रविष्ट करा देती है । ठीक इसी प्रकार का उपदेश श्री राम भरत को भी प्रदान करते
हैं –
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक
गुन यह उभय न देखिअहि देखिअ सो अविवेक । उत्तरकाण्ड
41
अर्थात् हे भाई (भरत) माया के कार्य की अनेक सकारात्मक
और नकारात्मक विशेषताएँ हैं । इनका निदान इतना गहन है कि उसमें मनुष्य का न पड़ना ही
श्रेयस्कर है । यदि इसके विस्तार में वह जाता है तो यह उसका अविवेक ही ठहरता है
(क्योंकि इससे उसके बंधन ही प्रगाढ़ होते हैं)।
मानस में ही शिव, विरंचि, सती, भुशुंडि, गरुड और इंद्रादिक
देवताओं के इस माया से विमोहित हो जाने के अनेकानेक प्रसंग हैं। आगे अन्य दूसरों की
तो बात ही उत्पन्न नहीं होती । पार्वती जी द्वारा राम के स्वरूप को समझने के लिए
पूछे जाने पर श्री शिव वेदान्त दर्शन के इसी सत्य सार की इस प्रकार प्रतिष्ठा करते
हैं-
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जाने । जिमि भुजंग बिनु रजु
पहिचाने
जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागे जथा सपन भ्रम जाई ।
बालकांड 112/1
असत् (माया) बोध से रज्जु में भुजंग की प्रतीति अथवा स्वप्न
में सत्यत्व का आभास इसी माया का गुण अथवा दोष (विशेषता!) है जिससे निवृत्ति का
उपाय मात्र अपने वास्तविक सत् स्वरूप में जागना और स्थित हो जानया है । जिस तत्व
बोध को वेद के चार महावाक्य- अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म और
प्रज्ञानं ब्रह्म उद्घाटित करते हैं, रामचरित मानस के प्रथम प्रवक्ता श्री शिव इस
प्रकार उन्मीलित करते हैं –
जगत प्रकास्य प्रकाशक रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू
जासु सत्यता तें जड़ माया । भास सत्य इव मोह सहाया
रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि
जदपि मृषा तेहुं काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि । बालकांड
117
विश्व मानव के लिए जीव, जगत, माया और ब्रह्म का यह
निदर्शन भारतीय दर्शन का परमोच्च अवदान है । सदा से सदा के लिए संपादित मानव की
चेष्टा इसी बोध में परिसमाप्त होने को हैं । इस प्रकार सनातन ज्ञान-सागर के जन-जन को सुलभ सत्व
रामचरित मानस विश्व को प्राप्त वरदान दैवी प्रसाद से कदापि भिन्न नहीं है ।
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक (9425079072)
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