Monday, 29 January 2024
तुलसी मानस भारती 2023 के 12 संपादकीय
तुलसी मानस भारती के संपादकीय वर्ष 2023
1. निर्वचन जनवरी 23
गीता
प्रैस गोरखपुर
की स्थापना का शताब्दी वर्ष
अप्रैल १९२३ में गोरखपुर के उर्दू बाज़ार में दस रुपये प्रतिमाह
एक किराये के कमरे में आरम्भ भारतीय दर्शन,
साहित्य,
संस्कृति और अध्यात्म के महा
स्तम्भ गीता प्रेस ने देश की १५ भाषाओं में अब तक ७३ करोड़ से अधिक संख्या में पुस्तकें प्रकाशित की हैं।
इनमें मुख्य रूप से
प्रकाशित गीता की संख्या १५ करोड़ ५८ लाख और रामचरितमानस की संख्या ही
११ करोड़ ३९ लाख है । यह अनुमान किया गया है कि इस शताब्दी वर्ष में ही संस्थान केवल गीता और रामायण की ही १०० करोड़ मूल्य की विक्री का कीर्तिमान बनाने जा रहा है जबकि यह सभी जानते हैं कि गीता प्रेस का विक्रय मूल्य पुस्तक की लागत से बहुत कम होता है ।
संस्थान के मासिक प्रकाशन और मासिक कल्याण के प्रकाशन में भी
हनुमान प्रसाद जी पोद्दार को प्राप्त महात्मा गांधी के परामर्श के अनुसार विज्ञापन और व्यक्ति पूजा का
निरंतर सर्वथा निषेध
प्रभावशील है ।
आधुनिक भारत की इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक क्रान्ति के सूत्रधार जयदयाल जी गोयन्दका और इसके आधार स्तम्भ श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार थे। श्री गोयन्दका जो कलकत्ता में कपास और कपड़े के एक मारवाड़ी 'सही भाव'
के व्यापारी थे,
ने सबसे पहले वर्ष १९२२ में गोबिन्द भवन से गीता की ११००० प्रतियाँ छपाईं । पश्चात् गोरखपुर वासी श्री घनश्यामदास जी जालान की प्रेरणा से अप्रेल १९२३ में उन्होंने ६०० रुपये मूल्य से एक हाथ-मुद्रण
मशीन ख़रीदी । वर्ष १९२६ की अखिल भारतीय मारवाड़ी महासभा से गोयन्दका (सेठजी)
से हनुमान प्रसाद पोद्दार(
भाईजी)
मिले जिनके आजीवन संपादकत्व में मासिक कल्याण (
एक वार्षिकांक सहित)
का लोक व्यापी प्रकाशन आरंभ हुआ । वर्ष १९०२ में हिन्दी की 'सरस्वती'
से आरम्भ चाँद,
मतवाला,
धर्मयुग,
साप्ताहिक हिन्दुस्तान,
सारिका,
कादम्बिनी,
दिनमान आदि कितनी पत्रिकायें काल के ग्रास में
समाप्त नहीं होती गईं किन्तु आज भी कल्याण की २ लाख से अधिक की प्रतियाँ प्रतिमाह लोग बड़े चाव से ख़रीदते और पढ़ते हैं।
हिन्दी के अनेक ख्यातिनाम विद्वान और समीक्षकों ने
यथा अवसर प्रायः इस तथ्य की
ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि हिन्दी और हिन्दी साहित्य के विकास तथा इसकी लौकिक सार्वभौमिकता में जो अभिदाय गीता प्रेस का है वह सर्वथा अद्वितीय होते हुये भी हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य के पटल पर वहाँ स्थित नहीं किया गया जो उसका वास्तविक स्वत्व है । वर्ष १९०० में मैकडोनल द्वारा हिन्दी की देवनागरी लिपि की सरकारी मान्यता और वर्ष १९१० में इलाहाबाद में स्थापित हिन्दी साहित्य सम्मेलन आखिर कितने दूर के पड़ाव हैं किन्तु एक अजस्र ज्ञान मँजूषा की कुंजी सौ वर्ष पहले जो इस दैवी उपक्रम कर्ताओं को मिली उसने जैसे किसी कालातीत कोष को ही उन्मुक्त कर सर्वजन सुलभ बनाया है
। किन्तु क्या हिन्दी के विकास और देश के साहित्यिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण में
उसकी भूमिका की यह अनदेखी उचित है? जबकि
वास्तविकता यही है कि आज जब भी
कभी भारतीय धरोहर की
श्रुति और स्मृति के सनातन शास्त्रों की पाठ,
लेखन की शुद्धता और प्रामाणिकता का प्रश्न उठता है तो इसके प्रति इस संस्थान की प्रतिबद्धता तथा समर्पण का
भाव ही सभी के लिये अनुकरणीय हो जाता है ।
गीता और रामायण, भागवत आदि के मानक संस्करण प्रकाश में लाने के पूर्व गीता प्रेस ने देश के शीर्षस्थ विद्वानों की सहायता से वर्तमान पीढ़ी को जो मूल पाठ और भाष्य सुलभ कराये हैं वे प्राय:
कालान्तर में प्रकाशित सभी भाष्यों की आधारभूमि का कार्य करते रहे हैं । उदाहरण के लिय श्री रामचरितमानस के मानकीकृत वर्तमान स्वरूप का निर्धारण श्री शान्तनु विहारी (स्वामी अखंडानंद सरस्वती),
श्री नंददुलारे वाजपेयी और चिमनलाल गोस्वामी की
त्रिसदस्यीय समिति द्वारा किया गया जिसमें अनेक
क्षेपकों और
अवधी,व्रज
तथा बुन्देलीकरण की एकांगिता के
निवारण का कार्य किया गया था ।
यह अपने आप में एक अमिट काल-अभिलेख ही है कि जिस प्रतिष्ठान को राष्ट्र पिता महात्मा गांधी,
पंडित मदन मोहन मालवीय,
धर्म सम्राट करपात्री जी,
वीतरागी प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और तपोमूर्ति रामसुखदास जी महाराज का निरंतर आशीर्वाद और दिशादर्शन प्राप्त हुआ हो वह देश की अविस्मरणीय धरोहर कैसे नहीं होगी !
1.
आज
जब भारत उपनिवेशवादी मानसिकता तथा ओड़े गए पश्चिमी बुद्धिवाद से उबर रहा है तो एक
प्रकृत भारतीय बोध में इस विचार का अनुवर्तन सर्वथा वांछनीय हो जाता है कि देश के
साहित्य, संस्कृति, भाषा और स्वत्व की
रक्षा और संवर्धन में सभी सचेष्ट हो जांय ताकि हमारा भविष्य आज एक दीर्घ
दुस्स्वप्न की महानिशा से मुक्ति का आभास कर सके ।
2.
निर्वचन फरवरी -23
उत्तर रामायण अर्थात् उत्तर कांड
आद्य रामायण के
प्रणेता महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण के स्वरूप का निर्धारण करते हुए बालकाण्ड
के चतुर्थ सर्ग में इसका निम्न निदान प्रदान किया है –
चतुरविंशत्सहस्राणि
शलोकानामुक्तवानृषि:
तथा सर्गशतान् पञ्च षट्कांडानि
तथोत्तरम् । (वा. रा. 1/4/2 )
अर्थात् इसमें महर्षि ने चौबीस हजार
श्लोक, पाँच सौ सर्ग, छ: कांड और
‘उत्तर’ भाग की रचना की है ।
यह श्लोक उन सभी महा मनीषी, उद्भट, अधीत महानुभावों को रामायण के रचनाकार का
स्वत: स्पष्ट समाधान है जो इस बात को लेकर
सदियों से अपनी शक्ति का क्षरण करते आ रहे हैं कि वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड
एक उत्तरवर्ती प्रक्षिप्त भाग है जिसकी रचना वाल्मीकि जी ने नहीं की है । वास्तव
में वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के संदर्भ में ही तुलसी के रामचरित मानस के
‘उत्तरकाण्ड’ को उचित रीति से समझा जा सकता है क्योंकि इसकी रचना में जहां
गोस्वामी जी ने आदि कवि की कुशल विधा का अभीष्ट उपयोग किया है वहीं उनके समान ही
इसमें कुछ कूट और गुत्थियाँ भी रख छोड़ी हैं जिनका शंका समाधान करते हुए रामायण के
पाठकों और अध्येताओं को लगातार परिश्रम करना पड़ता है ।
रामचरित मानस के बालकाण्ड में पार्वती जी ने भगवान शिव से जो निम्न आठ
प्रश्न किए हैं वे एक प्रकार से रामकथा के कांडों का ही परिचय हैं-
प्रथम सो कारण कहहु बिचारी । निर्गुन
ब्रह्म सगुन् बपु धारी
पुनि प्रभु कहउ राम अवतारा । बालचरित
पुनि कहहु उदारा (बाल कांड)
कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो
दूषन काहीं । (बाल, अयोध्या कांड)
बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहउ नाथ
जिमि रावन मारा । (आरण्य, किष्किन्धा, सुंदर और लंका कांड)
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहउ
संकर सुखसीला । (उत्तर कांड)
बहुरि कहउ करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज
धाम । बालकाण्ड 110 (उत्तर रामायण!)
पार्वती जी ने अपने इन प्रश्नों में
श्री राम के स्वधाम गवन के जिस वृत्त के समाहार का अनुरोध किया है वह वस्तुत:
बाल्मीकि की ‘उत्तर रामायण’ की कथा है जिसे तुलसी ने स्पष्टतया छोड़ दिया है ।
उत्तरकाण्ड में अपनी कथा का उपसंहार करते हुए श्री शिव जब कहते है ‘राम कथा गिरिजा
मैं बरनी’ तो पार्वती जी उसे यथावत स्वीकार करते हुए कहती हैं ‘नाथ कृपा मम गत
संदेहा ‘(उत्तरकांड 129)। रामकथा के भाष्यकार इसका समाधान करते हुए प्रायः यही
कहते हैं कि श्री राम के स्वधाम गवन की लीला तुलसी को प्रीतिकर नहीं होने से
स्वीकार ही नहीं थी । इसी तरह शिव और पार्वती संवाद के संदर्भ में भी यह निष्कर्ष
निकाला जा सकता है कि प्रश्न पूछते समय यद्यपि पार्वती जी की इस प्रश्न के प्रति
जिज्ञासा रही होगी किन्तु भगवान की नित्य लोकोत्तर कथा सुन लेने के बाद उनका
सम्पूर्ण समाधान हो गया, अतः उन्हें अपने मूल
प्रश्न को पुन: स्मरण कराने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई ।
किन्तु इससे यह संकेत तो गृहण किया ही
जा सकता है कि तुलसी को अपने युग और अपनी
दृष्टि में इस कथा विस्तार का बोध था । किन्तु जैसा कि उन्होंने अपने
उपोद्घात में स्पष्ट किया है निगम, आगम, पुराण आदि से सुसंगत कथानक के अतिरिक्त
उन्होंने ‘कुछ’ अन्यत्र अर्थात अपनी कल्पना, काव्य कला,
शील और संस्कार-परंपरा से भी संपृक्त किया । इसमें युग-बोध, भाषा-विज्ञान, समाज-दर्शन, साहित्य
के प्रतिमान और कवि की अपनी प्रतिभा की छाप भी स्वत: आती ही है । और तुलसी के
संदर्भ में इन परिमाणों को किसी प्रकार न्यूनतर मानकर नहीं चला जा सकता क्योंकि
जहां उनकी वेद-वेदांग की शिक्षा शेष सनातन के प्रसिद्ध गुरुकुल में हुई वहीं
उन्हें भक्ति परंपरा के आद्याचार्य रामानंद जी महाराज के शिष्य श्री नरहर्याचार्य
की कृपा भी प्राप्त हुई थी । इस प्रकार उन्हें भारतीय ज्ञान परंपरा का संस्कार, शिक्षा और स्वयं की युगांतरकारी प्रतिभा से प्रामाणिक प्रतिनिधि पुरुष ही
कहा जाना उचित ठहरता है।
इतना सब इस इस धारणा की प्रतीति में
है कि उत्तरकाण्ड में तुलसीदास जी ने इसकी कथावस्तु का जो स्वरूप अवधारित किया है
उसमें मुख्य रूप से वाल्मीकि की उत्तर रामायण का आधार देखा जा सकता है ।
3. निर्वचन मार्च 23
उत्तर रामायण -2
कथानक के रूप में राम चरित मानस के
उत्तरकाण्ड में श्री राम के अयोध्या लौटने पर उनका अभिषेक, विभीषण, सुग्रीवादि मित्रों की विदाई, राम राज्य का वैभव, राम का राज्य सभा सम्बोधन, कागभुशुंडि उपाख्यान, कलियुग संताप तथा ज्ञान और
भक्ति मार्ग का विवर्तन मुख्य प्रसंग हैं । अनंतर श्री राम द्वारा करोड़ों अश्वमेध
यज्ञ करने तथा उनके सहित अन्य भाइयों के दो-दो पुत्र होने का उल्लेख कर ही इस मूल
कथानक को ‘विश्राम’ दे दिया है ।
वाल्मीकि रामायण का षष्ठ कांड
‘पौलस्त्य (रावण) के वध’ के साथ एक अर्थ में पूर्ण हो जाता है जैसा कि महर्षि का
कथानक विषयक प्रतिज्ञा कथन् है – ‘ काव्यं रामायणं कृत्स्न्नं सीतायाश्चरितं महत्
। पौलस्त्यवधमित्येव चकार चारितव्रत: (बाल. 4/7) उनके उत्तरकाण्ड के 111 सर्गों
में लगभग 30% (1 से 34 सर्ग) भाग में रावण के अत्याचार का विवरण है । (यहाँ यह
ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि तुलसी ने रावण के इन अत्याचारों का वर्णन अपने
बालकाण्ड में ही समेट लिया है।) सर्ग 35-36 में हनुमान जी का इतिहास है । इसके
अतिरिक्त सीता जी के कथानक का अति महत्वपूर्ण भाग है – उनका वनवास, उनके द्वारा कुश और लव को जन्म देना और अंतत: उनका अपनी जन्मदात्री पृथिवी
की गोद में समय जाना । इसके अतिरिक्त श्री राम के साकेत धाम लौटने के पूर्व का एक
और महत्वपूर्ण वृत्त उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने लक्ष्मण को उनकी आज्ञा के
उल्लंघन के लिए दंडित करते हुए उनका परित्याग किया जिससे लक्ष्मण श्री राम के
साकेत प्रत्यागमन के पूर्व ही अपने अनंतशेष स्वरूप में स्थित हो जाते हैं ।
यदि हम तुलसी के अन्य महत्वपूर्ण
कथा-श्रोत पद्म पुराण का संदर्भ लें तो उसके पाताल खंड के अध्याय 1 से 68 में
मुख्य रूप से वाल्मीकि रामायण के उत्तरखंड का ही विस्तार मिलता है । इसके अतिरिक्त
स्कन्द पुराण के वैष्णव खंड में उत्तरकाण्ड के कथानक का समावेश है । उक्त के
अतिरिक्त वेद व्यास के महाभारत के वन पर्व में मार्कन्डेय ऋषि द्वारा युधिष्ठिर को
वर्णित श्री राम के कथानक की उत्तरकाण्ड विषयक कथावस्तु का सम्यक समावेश हुआ है ।
इस प्रकार श्री वाल्मीकि की संरचना में उत्तरकाण्ड की समायोजना की प्रामाणिकता पर
संदेह करना कुछ पूर्वाग्रह और कुछ अतिरिक्त बौद्धिकता जनित ही प्रतीत होता है ।
वस्तुत: उत्तर रामकथा के कुछ प्रसंग विशेषकर सीता परित्याग और संबूक वध से हमारी
वर्तमान स्त्री और दलित विमर्श चेतना आहत प्रतीत होती है अत: इससे त्राण का मार्ग
इस सम्पूर्ण वृत्त को प्रक्षिप्त मानना सुविधाजनक हो जाता है । किन्तु ऐसे अन्य
अनेक धरातल हैं जिनका स्पर्श करते हुए हम सभी आशंका-कुसशंका का निवारण कर सकते हैं
। किन्तु यहाँ न् तो इसका अवसर है और न ही इसकी आवश्यकता, अत: मैं गोस्वामी तुलसीदास के उत्तरकाण्ड की कथावस्तु की सारवत्ता तक ही
अपने आप को सीमित रख रहा हूँ ।
बाबा तुलसी को अपनी ‘सुहावन जन्म भूमि
पुरी (अयोध्या)’ स्वभावत: ही बहुत प्रिय है क्योंकि इसके ‘उत्तर दिसि’ पावन सरयू
बहती है । किन्तु उनके मानस की ‘सप्त सोपान’ भूमिका तो और भी अधिक स्पष्ट है –
‘ सप्त प्रबंध सुभग सोपाना’ (बाल.
36/1), ‘भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला’ । उ.
21/1) और ‘ एहि मह रुचिर सप्त सोपाना । रघुपति भगति केर पन्थाना’ (उ 128/3) ।
पार्वती जी के द्वारा पूछे गए सप्त
प्रश्नों का हम उल्लेख कर ही चुके हैं जिनका भगवान शिव सविस्तार उत्तर देते हैं और
वे जैसे साभिप्राय ही श्री राम के स्वधाम गवन के अष्टम प्रश्न को छोड़ देते हैं ।
यहाँ तक कि गरुड-कागभुशुंडि संवाद में अनेक प्रश्नोत्तरों की दीर्घ श्रंखला है
किन्तु अंत में गरुड सँजोकर रखे ‘सात’ प्रश्नों के उत्तर में ही परिपूर्णता पाते
हैं-
‘नाथ मोहि निज सेवक जानी । सप्त
प्रश्न मम कहहु बखानी। (उ. 120.2)
सबसे दुर्लभ कवन सरीरा (१)
बड़ दुख कवन (२)
कवन सुख भारी (३)
संत असंत मरम तुम जानहु । तिन कर सहज
सुभाव बखानहु । (४)
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला (५)
कहहु कवन अघ परम कराला (६)
मानस रोग कहहु समुझाई (७)
भगवान श्री राम के विषद लीला वृत्त, गरुड तथा कागभुशुंडि जैसे महान् भक्तों के व्यामोह के निवारण तथा ज्ञान
और भक्ति जैसे गूढ दर्शन सिद्धांत के निरूपण के पश्चात गरुड के इन सामान्य से सात
प्रश्नों को सुनकर यह लग सकता है कि क्या इनकी प्रासांगिकता तब भी शेष रहती है ।
किन्तु जैसे गोस्वामी जी को श्री राम के लोकोत्तर आख्यान को जन-जन तक पहुंचाना ही
अधिक अभीष्ट था । सुख-दुख, पुण्य-पाप, संत-असंत
और मन के निग्रह जैसे विषय मानवीय जीवन यापन के ऐसे आयाम हैं जो किसी भी व्यक्ति
के विचार की प्रक्रिया में आरंभ से अंत तक विद्यमान रहते हैं । और तो और
आरण्यकाण्ड में लक्ष्मण ( ‘ईश्वर जीव भेद प्रभु’ आ.14 ) और उत्तरकाण्ड में भरत
(संत असंत भेद बिलगाई । प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई । उ. 36.5) श्री राम से कुछ इसी
तरह के प्रश्नों के उत्तर चाहते हैं ।
वस्तुत: मानव जीवन अपने आप में ही
प्रश्नोत्तर की निरंतर प्रक्रिया है जिसे वह अपने अनुभव में लगातार दोहराने में भी
लगा रहता है । किन्तु इनका पूर्ण समाधान तभी संभव हो पाता है जब कोई सिद्ध
महापुरुष स्वानुभव से उनका समाधान करता है । फिर साक्षात श्री राम और उनके परम
प्रसाद भाजन कल्पांत जयी कागभुशुंडि से इनके समाधान के लिए उत्तरकाण्ड के समापन
बिन्दु पर श्री गरुड का प्रवृत्त होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं प्रतीत होता
।
उक्त विचार पूर्वक यही कहा जा सकता है
कि जिस प्रकार श्रीमद्भागवत के अंत में भगवान श्री कृष्ण उद्धव को - मामेव
नैरपेक्ष्येण
भक्तियोगेन
विंदति
।
(11/27/53) तथा भगवद्गीता के अंत
में अर्जुन को – सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज (गीता 18/66) कहते हैं, गोस्वामी तुलसीदास भी
रामायण के सम्पूर्ण कथानक का सार तत्त्व प्रपत्ति अर्थात् श्री राम की अनन्य भक्ति के उपदेश पूर्वक
अपने उत्तरकाण्ड का समापन करते हैं –
जासु
पतित पावन बड़ बाना । गावहिं कबि श्रुति संत पुराना
ताहि
भजहि मन तजि कुटिलाई । राम भजे गति केहि नहिं पाई । (उत्तर 129/7-8)
और
चूंकि यह एक आख्यानक महाकाव्य है, अत: वे गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज, खल, आभीर, यवन, किरात, खस और स्वपच आदि जीव, जाति और समूह के
परमोद्धार
के दृष्टांत देना भी नहीं भूलते । इस प्रकार तुलसी के मानस का उत्तरकाण्ड पारंपरिक
फलश्रुति के बहुत आगे प्रमाण, द्रष्टांत
और आत्मानुभव को भी प्रकाशित कर इसे स्वयं सिद्ध संपूर्णता का आधार प्रकट करता है
।
4. निर्वचन
अप्रैल 23
भारतीय ज्ञान परंपरा
का प्रकर्ष श्रीरामचरित मानस
वेद, वेदांग, उपांग, उपवेद, स्मृति, इतिहास, पुराण और दर्शन की
अजस्र ज्ञान परंपरा के सनातन भारतीय कोश के यदि किसी एक प्रतिनिधि ग्रंथ की हमें
यदि पहचान करनी है तो गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरित मानस की ओर हमारा ध्यान
स्वभावत: जाता है । गीर्वाण गिरा (संस्कृत) की ओर ध्यान जाने पर यद्यपि श्रीकृष्ण
की गीता विश्व पटल पर इस दृष्टि से साधिकार प्रतिष्ठित है, किन्तु
वेद के लौकिक प्राकार के साक्षात्कार हेतु श्रीरामचरित मानस के जन-जन के कंठहार
मानने के लिए सभी प्राज्ञ और परमार्थी महानुभावों की सहमति देखी जा सकती है । यह
स्पष्ट है कि काशी के शेष सनातन गुरुकुल में पढे गोस्वामी तुलसीदास समग्र भारतीय
ज्ञान-कोश में पारंगत तो थे ही, उनके
व्यक्तित्व में शील, सौष्ठव, लोकधारा
और साधुत्व की जो असाधारण प्रतिष्ठा थी, उसने
उन्हें अपने इस महाग्रन्थ के माध्यम से एक अजस्र-काल की धारा का सुमेरु ही समा
देने की सामर्थ्य प्रदान की थी ।
मानस के भरत वाक्य
‘नानापुराणनिगमागमसम्मतम्’ में तुलसी का मानस की प्रामाणिकता का उद्घोष तुलसी की
विनयशीलता में जैसे एक ‘ढिठाई’ ही थी तथा इस अपराध बोध से उन्हें ‘सुनि अघ नरकहुं
नाक सकोरी’ की प्रतीति हुई थी । किन्तु तुलसी की शास्त्रज्ञता के प्रति किसी भी अधिकारी
विद्वान,
मठाधीश, काव्यशात्री, लोकनायक
और सक्षम प्रवक्ता ने कभी, कहीं
संदेह प्रकट नहीं किया। प्रसिद्ध है कि धर्मसम्राट श्री करपात्री जी जब चातुर्मास
काल में केवल संस्कृत में ही संवाद करते थे तब भी वे मानस का पारायण यथाविधि करते
हुए यही कहते थी कि मानस तो संपूर्णतया मंत्रात्मक रचना है । इसलिए यहाँ यह विचार
उचित प्रतीत होता है कि हम भारतीय ज्ञान-परंपरा की मानस में विद्यमान उस शीर्ष
धारा का अनुसंधान करें जो सार्वभौमिक तौर पर सभी के लिए अवलंवनीय है ।
भारतीय ज्ञान परंपरा
में वेद सर्वथा परम प्रमाण हैं । तुलसी ने वेद की सार्वभौमिक और सार्वकालिक
प्रामाणिकता के इस संदर्भ को कभी भी विस्मृत नहीं किया । वेद के सृष्टि के नियंता
ईश्वर में अवतार लेने की सामर्थ्य इसीलिए है क्योंकि वह इस रचना का कारण और उपादान
दोनों है । यह ज्ञातव्य ही है कि अन्य मताबलम्बियों के ईश्वर में चूंकि अवतार लेने
की जब सामर्थ्य ही जब नहीं है तो वह सर्वशक्तिशाली कैसे हो सकता है ! भगवान शिव
कौशलपति श्री राम को जब समस्त संरचना और प्रलय की सामर्थ्य से युक्त बताते हैं तो
वेद का यही साक्ष्य उनकी परिदृष्टि में है –
‘जेहि इमि गावहिं बेद
बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान
सोइ दसरथ सुत भगत हित
कोसलपति भगवान ।‘ बालकांड 118
ऋग्वेद के पुरुष,
नासदीय,
हिरण्यगर्भ,
अस्यवामीय;
यजुर्वेद के ईशावास्य और अथर्ववेद के स्कंभ तथा उच्छिष्ठ ब्रह्म आदि सूक्त इसी
दृष्टि के आधार हैं जिनका इतिहास और पुराणों में ‘उपब्रहमण'
हुआ है तथा जो वाल्मीकि के ‘वेदवेदांगतत्वज्ञ’ (वा.रा.1/11) तथा वेदव्यास के
‘धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परम्’ (भाग. 1/1/1) हैं । व्यास जी ने यहाँ
एक और चेतावनी दी है कि ईश्वर की इस ‘अभिज्ञ स्वराट्’ ब्रह्म की पहचान करते हुए
परम प्रबुद्ध भी विमूढ़ित हो जाते हैं- मुहयन्ति यत् सूरय:’ । यह स्वयं ब्रह्मा, शिव, सती
और इंद्रादि सहित उन षड्दर्शन शास्त्रियों के संबंध में भी सही प्रतीत होता है जो
इस अगोचर सत्य को एक देशीयता में खोजने में कभी-कभी प्रवृत्त हुए हैं । तुलसी ने
स्वयं वेदों से श्री राम की स्तुति में इसी सत्य का निदर्शन इस प्रकार किया है-
‘तव विषम माया बस
सुरासुर नाग नर अग जग हरे
भव पंथ भ्रमत अमिट
दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ।‘ उत्तरकाण्ड 13क
यहाँ तुलसी के ‘मानस’
में छ: वेदांग -
शिक्षा,
कल्प,
व्याकरण,
ज्योतिष,
छंद और निरुक्त;
उपांग-इतिहास-पुराण,
धर्मशास्त्र,
न्याय और मीमांसा अथवा 4 उपवेद-
धनु:,
गांधर्व,
आयुर्वेद तथा स्थापत्य आदि के विवरण विस्तार में जाने का प्रसंग नहीं है । इसके
अध्येताओं को यह प्रायः सुविज्ञात ही है तुलसी ने लगभग 56 वार्णिक और मात्रिक
छंदों का अपने काव्य में भाषाई सौष्ठव और रस परिपाक सहित निर्दोष काव्यशास्त्रीय
अनुशासन में प्रयोग किया है । राम रावण युद्ध में धनुर्विद्या के प्रयोग तथा मानस
रोग प्रसंग में आयुर्वेद और श्री राम के जन्म काल में ‘जोग
लगन ग्रह बार तिथि’ आदि ज्योतिषीय ज्ञान की परिपूर्णता का वे परिचय देते हैं । इसी
तरह मिथिला और अयोध्या वर्णन काल में स्थापत्य विधान का भी अद्भुद दिग्दर्शन है।
यहाँ तक कि प्रकृति से योग्य मानवीय संव्यवहार के पारिस्थितिक विज्ञान के भी अनेक
प्रसंग इसमें संदृष्टव्य हैं । पर हम यहाँ उनके कुछ ऐसे समन्वयक सूत्रों पर ही
ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं जो ज्ञान की बहुमुखी धाराओं में एकतानता स्थापित
करते हैं ।
दर्शन के सिद्धांत, मत
और धारणाओं में लोक और काल में ही नहीं, इनके
इतर भी विरोध का काम करता है जिसके परिणाम स्वरूप ज्ञान की प्रकट और परिसिद्ध
परंपरा भी काल-क्रम में परिलुप्त हो जाती है । ज्ञान की परंपरा में इन
द्वंद्वाभाषों के अतिरिक्त लोक और वेद की मान्यताएँ भी संघर्ष करती हैं जिसके कारण
यह धारा अवरुद्ध प्रतीत होने लगती है । श्रीरामचरित मानस में तुलसी ने इन सब
खाइयों के बीच जिन सेतुओं का निर्माण किया है वे सर्वदा अनूठे हैं । उनकी रामकथा
की सरयू के दो किनारे ‘लोक बेद मत’ के ‘मंजुल कूल’ ( बाल. 39/6) तो हैं ही, चित्रकूट
की महती राजसभा को श्री राम का स्पष्ट परामर्श है-
‘भरत बिनय सादर सुनिअ
करिअ बिचारु बहोरि
करब साधुमत लोकमत
नृपनय निगम निचोरि।‘ अयो.
258
निगम-आगम,
वैष्णव-शैव,
द्वैत-अद्वैत,
उपासना-ज्ञान,
सगुण-निर्गुण,
साधु-असाधु,
सत्-असत् माया-जीव-ब्रह्म तथा देश, काल, वर्ण, आश्रम
आदि की शास्त्रीय धारणाओं का ‘रस’ रूप ‘सार’ प्रस्तुत कर पाने की तुलसी की क्षमता
असीम है । इसलिए तुलसी के ही शब्दों में –
‘ गावत बेद पुरान
अष्टदस, छओ
सास्त्र सब ग्रंथन को रस
मुनि जन धन संतन को
सरबस,
सार अंस सम्मत सबही
की।‘
मानस है और इसकी
भारतीय ज्ञान परंपरा के सार सर्वस्व के रूप में आरती की जाना सर्वथा ही योग्य है ।
5.
निर्वचन मई २०२३
ऋषि अगस्त्य के श्री राम
भारत में १२वीं सदी से लगातार रामार्चन के लिए अगस्त्य संहिता'
प्रमुख ग्रन्थों में से एक है । अगस्त्य संहिता के भविष्य खण्ड के १३१-१३५ अध्यायों में 'रामानंदजन्मोत्सव'
का भी एक प्रसंग कुछ संस्करणों में मिलता है जिसमें कलियुग के ४४०० वर्ष बीत जाने पर उल्लेख हुआ है कि-
आविर्भूतो महायोगी द्वितीय इव भास्कर:
रामानंद इति ख्यातो लोकोद्धरणकारण:
यह प्रश्न उठता है कि १२९९ ईसवी में इस प्रकार जन्मे श्रीरामानंद जी १५१८ और १५२७ में जन्मे कबीर और रैदास के गुरु कैसे हो सकते थे?
इसलिए विद्वान इस खण्ड को प्रक्षिप्त मानते हैं । पर अगस्त्य संहिता रामोपसना का प्राचीनतम वैष्णवागम ग्रन्थ सर्वथा मान्य और स्वीकृत है । यदि रामतापनीयोपनिषद् रामोपासना का निगम कल्प है तो अगस्त्य संहिता आगमिक । अध्यात्म रामायण भी अगस्त संहिता का उल्लेख करती है । अथर्ववेद से संबंधित 'रामतापनीयोपनिषद्'
में अनेक स्थलों पर अगस्त्य संहिता की शब्दावली से मेल खाते अनेक श्लोक मिलते हैं ।
अगस्त्य संहिता में श्री राम के
षोडसोपचार पूजन द्रारा नित्य,
नैमित्तिक और काम्य कर्मकाण्डों को विहित किया गया है । श्री राम की अनन्या भक्ति इसका मूल प्रतिपाद्य है । यह महामुनि अगस्त्य के अपने शिष्य सुतीक्ष्ण के साथ संवाद रूप में अभिकथित
है । अगस्त्य जी अपने उत्तर में शिव-पार्वती के संवाद द्वारा इसे विस्तार देते हैं । भगवान शंकर के अनुसार भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा को विश्व कल्याण के लिए पर षडक्षर राममंत्र का उपदेश किया । संहिता के सप्तम अध्याय में बताया गया है कि इसी षडक्षर मंत्र को उन्होंने भगवान शिव को प्रदान किया जिसके कारण भगवान शिव ने काशी में मरने वाले जीवों का उद्धारत्व प्राप्त किया ।
फलं भवतु देवेश सर्वेषां मुक्तिलक्षणम्
मुमूर्षाणां च सर्वेषां दास्ये मन्त्रवरं परम् । अगस्त्य संहिता ७/३४
मानस प्रेमी यहाँ तुलसी के कथन -
'कासीं मरत जंतु अवलोकी,
जासु नाम बल करउं बिसोकी।'
( बाल.
१/११९)
का स्पष्ट आधार प्राप्त कर सकते हैं !
महर्षि अगस्त्य आगम,
निगम,
इतिहास और पुराण यहाँ तक
कि तमिल भाषा के आधुनिक वैय्याकरणी के रूप में अभिज्ञात हैं । वाल्मीकि और तुलसी रामायण उन्हें रावण के संहार में
राम का परम सहायक सिद्ध करती है । वाल्मीकि रामायण का अगस्त्य द्वारा प्रदत्त ३१ श्लोकों का आदित्य हृदय स्तोत्र वह परमास्त्र था जिसका श्री राम उपयोग करते हैं । तुलसी ने भी श्री राम द्वारा अंतत:
'छांडे सर इक्तीस'
का उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में
श्री राम की सभा में अगस्त्य द्वारा विवर्णित अनेक कथा प्रसंगों का प्रामाणिक साक्ष्य
मिलता है ।
ऐसे ऋषि,
वैज्ञानिक और लोक कल्याण के
सर्वोच्च विधायक महर्षि अगस्त्य की श्री रामाराधना विषक अगस्त्य संहिता का अध्ययन,
शोध और अवगाहन वर्तमान
प्रबुद्ध समाज को सर्वथा ही विधेय हो जाता है ।
6. निर्वचन जून 23
वेद का लोक-संस्करण श्रीरामचरितमानस
श्रुति
वचन है- ऋते ज्ञानान्न मुक्ति (हिरण्यकेशीय शाखा) अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति
नहीं । ज्ञान है सत्य का स्वानुभव । और
सत्य- हमारे नित्य संध्या विधान के मंत्र ‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ में जब स्मरण किया जाता है
तो स्पष्ट है कि सभी को उसके साक्षात्कार का अवसर प्राप्त है । श्रीमद्भागवत का तो
प्रथम श्लोक के अंतिम चरण में इसी आशय के प्रतिज्ञा कथन ‘सत्यं परं धीमहि’ से
ग्रंथ का आरंभ किया गया है । भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार स्तम्भ वेद-वेदांग से
लेकर स्मृति, पुराण इतिहास आदि सभी शास्त्रों में इसी सत्य के ‘शब्द प्रमाण’ भरे हुए
हैं । इनमें गीता और रामायण हमारी दो हथेलियों में उपलब्ध ऐसे दर्पण ही हैं जिनसे
इसके साक्षात्कार का हमें अवसर सदा ही सुलभ बना हुआ है ।
गीता
में भगवान श्रीकृष्ण की स्पष्ट घोषणा है ‘ज्ञानं तेsहं
सविज्ञानमिदं वक्षयाम्यशेषत:’ (7/2) अर्थात् श्री कृष्ण की घोषणा है कि वे ज्ञान
को उसकी प्रायोगिकता में समझा रहे हैं । रामचरित मानस में श्री राम लक्ष्मण के
प्रश्नों के उत्तर में संक्षेप में सार स्वरूप इसी सत्य का प्रतिपादन इस प्रकार
करते हैं –
‘मैं अरु मोर तोर
तें माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया
गो गोचर जहॅ लगि मन
जाई । सो सब माया जानेहु भाई । ..
माया ईस
न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव
बन्ध
मोच्छप्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव । ( आरण्यकांड 15)
ईश्वर और मनुष्य के
बीच की दूरी मात्र माया के अंधेरे की इस दीवाल की ही है जो ज्ञान के प्रकाश से उसे
तत्क्षण मुक्ति के द्वार में प्रविष्ट करा देती है । ठीक इसी प्रकार का उपदेश श्री
राम भरत को भी प्रदान करते हैं –
सुनहु तात माया कृत
गुन अरु दोष अनेक
गुन यह उभय न देखिअहि
देखिअ सो अविवेक । उत्तरकाण्ड 41
अर्थात् हे भाई (भरत)
माया के कार्य की अनेक सकारात्मक और नकारात्मक विशेषताएँ हैं । इनका निदान इतना
गहन है कि उसमें मनुष्य का न पड़ना ही श्रेयस्कर है । यदि इसके विस्तार में वह जाता
है तो यह उसका अविवेक ही ठहरता है (क्योंकि इससे उसके बंधन ही प्रगाढ़ होते हैं)।
मानस में ही शिव, विरंचि, सती, भुशुंडि, गरुड
और इंद्रादिक देवताओं के इस माया से विमोहित हो जाने के अनेकानेक प्रसंग हैं। आगे
अन्य दूसरों की तो बात ही उत्पन्न नहीं होती । पार्वती जी द्वारा राम के स्वरूप को
समझने के लिए पूछे जाने पर श्री शिव वेदान्त दर्शन के इसी सत्य सार की इस प्रकार
प्रतिष्ठा करते हैं-
झूठेउ सत्य जाहि बिनु
जाने । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने
जेहि जानें जग जाइ
हेराई । जागे जथा सपन भ्रम जाई । बालकांड 112/1
असत् (माया) बोध से
रज्जु में भुजंग की प्रतीति अथवा स्वप्न में सत्यत्व का आभास इसी माया का गुण अथवा
दोष (विशेषता!) है जिससे निवृत्ति का उपाय मात्र अपने वास्तविक सत् स्वरूप में
जागना और स्थित हो जानया है । जिस तत्व बोध को वेद के चार महावाक्य- अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा
ब्रह्म और प्रज्ञानं ब्रह्म उद्घाटित करते हैं, रामचरित
मानस के प्रथम प्रवक्ता श्री शिव इस प्रकार उन्मीलित करते हैं –
जगत प्रकास्य प्रकाशक
रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू
जासु सत्यता तें जड़
माया । भास सत्य इव मोह सहाया
रजत सीप महुँ भास जिमि
जथा भानु कर बारि
जदपि मृषा तेहुं काल
सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि । बालकांड 117
विश्व मानव के लिए जीव, जगत, माया
और ब्रह्म का यह निदर्शन भारतीय दर्शन का परमोच्च अवदान है । सदा से सदा के लिए
संपादित मानव की चेष्टा इसी बोध में परिसमाप्त होने को हैं । इस प्रकार सनातन ज्ञान-सागर के जन-जन को सुलभ
सत्व रामचरित मानस विश्व को प्राप्त वरदान दैवी प्रसाद से कदापि भिन्न नहीं है ।
7.
निर्वचन
जुलाई 23
काव्य का
प्रयोजन
भारतीय साहित्य परंपरा में काव्य के प्रयोजन
पर भरत मुनि,
भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, आनंद
वर्धन, कुंतक, महिम भट्ट, अभिनव
गुप्त, भोज, मम्मट और
विश्वनाथ आदि आचार्यों ने व्यक्ति और वैश्विक दोनों ही परिप्रेक्ष्य में बहुत
परिपूर्णता से विचार किया है । सामान्यतया उनके अनुसार जहां काव्य
व्यक्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष) का साधन है वहीं यह महाभूतों (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और
आकाश) की तरह अशिव के निवारण का भी कार्य करता है । इस प्रकार प्रातिभ रचनाकार्य
परमात्मा की सृष्टि की ही एक पूरक इकाई हो जाता है । पश्चिम के विचारकों में
प्लेटो, अरस्तू, रस्किन, टालस्टाय, कॉलरिज, आर्नोल्ड
और आई ए रिचार्ड्स भी प्राय: इन्हीं
धारणाओं के हैं ।
गोस्वामी
तुलसीदास ने जैसे इसका सम्पूर्ण समाहार करते हुए मानवीय अस्तित्व के सभी आयामों की
सार्थकता और सिद्धि को अपूर्व रीति से इस प्रकार परिभाषित कर दिया –
कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कर
हित होई ।
अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व राजा भोज के
समकालीन आचार्य मम्मट ने अपने ‘काव्य प्रकाश’ में कविता के बहुआयामी समन्वित छ:
उद्देश्य इस प्रकार बताए हैं –
काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे
शिवेतरक्षतये
सद्य: परनिवृत्तये कांतासम्मिततयोपदेशयुजे ।
इनमें चतुर्थ अशिव के क्षय विषयक कार्य है । शिव मंगल
के प्रतीक हैं । यजुर्वेद में ‘नम: शंभवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च
नम: शिवाय च शिवतराय च’ (16/41) इस मंत्र के छहों विशेषण शिव के कल्याणकारी होने
के ही विधायक और परिचायक हैं । अत: एक कवि की कारयित्री क्षमता का अशिव के शमन में
योग महत्वपूर्ण हो जाता है । कवि यह कार्य नवरस की वर्षा के अतिरिक्त यथा स्थिति
व्यंग्य, वक्रोक्ति
और लक्षणा शब्द शक्ति के माध्यम से भी पूरा किया करता है ।
हिन्दी साहित्य के वर्तमान युग में भी महावीर
प्रसाद द्विवेदी,
मैथिली
शरण गुप्त, जयशंकर
प्रसाद, रामचन्द्र
शुक्ल, हजारी
प्रसाद द्विवेदी,
नगेन्द्र, नन्द
दुलारे वाजपेयी प्रभृति रचनाकार कवित्व की इसी प्रकृत धारा के पैरोकार रहे हैं ।
विगत सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम के भौतिक यथार्थ बोध की प्रतिस्पर्धा में
प्रतिनिधि हिन्दी कविता भी जैसे अपनी प्रकृत पहचान से दूर हो चली थी जबकि थोरो, इमर्सन, वहाल्ट
व्हिटमैन, एट्स और
इलियट आदि सनातन भारतीय दृष्टि के अनुसंधान में लगे थे ।
यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान में भारतीय
ज्ञान भंडार के सम्यक् अन्वीक्षण
और द्रष्टा ऋषियों की परादृष्टि की प्रकृत पहचान की नित नूतन पहल हो रही है । उसे
यह समझ आने लगा है कि साहित्य और कला जीवन के भौतिक उपादान तक सीमित किए जाकर
उपभोग के पर्याय बनाकर नहीं छोड़े जा सकते । जिस प्रकार मनुष्य के अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त और
अहंकार) की अवस्थाओं के प्रकटीकरण के लिए स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति
और समाधि की अवस्थाएँ आवश्यक हैं,
वैसे ही
समग्र जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान,
विज्ञान, कला-साहित्य
और परा-दृष्टिवत्ता
भी आवश्यक है ।
गोस्वामी तुलसीदास ने इस सत्य का साक्षात्कार
किया था तथा उन्होंने विवेकी जनों को इस हेतु आवश्यक दर्पण भी दिखाया –
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक
सो बिचारि सुनहहिं सुमति जिन्ह के बिमल बिबेक
। बाल. 9
8.
निर्वचन अगस्त 23
गीता-प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी
महोत्सव
7 जुलाई 2023 को भारत के प्रधान मंत्री श्री
नरेंद्र मोदी ने गीता प्रेस गोरखपुर में सम्पन्न गीता प्रेस की स्थापना के शताब्दी
समारोह में उपस्थित हो संस्थान को करोड़ों भारतीयों के अन्त:स्थ मंदिर की संज्ञा
प्रदान की । ठीक इसी भाव भूमिका में मानस भवन के श्री रामकिंकर सभागार में तुलसी
मानस प्रतिष्ठान,
हिन्दी
भवन और सप्रे संग्रहालय भोपाल के समन्वित प्रकल्प में एक दिन पूर्व 6 जुलाई को
मध्य प्रदेश की प्रतिनिधि संस्थाओं की ओर से गीताप्रेस की पुस्तक प्रदर्शिनी सहित भगवत्प्राप्त
भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार और सेठ जयदयाल जी गोयंदका को पुष्पांजलि अर्पित की गई ।
इस अवसर पर विचारक मनीषियों ने व्यक्त किया गया कि जिस प्रकार गोस्वामी तुलसी ने
मध्य काल में लोकरक्षण का कार्य किया ठीक उसी प्रकार गीता प्रेस गोरखपुर ने
वर्तमान काल में सनातन धर्म को अभिनव पहचान प्रदान कर भारत के विस्मृतप्राय
अध्यात्म, दर्शन, साहित्य
और इतिहास के प्रलुप्त गौरव को नई पीढ़ी के सुपुर्द किया है।
प्रकारांतर से इस अवसर पर भारत सरकार द्वारा
गीताप्रेस को प्रदत्त प्रतिष्ठित गांधी-सम्मान को लेकर उठाए गए प्रश्न पर भी
वक्ताओं ने स्पष्ट रूप से
‘कल्याण’ पत्रिका तथा इसके संस्थापक संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार पर गांधी
जी के प्रभाव और इनके संबंध की आंतरिकता पर भी प्रकाश डाला । एक अर्थ में श्री
पोद्दार जी गांधी जी की उस वैष्णवता का ही विस्तार थे जिसमें स्वभावजन्य उदारता, परमार्थ, राष्ट्रप्रेम, सर्वजन
हित और विश्व मानवता की प्रतिष्ठा होती है । यदि किसी की दृष्टि में अक्षय मुकुल
द्वारा गीता प्रेस पर लिखी ‘मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’ पुस्तक की राहु छाया पडी है
तो वह एकांगी और पूर्वाग्रह ग्रसित ही है।
‘तुलसी मानस भारती’ ने गांधी जन्म शताब्दी के
अवसर पर अपने अंक अक्टोबर 2020 में ‘श्वास श्वास में राम’, वार्षिकांक
जनवरी 2023 में ‘गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी वर्ष’ शीर्षक से
संपादकीय और जून 23 के अंक में बालकृष्ण कुमावत के आलेख ‘ दैवी संपदा की
प्रतिमूर्ति भाईजी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार’ प्रकाशित किए हैं । हमारी आगामी
वार्षिकांक की योजना भी गीता प्रेस गोरखपुर के अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, भाषा और
भारतीय लोक जीवन पर पड़े अमिट प्रभाव के समाकलन विषयक है । क्या यह एक विडंबना नहीं
है कि जहां अध्यात्म और संस्कृति के क्षेत्र में गीताप्रेस के अभिदाय की
अपरिहार्यता स्वीकार की जाती है,
संस्कृत, हिन्दी, देश की
अन्य भाषाओं तथा हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में इस संस्थान के योग को प्रायः
बिसार दिया जाता है । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि वर्तमान भारतीय शिक्षा
व्यवस्था में भारतीयता के जड़-मूल में पैठी इस संस्था को वह स्थान प्रदान नहीं किया
गया जिसकी वह संपूर्ण अधिकारिणी है ।
जिस संस्थान की गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद, स्तोत्र, पूजा विधि, भाष्य, विशेषांक
और कल्याण पत्रिका की शास्त्र सम्मतता के प्रति चारों प्रधान शंकराचार्य पीठ, काशी
अयोध्या, वृंदावन, उज्जैन
आदि के साधु-मनीषी और विद्वत समाज एकमतेन पूरी तरह आश्वस्त हों उसके परम प्रमाण पर
संदेह जैसी स्थिति क्योंकर उत्पन्न हुई ? भारतीय
ज्ञान परंपरा जहां वेद को ‘शब्द प्रमाण’ की सत्ता प्राप्त है, वहाँ गीता
प्रेस के इतने कुशल,
श्रम
साध्य और
पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि की संपूर्णता का सामान हो उसे किसी भी प्रकार से
विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए ।
आइए, हम भारतीय
मेधा के महर्षियों की श्रुति,
स्मृति, संहिता, आख्यान और
आचार विज्ञान को शब्दाकार देने वाले विश्व के सर्वाधिक उपकारी गीताप्रेस और उसके
संस्थापकों को अपनी आदरांजलि प्रदान कर ऐसी धन्यता की प्रतीति करें जो परमार्थ का
बोध कराती है ।
9. निर्वचन सितंबर 23
वेद का लोक संस्करण
मानस
क्या वेद का कोई
लोक-संस्करण भी है, हो सकता है ? और यदि ऐसा है, तो इसकी संरचना कब और कैसे हुई ? स्वयं तुलसीदास ही लोकमत को वेद मत के समतुल्य मानते हुये लिखते हैं –
‘चली
सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ।
सरजू नाम सुमंगल
मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला । बाल. 38/6
अर्थात् रामचरित
मानस की राम का यशोगान करने वाली प्रवहमान सुंदर कविता-नदी सरयू के वेद और लोकमत
रूपी दो किनारे हैं ।
रामचरित मानस
में चित्रकूट की धर्म और राजनय की विराट
सभा में अयोध्या राज्य प्रभार के निर्णय के संबंध में त्रिकालज्ञ गुरु वशिष्ठ कहते
हैं –
भरत बिनय सादर
सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि
करब साधुमत
लोकमत नृपनय निगम निचोरि । अयोध्या 258
वेद के तीन
प्रभाग हैं – उपासना, कर्म और ज्ञान । इसे
वेदत्रयी अर्थात् क्रमश: ऋक्, यजु और सामवेद को कहा जाता है
। इससे यह भी समझ लेना है कि वेद का अधिकतम लगभग 80 प्रतिशत भाग उपासना, 15 प्रतिशत कर्म और लगभग 5 प्रतिशत ज्ञान प्रधान है । इस तरह वेदान्त, जो अद्वैत दर्शन के रूप में अभिज्ञात है, इस
ज्ञानाश्रयी धारा का महाप्रस्थान है । उपनिषद, ब्रह्मसूत्र
और भगवद्गीता इसकी प्रस्थानत्रयी है । भारतीय षड् दर्शन- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और
पूर्वमीमांसा के बाद उत्तरमीमांसा ही वेदान्त अर्थात् वैदिक मनीषा का शीर्ष भाग है
। जहां इसमें योग का पर्यवसान होता है वहीं पूर्वमीमांसा वैष्णवी पुष्टि धारा में
इसका ‘विशिष्ट’ प्रभाव स्पष्ट
दृष्टिगोचर होता है ।
भारतीय ज्ञान
परंपरा के स्तम्भ वेद, वेदान्त, इतिहास, पुराण आदि सभी शिला-पट्टों में अमिट रह
सनातन भारतीय संस्कृति का यही जीवन व्यवहार बनता है । इस लोक विश्रुत आदर्श को
अपने रामचरित मानस में जीवन का आधार दर्शन बनाते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने इसी लिए
कहा –
सीय राम मय सब
जग जानी । करहुँ प्रणाम जोर जुग पानी । (बालकांड 7/1)
परंब्रहम
निश्चित ही एकसाथ विश्वमय और विश्वोत्तीर्ण हो सकता है । तभी भगवान भोलेनाथ मंत्र,
विधि और निषेध आदि की सीमा से परे चले जाते हैं । भगवान शिव के इसी शाबर-मंत्र जाल
की महिमा का बखान गोस्वामी तुलसीदास ने करते हुए कहा है –
‘कलि
बिलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरजा
अनमिल आखर अरथ न
जापू । प्रगट प्रभाव महेस प्रतापू । बाल. 15/3
अर्थात् शिव-शक्ति ने कलियुग को देखते
हुए संसार के हित में शाबर मंत्र समूह रचा । इसके शब्द, अर्थ और जप प्रक्रिया में
स्वयं का ही विधान काम करता है और यह शिव के प्रसाद से त्वरित फलदायी भी है ।
लोक और वेद के
एक अद्भूद समाहार का दृश्य रामचारित मानस के आयोध्याकाण्ड में तब मिलता है जब श्री
राम अपने वनवास काल में चित्रकूट पहुंचते हैं । वहाँ के मूल निवासी ‘कोल, किरात’
को जब यह सूचना मिलती है तो वे ‘कंद मूल फल भरि भरि दोना । चले रंक जनु लूटन सोना’
का आदर्श प्रस्तुत कर कहते हैं –
‘हम सब धन्य
सहित परिवारा । दीख दरसु भर नयन तुम्हारा
कीन्ह बासु भल
ठाँव बिचारी । इहाँ सकल ऋतु रहब सुखारी ।‘
इस पर श्री राम
की प्रतिक्रिया और गोस्वामी तुलसीदास की टिप्पणी भी उतनी ही अनूठी है –
‘बेद बचन मुनि
मन आगम ते प्रभु करुणा ऐन
बचन किरातन्ह के
सुनत जिमि पितु बालक् बैन ।‘ अयोध्याकांड 136
10. निर्वचन अक्टोबर
2023 ज्ञानं ब्रह्म
भारतीय परंपरा
में ज्ञान के पर्याय वेद हैं । ऋग्वेद
के 10 मंडलों में 1028 सूक्त और 10600 ऋचाएँ,
सामवेद के 6 अध्यायों में मंत्र 1875, यजुर्वेद
के अध्याय 40 में 1975 मंत्र तथा अथर्ववेद के 20 कांड में 740 सूक्त और
मंत्र 5962 हैं । चारों वेद संहिताओं की कुल मंत्र संख्या 20379 है । श्री
वेदव्यास को वेदों के चार भागों में वर्गीकरण का हेतु माना जाता है। उन्होंने इनके
परिशिक्षण का दायित्व अपने शिष्यों -ऋग्वेद का
वैशम्पायन, यजुर्वेद का सुमंतु, सामवेद का पैल और अथर्ववेद का जैमिन को सौंपा।
इनकी विषयवस्तु
के संबंध में संक्षेप में इतनी जानकारी पर्याप्त है कि ऋग्वेद मंत्रात्मक आराधन, यजुर्वेद याज्ञिक अनुष्ठान, सामवेद समाधि युक्त
अनुगान और अथर्ववेद राज, समाज, विज्ञान,
औषधि, मनस और सृष्टि संचार के विषयों को
समेटता है । इसके अतिरिक्त जैसा कि वेदों का उपवेदों में विस्तार हुआ, ऋग्वेद से आयुर्वेद, सामवेद से गांधर्ववेद, यजुर्वेद से धनुर्वेद तथा अथर्ववेद से अर्थशास्त्र का प्रणयन हुआ।
यदि वेद के
शिरोभाग वेदान्त का सार संदेश एक पंक्ति में समाहित करना है, तो यजुर्वेद 40/1 से निम्नलिखित मंत्र उद्धृत किया
जा सकता है -
ईशावास्यमिदं
सर्वं यत्किंचजगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन
भुन्जीथः मा गृधः कस्यस्वित्धनम् ।
यही मंत्र
ईशावास्योपनिषद का भी प्रस्थान बिन्दु है । विनोबा भावे ने ईशावास्योपनिषद की अपनी
टिप्पणी "ईशा वृत्ति" में इस तथ्य पर जोर दिया है कि भगवद्गीता के बीज
ईशावास्योपनिषद में खोजे जा सकते हैं। यह शास्त्र संपूर्ण वेदांत का प्रतिनिधि
दर्शन है। इसके इस पहले मंत्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए हम बहुत अच्छी तरह से
निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि विश्व बंधुत्व के सिद्धांत, एकमानवीयता की जीवन शैली और उपयुक्त विश्व व्यवस्था की योग्य नीति मूलत:
इसी में निर्धारित की गई है।
वेद, जैसा कि हमें समझना चाहिए, निरपेक्ष ब्रह्म का
अनुचिन्तन हैं । भारतीय ऋषि वैज्ञानिक
जीवन को उसकी पूर्णता- भौतिक के साथ-साथ आध्यात्मिक रूप से जीने के लिए
मनुष्य के प्रतिनिधि जीवन-नियमों के अन्वेषणकर्ता
हैं। मानव जीवन के छह मूल सिद्धांत दर्शन - न्याय, वैशेषिक,
कर्म, सांख्य, योग और
वेदांत, भी वेद विनिश्रित हैं । इनका औपनिषदिक शिरोभाग
वेदान्त सभी का उपसंहार है। प्रस्थानत्रयी के नाम से प्रसिद्ध उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता इस दर्शन के आधार स्तम्भ हैं । वेदांत को अद्वैत
दर्शन भी कहा जाता है क्योंकि यह ईश्वर के सार्वभौम एकत्व का उद्घोषक है।
ब्रह्म सूत्र के
दूसरे सूत्र में कहा गया है, संसार की उत्पत्ति
ब्रह्म से ही हुई है – जन्माद्यस्य यतः (ब्रह्म सूत्र-2)।
गीता में इस
ज्ञान के कुछ संदर्भ निम्नानुसार देखे जा सकते हैं –
श्रीमद्भग्वद्गीता में ज्ञान की
परिभाषा, उसके विस्तार और उसे ज्ञान प्राप्ति का जिस प्रकार
श्रेष्ठ साधन बताया गया है उसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं –
नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रामिह विद्यते
(4.8)
(ज्ञान से श्रेष्ठतर इस संसार में कुछ
भी नहीं है ।)
तैत्तिरीयोपनिषद् के प्रथम अनुवाक की
ब्रह्मानंदवल्ली में यह उल्लेख है कि सत्य, ज्ञान और अनंतता ही ब्रह्म है तथा उसका निवास वेद में निहित परं व्योम की
कन्दरा के भीतर है –
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं
गुहायां परमे व्योमन् ।
भारत के पुनर्जागरण में भारतीय ऋषियों
के द्वारा समग्र संसार के कल्याण के लिए किए गए इस सत्य के साक्षात्कार का समय
सन्निकट है, ऐसा अनुमान किया जा सकता है !
11. निर्वचन नवंबर 23
मानस
का समन्वित सांख्य दर्शन
गीता में भगवान
श्रीकृष्ण ने जिनके लिए ‘सिद्धानां कपिलो मुनि:’ कहा वे ही सांख्य दर्शन के
प्रणेता और स्वयं विष्णु के 24 अवतारों में एक कपिल मुनि हैं । वर्तमान की जानकारी
के अनुसार वे ईशा पूर्व 700 वर्ष पहले थे । यद्यपि उनके मूल सांख्य सूत्र तो
अनुपलब्ध हैं किन्तु 300 वर्ष ईशा पूर्व के उनकी परंपरा के आचार्य ईश्वर कृष्ण
शास्त्री की ‘सांख्य कारिकाएँ’ सुलभ हैं जिससे इस दर्शन सिद्धांत की सम्यक जानकारी
प्राप्त होती है ।
गोस्वामी
तुलसीदास ने रामचरित मानस के बालकांड में भगवान राम के अवतार के हेतुओं में मनु और
सतरूपा के तप के संदर्भ विवरण में उनके पुत्र प्रियवृत की पुत्री देवहूति और उनके
पुत्र कपिल का संदर्भ इस प्रकार दिया है –
‘आदिदेव प्रभु
दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला
सांख्य सास्त्र
जिन्ह प्रगट बखाना । तत्व बिचार निपुन भगवाना ।‘ (141/4)
श्रीमद्भागवत के
तृतीय स्कन्ध के अध्याय 24-33 में विस्तार से भगवान कपिल के अवतार और माता देवहूति
को उनके प्रदत्त तत्वज्ञान का विवरण है । इसके परिणाम स्वरूप देवहूति को मोक्ष की
प्राप्ति होती है । अपने मूल प्रश्न में देवहूति सांख्य दर्शन के प्रकृति और पुरुष
के द्वैत तत्व को जानने का अनुरोध इस प्रकार करती हैं –
‘ तं त्वा गताहं
शरणं शरण्यं स्वभृत्यसंसारतरो: कुठारम्
जिज्ञास्याहं
प्रकृते: पुरुषस्य नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ।‘ (1/25/11)
माता देवहूति
यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह पूछती हैं कि मनुष्य उससे स्वभावत: अभिन्न प्रकृति
से कैसे परे जा सकता है तो भगवान का उत्तर है कि जिस प्रकार अरणि अग्नि उत्पन्न कर
स्वयं उससे भस्म हो जाती है उसी प्रकार प्रकृति को साधना पूर्वक आत्मा के प्रकाश
में तिरोहित हो जाती है ।
रामचरित मानस के
बालकांड में जैसे यही तत्वबोध भगवान शिव दोहा क्रमांक 107 से दोहा 120 तक पार्वती
जी को प्रदान करते हुए कहते हैं कि प्रकृति प्रधान यह संसार असत् होते हए भी उसे
उसी प्रकार दुख देता रहता है जिस प्रकार स्वप्न में कोई अपने सिर के काट लिए जाने
पर तब तक दुखी बना रहता है जब तक कि वह जाग नहीं जाता है ।
सांख्य दर्शन की
एक महत्वपूर्ण अवधारणा ‘सत्कार्यवाद’ है । इसका आशय यह है कि इस मत के अनुसार कोई
भी सृष्टि अथवा सर्जन ‘सत्’ से ही संभव है, असत् से नहीं । यह धारणा वर्तमान में भी पूरी तरह से युक्तियुक्त ही है
क्योंकि जो है ही नहीं उससे जो कुछ है वह कैसे जन्म ले सकता है । श्रीकृष्ण ने
गीता में इसीलिए कहा – ‘नासतो विद्यते भावो न भावो विद्यते सत:’ (2/16) । इसके
अनुसार प्रत्येक कार्य का कारण होना आवश्यक है । कारण दो प्रकार का होता है
-निमित्त और उपादान । ये दोनों प्रकृति और पुरुषसंगक हैं तथा अनादि हैं । गीता में
भी श्री कृष्ण ने कहा ‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्यनादी उभावपि’ (13/19)। यह इस
दर्शन का द्वैत वाद है जो दो समान सत्ताओं -ऊर्जा और पदार्थ तथा शैव दर्शन में शिव
और शक्ति की संज्ञा धारण करते हैं ।
प्रकृति
त्रिगुणात्मक है। सत, रजस और तमोगुण रूप के
ये गुण प्रकृति में विक्षोभ पैदा करते हैं जिससे इसकी साम्यावस्था अभिव्यक्ति की
ओर उन्मुख होती है । दूसरी ओर चेतन जीव में अपनी चेतना के उन्मीलन की अभीप्सा रहती
है । इस तरह प्रकृति और पुरुष के योग से चेतन प्राणी का जन्म होता है ।
भारतीय षड्दर्शन
परंपरा में सांख्य और वेदान्त धाराएं ज्ञान की परमोच्च कक्षाएँ हैं । षडंग वेद के
परमाचार्य गोस्वामी तुलसीदास इन दर्शनों का श्रीमद्भगवद्गीता की ही तरह मानस में
भक्ति परक ऐसा समाहार प्रदान करते हैं जो व्यवहार के लिए सामान्य जनों को भी सहज
ग्राह्य है ।
जेहि इमि गावहिं
बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान
सोइ दसरथ सुत
भगत हित कोसलपति भगवान । (बालकांड 118)
12. निर्वचन दिसंवर 23
वैशेषिक
दर्शन रामचरित मानस में
वैशेषिक दर्शन
के प्रवर्तक महर्षि कणाद अणु विज्ञान के प्रथम आविष्कर्ता हैं । उन्होंने अणु की
परिभाषा करते हुए कहा – नित्यं परिमंडलम् (7.1.20) अर्थात् अणु मंडलाकार (spherical) है तथा यह कि वह सनातन है – सदकारणवाननित्यं तस्य कार्यं लिंगम्
(4.1.1-2) अर्थात सत तत्व अकारण और सनातन है । अणु इसका प्रमाण है । उनके 373
वैशेषिक सूत्र 10 अध्यायों में संग्रहीत हैं। अपने सूत्र ग्रंथ के अध्याय 4 में
उन्होंने अणु की नित्यता पर गहन विचार किया है । अध्याय 2 में उनके द्वारा
गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का विवेचन किया गया है । उनकी परिभाषा के
अनुसार-संयोगाभावे गुरुत्वात पतनम् (5.1.7) अर्थात संयोग का अभाव होने से वस्तु का
पतन होता है ।
गोस्वामी
तुलसीदास संसार में सत् और असत् वस्तुओं के परस्पर संयोग से उत्पन्न होने वाले
प्राकृतिक प्रभाव युक्तियुक्त वैज्ञानिकता से इस प्रकार विवर्णित करते हैं –
धूम कुसंगति
कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई
सोइ जल अनल अनिल
संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता
ग्रह भेषज जल
पवन पट पाइ कूजोग सुजोग
होंहि कुबस्तु
सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग । मानस बाल. ७ क्
उन्होंने इसी
प्रकार चंद्रमा के कृष्ण पक्ष में क्षीण और शुक्ल पक्ष में वृद्धिगत होने की
सदोषता और निर्दोषता को पूर्ण वैज्ञानिक निरपेक्षता में इस प्रकार समाकलित किया –
सम प्रकाश तम
पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह
ससि सोषक पोषक
समुझि जग जस अपजस दीन्ह । बाल. ७ ख
वैशेषिक दर्शन
में जीवन का ध्येय पंच पुरुषार्थ -धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माना गया है । इस सनातन भारतीय
दृष्टि को तुलसी ने मानस में क्रमश: भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण और श्री राम के चरित्र के आदर्श से प्रमाणित किया है –
मुदित अवधपति
सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि
जनु पाए महिपाल
मनि क्रियन्ह सहित फल चारि । बाल. 325
मानस में इनकी
आवृत्ति अनेकश: 1. चारि पदारथ करतल तोरे (बाल 163/7), 2. करतल होहिं पदारथ चारी (बाल. ३१४/२), 3. प्रमुदित
परम पवित्र जनु पाइ पदारथ चारि (बाल. 345), 4.चारि पदारथ भरा
भंडारू (अयो. 102/4) इत्यादि हुई है।
यह भी बहुत
महत्वपूर्ण है कि कणाद के अनुसार प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान के दो प्रकार हैं
जिनमें अनुमान के अंतर्गत शब्द प्रमाण आता है जिसके अनुसार वेद सत्य के परम प्रमाण
हैं –
तद्वचनादान्मायस्य (10.2.9)
तुलसी के राम
‘वेदान्त वेद्य’ (सुंदरकांड) ही नहीं वेदों से संस्तुत्य और समाराध्य भी हैं-
जे ब्रतुलसी मानस भारती के संपादकीय वर्ष 2023
1. निर्वचन जनवरी 23
गीता
प्रैस गोरखपुर
की स्थापना का शताब्दी वर्ष
अप्रैल १९२३ में गोरखपुर के उर्दू बाज़ार में दस रुपये प्रतिमाह
एक किराये के कमरे में आरम्भ भारतीय दर्शन,
साहित्य,
संस्कृति और अध्यात्म के महा
स्तम्भ गीता प्रेस ने देश की १५ भाषाओं में अब तक ७३ करोड़ से अधिक संख्या में पुस्तकें प्रकाशित की हैं।
इनमें मुख्य रूप से
प्रकाशित गीता की संख्या १५ करोड़ ५८ लाख और रामचरितमानस की संख्या ही
११ करोड़ ३९ लाख है । यह अनुमान किया गया है कि इस शताब्दी वर्ष में ही संस्थान केवल गीता और रामायण की ही १०० करोड़ मूल्य की विक्री का कीर्तिमान बनाने जा रहा है जबकि यह सभी जानते हैं कि गीता प्रेस का विक्रय मूल्य पुस्तक की लागत से बहुत कम होता है ।
संस्थान के मासिक प्रकाशन और मासिक कल्याण के प्रकाशन में भी
हनुमान प्रसाद जी पोद्दार को प्राप्त महात्मा गांधी के परामर्श के अनुसार विज्ञापन और व्यक्ति पूजा का
निरंतर सर्वथा निषेध
प्रभावशील है ।
आधुनिक भारत की इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक क्रान्ति के सूत्रधार जयदयाल जी गोयन्दका और इसके आधार स्तम्भ श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार थे। श्री गोयन्दका जो कलकत्ता में कपास और कपड़े के एक मारवाड़ी 'सही भाव'
के व्यापारी थे,
ने सबसे पहले वर्ष १९२२ में गोबिन्द भवन से गीता की ११००० प्रतियाँ छपाईं । पश्चात् गोरखपुर वासी श्री घनश्यामदास जी जालान की प्रेरणा से अप्रेल १९२३ में उन्होंने ६०० रुपये मूल्य से एक हाथ-मुद्रण
मशीन ख़रीदी । वर्ष १९२६ की अखिल भारतीय मारवाड़ी महासभा से गोयन्दका (सेठजी)
से हनुमान प्रसाद पोद्दार(
भाईजी)
मिले जिनके आजीवन संपादकत्व में मासिक कल्याण (
एक वार्षिकांक सहित)
का लोक व्यापी प्रकाशन आरंभ हुआ । वर्ष १९०२ में हिन्दी की 'सरस्वती'
से आरम्भ चाँद,
मतवाला,
धर्मयुग,
साप्ताहिक हिन्दुस्तान,
सारिका,
कादम्बिनी,
दिनमान आदि कितनी पत्रिकायें काल के ग्रास में
समाप्त नहीं होती गईं किन्तु आज भी कल्याण की २ लाख से अधिक की प्रतियाँ प्रतिमाह लोग बड़े चाव से ख़रीदते और पढ़ते हैं।
हिन्दी के अनेक ख्यातिनाम विद्वान और समीक्षकों ने
यथा अवसर प्रायः इस तथ्य की
ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि हिन्दी और हिन्दी साहित्य के विकास तथा इसकी लौकिक सार्वभौमिकता में जो अभिदाय गीता प्रेस का है वह सर्वथा अद्वितीय होते हुये भी हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य के पटल पर वहाँ स्थित नहीं किया गया जो उसका वास्तविक स्वत्व है । वर्ष १९०० में मैकडोनल द्वारा हिन्दी की देवनागरी लिपि की सरकारी मान्यता और वर्ष १९१० में इलाहाबाद में स्थापित हिन्दी साहित्य सम्मेलन आखिर कितने दूर के पड़ाव हैं किन्तु एक अजस्र ज्ञान मँजूषा की कुंजी सौ वर्ष पहले जो इस दैवी उपक्रम कर्ताओं को मिली उसने जैसे किसी कालातीत कोष को ही उन्मुक्त कर सर्वजन सुलभ बनाया है
। किन्तु क्या हिन्दी के विकास और देश के साहित्यिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण में
उसकी भूमिका की यह अनदेखी उचित है? जबकि
वास्तविकता यही है कि आज जब भी
कभी भारतीय धरोहर की
श्रुति और स्मृति के सनातन शास्त्रों की पाठ,
लेखन की शुद्धता और प्रामाणिकता का प्रश्न उठता है तो इसके प्रति इस संस्थान की प्रतिबद्धता तथा समर्पण का
भाव ही सभी के लिये अनुकरणीय हो जाता है ।
गीता और रामायण, भागवत आदि के मानक संस्करण प्रकाश में लाने के पूर्व गीता प्रेस ने देश के शीर्षस्थ विद्वानों की सहायता से वर्तमान पीढ़ी को जो मूल पाठ और भाष्य सुलभ कराये हैं वे प्राय:
कालान्तर में प्रकाशित सभी भाष्यों की आधारभूमि का कार्य करते रहे हैं । उदाहरण के लिय श्री रामचरितमानस के मानकीकृत वर्तमान स्वरूप का निर्धारण श्री शान्तनु विहारी (स्वामी अखंडानंद सरस्वती),
श्री नंददुलारे वाजपेयी और चिमनलाल गोस्वामी की
त्रिसदस्यीय समिति द्वारा किया गया जिसमें अनेक
क्षेपकों और
अवधी,व्रज
तथा बुन्देलीकरण की एकांगिता के
निवारण का कार्य किया गया था ।
यह अपने आप में एक अमिट काल-अभिलेख ही है कि जिस प्रतिष्ठान को राष्ट्र पिता महात्मा गांधी,
पंडित मदन मोहन मालवीय,
धर्म सम्राट करपात्री जी,
वीतरागी प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और तपोमूर्ति रामसुखदास जी महाराज का निरंतर आशीर्वाद और दिशादर्शन प्राप्त हुआ हो वह देश की अविस्मरणीय धरोहर कैसे नहीं होगी !
1.
आज
जब भारत उपनिवेशवादी मानसिकता तथा ओड़े गए पश्चिमी बुद्धिवाद से उबर रहा है तो एक
प्रकृत भारतीय बोध में इस विचार का अनुवर्तन सर्वथा वांछनीय हो जाता है कि देश के
साहित्य, संस्कृति, भाषा और स्वत्व की
रक्षा और संवर्धन में सभी सचेष्ट हो जांय ताकि हमारा भविष्य आज एक दीर्घ
दुस्स्वप्न की महानिशा से मुक्ति का आभास कर सके ।
2.
निर्वचन फरवरी -23
उत्तर रामायण अर्थात् उत्तर कांड
आद्य रामायण के
प्रणेता महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण के स्वरूप का निर्धारण करते हुए बालकाण्ड
के चतुर्थ सर्ग में इसका निम्न निदान प्रदान किया है –
चतुरविंशत्सहस्राणि
शलोकानामुक्तवानृषि:
तथा सर्गशतान् पञ्च षट्कांडानि
तथोत्तरम् । (वा. रा. 1/4/2 )
अर्थात् इसमें महर्षि ने चौबीस हजार
श्लोक, पाँच सौ सर्ग, छ: कांड और
‘उत्तर’ भाग की रचना की है ।
यह श्लोक उन सभी महा मनीषी, उद्भट, अधीत महानुभावों को रामायण के रचनाकार का
स्वत: स्पष्ट समाधान है जो इस बात को लेकर
सदियों से अपनी शक्ति का क्षरण करते आ रहे हैं कि वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड
एक उत्तरवर्ती प्रक्षिप्त भाग है जिसकी रचना वाल्मीकि जी ने नहीं की है । वास्तव
में वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के संदर्भ में ही तुलसी के रामचरित मानस के
‘उत्तरकाण्ड’ को उचित रीति से समझा जा सकता है क्योंकि इसकी रचना में जहां
गोस्वामी जी ने आदि कवि की कुशल विधा का अभीष्ट उपयोग किया है वहीं उनके समान ही
इसमें कुछ कूट और गुत्थियाँ भी रख छोड़ी हैं जिनका शंका समाधान करते हुए रामायण के
पाठकों और अध्येताओं को लगातार परिश्रम करना पड़ता है ।
रामचरित मानस के बालकाण्ड में पार्वती जी ने भगवान शिव से जो निम्न आठ
प्रश्न किए हैं वे एक प्रकार से रामकथा के कांडों का ही परिचय हैं-
प्रथम सो कारण कहहु बिचारी । निर्गुन
ब्रह्म सगुन् बपु धारी
पुनि प्रभु कहउ राम अवतारा । बालचरित
पुनि कहहु उदारा (बाल कांड)
कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो
दूषन काहीं । (बाल, अयोध्या कांड)
बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहउ नाथ
जिमि रावन मारा । (आरण्य, किष्किन्धा, सुंदर और लंका कांड)
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहउ
संकर सुखसीला । (उत्तर कांड)
बहुरि कहउ करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज
धाम । बालकाण्ड 110 (उत्तर रामायण!)
पार्वती जी ने अपने इन प्रश्नों में
श्री राम के स्वधाम गवन के जिस वृत्त के समाहार का अनुरोध किया है वह वस्तुत:
बाल्मीकि की ‘उत्तर रामायण’ की कथा है जिसे तुलसी ने स्पष्टतया छोड़ दिया है ।
उत्तरकाण्ड में अपनी कथा का उपसंहार करते हुए श्री शिव जब कहते है ‘राम कथा गिरिजा
मैं बरनी’ तो पार्वती जी उसे यथावत स्वीकार करते हुए कहती हैं ‘नाथ कृपा मम गत
संदेहा ‘(उत्तरकांड 129)। रामकथा के भाष्यकार इसका समाधान करते हुए प्रायः यही
कहते हैं कि श्री राम के स्वधाम गवन की लीला तुलसी को प्रीतिकर नहीं होने से
स्वीकार ही नहीं थी । इसी तरह शिव और पार्वती संवाद के संदर्भ में भी यह निष्कर्ष
निकाला जा सकता है कि प्रश्न पूछते समय यद्यपि पार्वती जी की इस प्रश्न के प्रति
जिज्ञासा रही होगी किन्तु भगवान की नित्य लोकोत्तर कथा सुन लेने के बाद उनका
सम्पूर्ण समाधान हो गया, अतः उन्हें अपने मूल
प्रश्न को पुन: स्मरण कराने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई ।
किन्तु इससे यह संकेत तो गृहण किया ही
जा सकता है कि तुलसी को अपने युग और अपनी
दृष्टि में इस कथा विस्तार का बोध था । किन्तु जैसा कि उन्होंने अपने
उपोद्घात में स्पष्ट किया है निगम, आगम, पुराण आदि से सुसंगत कथानक के अतिरिक्त
उन्होंने ‘कुछ’ अन्यत्र अर्थात अपनी कल्पना, काव्य कला,
शील और संस्कार-परंपरा से भी संपृक्त किया । इसमें युग-बोध, भाषा-विज्ञान, समाज-दर्शन, साहित्य
के प्रतिमान और कवि की अपनी प्रतिभा की छाप भी स्वत: आती ही है । और तुलसी के
संदर्भ में इन परिमाणों को किसी प्रकार न्यूनतर मानकर नहीं चला जा सकता क्योंकि
जहां उनकी वेद-वेदांग की शिक्षा शेष सनातन के प्रसिद्ध गुरुकुल में हुई वहीं
उन्हें भक्ति परंपरा के आद्याचार्य रामानंद जी महाराज के शिष्य श्री नरहर्याचार्य
की कृपा भी प्राप्त हुई थी । इस प्रकार उन्हें भारतीय ज्ञान परंपरा का संस्कार, शिक्षा और स्वयं की युगांतरकारी प्रतिभा से प्रामाणिक प्रतिनिधि पुरुष ही
कहा जाना उचित ठहरता है।
इतना सब इस इस धारणा की प्रतीति में
है कि उत्तरकाण्ड में तुलसीदास जी ने इसकी कथावस्तु का जो स्वरूप अवधारित किया है
उसमें मुख्य रूप से वाल्मीकि की उत्तर रामायण का आधार देखा जा सकता है ।
3. निर्वचन मार्च 23
उत्तर रामायण -2
कथानक के रूप में राम चरित मानस के
उत्तरकाण्ड में श्री राम के अयोध्या लौटने पर उनका अभिषेक, विभीषण, सुग्रीवादि मित्रों की विदाई, राम राज्य का वैभव, राम का राज्य सभा सम्बोधन, कागभुशुंडि उपाख्यान, कलियुग संताप तथा ज्ञान और
भक्ति मार्ग का विवर्तन मुख्य प्रसंग हैं । अनंतर श्री राम द्वारा करोड़ों अश्वमेध
यज्ञ करने तथा उनके सहित अन्य भाइयों के दो-दो पुत्र होने का उल्लेख कर ही इस मूल
कथानक को ‘विश्राम’ दे दिया है ।
वाल्मीकि रामायण का षष्ठ कांड
‘पौलस्त्य (रावण) के वध’ के साथ एक अर्थ में पूर्ण हो जाता है जैसा कि महर्षि का
कथानक विषयक प्रतिज्ञा कथन् है – ‘ काव्यं रामायणं कृत्स्न्नं सीतायाश्चरितं महत्
। पौलस्त्यवधमित्येव चकार चारितव्रत: (बाल. 4/7) उनके उत्तरकाण्ड के 111 सर्गों
में लगभग 30% (1 से 34 सर्ग) भाग में रावण के अत्याचार का विवरण है । (यहाँ यह
ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि तुलसी ने रावण के इन अत्याचारों का वर्णन अपने
बालकाण्ड में ही समेट लिया है।) सर्ग 35-36 में हनुमान जी का इतिहास है । इसके
अतिरिक्त सीता जी के कथानक का अति महत्वपूर्ण भाग है – उनका वनवास, उनके द्वारा कुश और लव को जन्म देना और अंतत: उनका अपनी जन्मदात्री पृथिवी
की गोद में समय जाना । इसके अतिरिक्त श्री राम के साकेत धाम लौटने के पूर्व का एक
और महत्वपूर्ण वृत्त उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने लक्ष्मण को उनकी आज्ञा के
उल्लंघन के लिए दंडित करते हुए उनका परित्याग किया जिससे लक्ष्मण श्री राम के
साकेत प्रत्यागमन के पूर्व ही अपने अनंतशेष स्वरूप में स्थित हो जाते हैं ।
यदि हम तुलसी के अन्य महत्वपूर्ण
कथा-श्रोत पद्म पुराण का संदर्भ लें तो उसके पाताल खंड के अध्याय 1 से 68 में
मुख्य रूप से वाल्मीकि रामायण के उत्तरखंड का ही विस्तार मिलता है । इसके अतिरिक्त
स्कन्द पुराण के वैष्णव खंड में उत्तरकाण्ड के कथानक का समावेश है । उक्त के
अतिरिक्त वेद व्यास के महाभारत के वन पर्व में मार्कन्डेय ऋषि द्वारा युधिष्ठिर को
वर्णित श्री राम के कथानक की उत्तरकाण्ड विषयक कथावस्तु का सम्यक समावेश हुआ है ।
इस प्रकार श्री वाल्मीकि की संरचना में उत्तरकाण्ड की समायोजना की प्रामाणिकता पर
संदेह करना कुछ पूर्वाग्रह और कुछ अतिरिक्त बौद्धिकता जनित ही प्रतीत होता है ।
वस्तुत: उत्तर रामकथा के कुछ प्रसंग विशेषकर सीता परित्याग और संबूक वध से हमारी
वर्तमान स्त्री और दलित विमर्श चेतना आहत प्रतीत होती है अत: इससे त्राण का मार्ग
इस सम्पूर्ण वृत्त को प्रक्षिप्त मानना सुविधाजनक हो जाता है । किन्तु ऐसे अन्य
अनेक धरातल हैं जिनका स्पर्श करते हुए हम सभी आशंका-कुसशंका का निवारण कर सकते हैं
। किन्तु यहाँ न् तो इसका अवसर है और न ही इसकी आवश्यकता, अत: मैं गोस्वामी तुलसीदास के उत्तरकाण्ड की कथावस्तु की सारवत्ता तक ही
अपने आप को सीमित रख रहा हूँ ।
बाबा तुलसी को अपनी ‘सुहावन जन्म भूमि
पुरी (अयोध्या)’ स्वभावत: ही बहुत प्रिय है क्योंकि इसके ‘उत्तर दिसि’ पावन सरयू
बहती है । किन्तु उनके मानस की ‘सप्त सोपान’ भूमिका तो और भी अधिक स्पष्ट है –
‘ सप्त प्रबंध सुभग सोपाना’ (बाल.
36/1), ‘भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला’ । उ.
21/1) और ‘ एहि मह रुचिर सप्त सोपाना । रघुपति भगति केर पन्थाना’ (उ 128/3) ।
पार्वती जी के द्वारा पूछे गए सप्त
प्रश्नों का हम उल्लेख कर ही चुके हैं जिनका भगवान शिव सविस्तार उत्तर देते हैं और
वे जैसे साभिप्राय ही श्री राम के स्वधाम गवन के अष्टम प्रश्न को छोड़ देते हैं ।
यहाँ तक कि गरुड-कागभुशुंडि संवाद में अनेक प्रश्नोत्तरों की दीर्घ श्रंखला है
किन्तु अंत में गरुड सँजोकर रखे ‘सात’ प्रश्नों के उत्तर में ही परिपूर्णता पाते
हैं-
‘नाथ मोहि निज सेवक जानी । सप्त
प्रश्न मम कहहु बखानी। (उ. 120.2)
सबसे दुर्लभ कवन सरीरा (१)
बड़ दुख कवन (२)
कवन सुख भारी (३)
संत असंत मरम तुम जानहु । तिन कर सहज
सुभाव बखानहु । (४)
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला (५)
कहहु कवन अघ परम कराला (६)
मानस रोग कहहु समुझाई (७)
भगवान श्री राम के विषद लीला वृत्त, गरुड तथा कागभुशुंडि जैसे महान् भक्तों के व्यामोह के निवारण तथा ज्ञान
और भक्ति जैसे गूढ दर्शन सिद्धांत के निरूपण के पश्चात गरुड के इन सामान्य से सात
प्रश्नों को सुनकर यह लग सकता है कि क्या इनकी प्रासांगिकता तब भी शेष रहती है ।
किन्तु जैसे गोस्वामी जी को श्री राम के लोकोत्तर आख्यान को जन-जन तक पहुंचाना ही
अधिक अभीष्ट था । सुख-दुख, पुण्य-पाप, संत-असंत
और मन के निग्रह जैसे विषय मानवीय जीवन यापन के ऐसे आयाम हैं जो किसी भी व्यक्ति
के विचार की प्रक्रिया में आरंभ से अंत तक विद्यमान रहते हैं । और तो और
आरण्यकाण्ड में लक्ष्मण ( ‘ईश्वर जीव भेद प्रभु’ आ.14 ) और उत्तरकाण्ड में भरत
(संत असंत भेद बिलगाई । प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई । उ. 36.5) श्री राम से कुछ इसी
तरह के प्रश्नों के उत्तर चाहते हैं ।
वस्तुत: मानव जीवन अपने आप में ही
प्रश्नोत्तर की निरंतर प्रक्रिया है जिसे वह अपने अनुभव में लगातार दोहराने में भी
लगा रहता है । किन्तु इनका पूर्ण समाधान तभी संभव हो पाता है जब कोई सिद्ध
महापुरुष स्वानुभव से उनका समाधान करता है । फिर साक्षात श्री राम और उनके परम
प्रसाद भाजन कल्पांत जयी कागभुशुंडि से इनके समाधान के लिए उत्तरकाण्ड के समापन
बिन्दु पर श्री गरुड का प्रवृत्त होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं प्रतीत होता
।
उक्त विचार पूर्वक यही कहा जा सकता है
कि जिस प्रकार श्रीमद्भागवत के अंत में भगवान श्री कृष्ण उद्धव को - मामेव
नैरपेक्ष्येण
भक्तियोगेन
विंदति
।
(11/27/53) तथा भगवद्गीता के अंत
में अर्जुन को – सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज (गीता 18/66) कहते हैं, गोस्वामी तुलसीदास भी
रामायण के सम्पूर्ण कथानक का सार तत्त्व प्रपत्ति अर्थात् श्री राम की अनन्य भक्ति के उपदेश पूर्वक
अपने उत्तरकाण्ड का समापन करते हैं –
जासु
पतित पावन बड़ बाना । गावहिं कबि श्रुति संत पुराना
ताहि
भजहि मन तजि कुटिलाई । राम भजे गति केहि नहिं पाई । (उत्तर 129/7-8)
और
चूंकि यह एक आख्यानक महाकाव्य है, अत: वे गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज, खल, आभीर, यवन, किरात, खस और स्वपच आदि जीव, जाति और समूह के
परमोद्धार
के दृष्टांत देना भी नहीं भूलते । इस प्रकार तुलसी के मानस का उत्तरकाण्ड पारंपरिक
फलश्रुति के बहुत आगे प्रमाण, द्रष्टांत
और आत्मानुभव को भी प्रकाशित कर इसे स्वयं सिद्ध संपूर्णता का आधार प्रकट करता है
।
4. निर्वचन
अप्रैल 23
भारतीय ज्ञान परंपरा
का प्रकर्ष श्रीरामचरित मानस
वेद, वेदांग, उपांग, उपवेद, स्मृति, इतिहास, पुराण और दर्शन की
अजस्र ज्ञान परंपरा के सनातन भारतीय कोश के यदि किसी एक प्रतिनिधि ग्रंथ की हमें
यदि पहचान करनी है तो गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरित मानस की ओर हमारा ध्यान
स्वभावत: जाता है । गीर्वाण गिरा (संस्कृत) की ओर ध्यान जाने पर यद्यपि श्रीकृष्ण
की गीता विश्व पटल पर इस दृष्टि से साधिकार प्रतिष्ठित है, किन्तु
वेद के लौकिक प्राकार के साक्षात्कार हेतु श्रीरामचरित मानस के जन-जन के कंठहार
मानने के लिए सभी प्राज्ञ और परमार्थी महानुभावों की सहमति देखी जा सकती है । यह
स्पष्ट है कि काशी के शेष सनातन गुरुकुल में पढे गोस्वामी तुलसीदास समग्र भारतीय
ज्ञान-कोश में पारंगत तो थे ही, उनके
व्यक्तित्व में शील, सौष्ठव, लोकधारा
और साधुत्व की जो असाधारण प्रतिष्ठा थी, उसने
उन्हें अपने इस महाग्रन्थ के माध्यम से एक अजस्र-काल की धारा का सुमेरु ही समा
देने की सामर्थ्य प्रदान की थी ।
मानस के भरत वाक्य
‘नानापुराणनिगमागमसम्मतम्’ में तुलसी का मानस की प्रामाणिकता का उद्घोष तुलसी की
विनयशीलता में जैसे एक ‘ढिठाई’ ही थी तथा इस अपराध बोध से उन्हें ‘सुनि अघ नरकहुं
नाक सकोरी’ की प्रतीति हुई थी । किन्तु तुलसी की शास्त्रज्ञता के प्रति किसी भी अधिकारी
विद्वान,
मठाधीश, काव्यशात्री, लोकनायक
और सक्षम प्रवक्ता ने कभी, कहीं
संदेह प्रकट नहीं किया। प्रसिद्ध है कि धर्मसम्राट श्री करपात्री जी जब चातुर्मास
काल में केवल संस्कृत में ही संवाद करते थे तब भी वे मानस का पारायण यथाविधि करते
हुए यही कहते थी कि मानस तो संपूर्णतया मंत्रात्मक रचना है । इसलिए यहाँ यह विचार
उचित प्रतीत होता है कि हम भारतीय ज्ञान-परंपरा की मानस में विद्यमान उस शीर्ष
धारा का अनुसंधान करें जो सार्वभौमिक तौर पर सभी के लिए अवलंवनीय है ।
भारतीय ज्ञान परंपरा
में वेद सर्वथा परम प्रमाण हैं । तुलसी ने वेद की सार्वभौमिक और सार्वकालिक
प्रामाणिकता के इस संदर्भ को कभी भी विस्मृत नहीं किया । वेद के सृष्टि के नियंता
ईश्वर में अवतार लेने की सामर्थ्य इसीलिए है क्योंकि वह इस रचना का कारण और उपादान
दोनों है । यह ज्ञातव्य ही है कि अन्य मताबलम्बियों के ईश्वर में चूंकि अवतार लेने
की जब सामर्थ्य ही जब नहीं है तो वह सर्वशक्तिशाली कैसे हो सकता है ! भगवान शिव
कौशलपति श्री राम को जब समस्त संरचना और प्रलय की सामर्थ्य से युक्त बताते हैं तो
वेद का यही साक्ष्य उनकी परिदृष्टि में है –
‘जेहि इमि गावहिं बेद
बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान
सोइ दसरथ सुत भगत हित
कोसलपति भगवान ।‘ बालकांड 118
ऋग्वेद के पुरुष,
नासदीय,
हिरण्यगर्भ,
अस्यवामीय;
यजुर्वेद के ईशावास्य और अथर्ववेद के स्कंभ तथा उच्छिष्ठ ब्रह्म आदि सूक्त इसी
दृष्टि के आधार हैं जिनका इतिहास और पुराणों में ‘उपब्रहमण'
हुआ है तथा जो वाल्मीकि के ‘वेदवेदांगतत्वज्ञ’ (वा.रा.1/11) तथा वेदव्यास के
‘धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परम्’ (भाग. 1/1/1) हैं । व्यास जी ने यहाँ
एक और चेतावनी दी है कि ईश्वर की इस ‘अभिज्ञ स्वराट्’ ब्रह्म की पहचान करते हुए
परम प्रबुद्ध भी विमूढ़ित हो जाते हैं- मुहयन्ति यत् सूरय:’ । यह स्वयं ब्रह्मा, शिव, सती
और इंद्रादि सहित उन षड्दर्शन शास्त्रियों के संबंध में भी सही प्रतीत होता है जो
इस अगोचर सत्य को एक देशीयता में खोजने में कभी-कभी प्रवृत्त हुए हैं । तुलसी ने
स्वयं वेदों से श्री राम की स्तुति में इसी सत्य का निदर्शन इस प्रकार किया है-
‘तव विषम माया बस
सुरासुर नाग नर अग जग हरे
भव पंथ भ्रमत अमिट
दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ।‘ उत्तरकाण्ड 13क
यहाँ तुलसी के ‘मानस’
में छ: वेदांग -
शिक्षा,
कल्प,
व्याकरण,
ज्योतिष,
छंद और निरुक्त;
उपांग-इतिहास-पुराण,
धर्मशास्त्र,
न्याय और मीमांसा अथवा 4 उपवेद-
धनु:,
गांधर्व,
आयुर्वेद तथा स्थापत्य आदि के विवरण विस्तार में जाने का प्रसंग नहीं है । इसके
अध्येताओं को यह प्रायः सुविज्ञात ही है तुलसी ने लगभग 56 वार्णिक और मात्रिक
छंदों का अपने काव्य में भाषाई सौष्ठव और रस परिपाक सहित निर्दोष काव्यशास्त्रीय
अनुशासन में प्रयोग किया है । राम रावण युद्ध में धनुर्विद्या के प्रयोग तथा मानस
रोग प्रसंग में आयुर्वेद और श्री राम के जन्म काल में ‘जोग
लगन ग्रह बार तिथि’ आदि ज्योतिषीय ज्ञान की परिपूर्णता का वे परिचय देते हैं । इसी
तरह मिथिला और अयोध्या वर्णन काल में स्थापत्य विधान का भी अद्भुद दिग्दर्शन है।
यहाँ तक कि प्रकृति से योग्य मानवीय संव्यवहार के पारिस्थितिक विज्ञान के भी अनेक
प्रसंग इसमें संदृष्टव्य हैं । पर हम यहाँ उनके कुछ ऐसे समन्वयक सूत्रों पर ही
ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं जो ज्ञान की बहुमुखी धाराओं में एकतानता स्थापित
करते हैं ।
दर्शन के सिद्धांत, मत
और धारणाओं में लोक और काल में ही नहीं, इनके
इतर भी विरोध का काम करता है जिसके परिणाम स्वरूप ज्ञान की प्रकट और परिसिद्ध
परंपरा भी काल-क्रम में परिलुप्त हो जाती है । ज्ञान की परंपरा में इन
द्वंद्वाभाषों के अतिरिक्त लोक और वेद की मान्यताएँ भी संघर्ष करती हैं जिसके कारण
यह धारा अवरुद्ध प्रतीत होने लगती है । श्रीरामचरित मानस में तुलसी ने इन सब
खाइयों के बीच जिन सेतुओं का निर्माण किया है वे सर्वदा अनूठे हैं । उनकी रामकथा
की सरयू के दो किनारे ‘लोक बेद मत’ के ‘मंजुल कूल’ ( बाल. 39/6) तो हैं ही, चित्रकूट
की महती राजसभा को श्री राम का स्पष्ट परामर्श है-
‘भरत बिनय सादर सुनिअ
करिअ बिचारु बहोरि
करब साधुमत लोकमत
नृपनय निगम निचोरि।‘ अयो.
258
निगम-आगम,
वैष्णव-शैव,
द्वैत-अद्वैत,
उपासना-ज्ञान,
सगुण-निर्गुण,
साधु-असाधु,
सत्-असत् माया-जीव-ब्रह्म तथा देश, काल, वर्ण, आश्रम
आदि की शास्त्रीय धारणाओं का ‘रस’ रूप ‘सार’ प्रस्तुत कर पाने की तुलसी की क्षमता
असीम है । इसलिए तुलसी के ही शब्दों में –
‘ गावत बेद पुरान
अष्टदस, छओ
सास्त्र सब ग्रंथन को रस
मुनि जन धन संतन को
सरबस,
सार अंस सम्मत सबही
की।‘
मानस है और इसकी
भारतीय ज्ञान परंपरा के सार सर्वस्व के रूप में आरती की जाना सर्वथा ही योग्य है ।
5.
निर्वचन मई २०२३
ऋषि अगस्त्य के श्री राम
भारत में १२वीं सदी से लगातार रामार्चन के लिए अगस्त्य संहिता'
प्रमुख ग्रन्थों में से एक है । अगस्त्य संहिता के भविष्य खण्ड के १३१-१३५ अध्यायों में 'रामानंदजन्मोत्सव'
का भी एक प्रसंग कुछ संस्करणों में मिलता है जिसमें कलियुग के ४४०० वर्ष बीत जाने पर उल्लेख हुआ है कि-
आविर्भूतो महायोगी द्वितीय इव भास्कर:
रामानंद इति ख्यातो लोकोद्धरणकारण:
यह प्रश्न उठता है कि १२९९ ईसवी में इस प्रकार जन्मे श्रीरामानंद जी १५१८ और १५२७ में जन्मे कबीर और रैदास के गुरु कैसे हो सकते थे?
इसलिए विद्वान इस खण्ड को प्रक्षिप्त मानते हैं । पर अगस्त्य संहिता रामोपसना का प्राचीनतम वैष्णवागम ग्रन्थ सर्वथा मान्य और स्वीकृत है । यदि रामतापनीयोपनिषद् रामोपासना का निगम कल्प है तो अगस्त्य संहिता आगमिक । अध्यात्म रामायण भी अगस्त संहिता का उल्लेख करती है । अथर्ववेद से संबंधित 'रामतापनीयोपनिषद्'
में अनेक स्थलों पर अगस्त्य संहिता की शब्दावली से मेल खाते अनेक श्लोक मिलते हैं ।
अगस्त्य संहिता में श्री राम के
षोडसोपचार पूजन द्रारा नित्य,
नैमित्तिक और काम्य कर्मकाण्डों को विहित किया गया है । श्री राम की अनन्या भक्ति इसका मूल प्रतिपाद्य है । यह महामुनि अगस्त्य के अपने शिष्य सुतीक्ष्ण के साथ संवाद रूप में अभिकथित
है । अगस्त्य जी अपने उत्तर में शिव-पार्वती के संवाद द्वारा इसे विस्तार देते हैं । भगवान शंकर के अनुसार भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा को विश्व कल्याण के लिए पर षडक्षर राममंत्र का उपदेश किया । संहिता के सप्तम अध्याय में बताया गया है कि इसी षडक्षर मंत्र को उन्होंने भगवान शिव को प्रदान किया जिसके कारण भगवान शिव ने काशी में मरने वाले जीवों का उद्धारत्व प्राप्त किया ।
फलं भवतु देवेश सर्वेषां मुक्तिलक्षणम्
मुमूर्षाणां च सर्वेषां दास्ये मन्त्रवरं परम् । अगस्त्य संहिता ७/३४
मानस प्रेमी यहाँ तुलसी के कथन -
'कासीं मरत जंतु अवलोकी,
जासु नाम बल करउं बिसोकी।'
( बाल.
१/११९)
का स्पष्ट आधार प्राप्त कर सकते हैं !
महर्षि अगस्त्य आगम,
निगम,
इतिहास और पुराण यहाँ तक
कि तमिल भाषा के आधुनिक वैय्याकरणी के रूप में अभिज्ञात हैं । वाल्मीकि और तुलसी रामायण उन्हें रावण के संहार में
राम का परम सहायक सिद्ध करती है । वाल्मीकि रामायण का अगस्त्य द्वारा प्रदत्त ३१ श्लोकों का आदित्य हृदय स्तोत्र वह परमास्त्र था जिसका श्री राम उपयोग करते हैं । तुलसी ने भी श्री राम द्वारा अंतत:
'छांडे सर इक्तीस'
का उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में
श्री राम की सभा में अगस्त्य द्वारा विवर्णित अनेक कथा प्रसंगों का प्रामाणिक साक्ष्य
मिलता है ।
ऐसे ऋषि,
वैज्ञानिक और लोक कल्याण के
सर्वोच्च विधायक महर्षि अगस्त्य की श्री रामाराधना विषक अगस्त्य संहिता का अध्ययन,
शोध और अवगाहन वर्तमान
प्रबुद्ध समाज को सर्वथा ही विधेय हो जाता है ।
6. निर्वचन जून 23
वेद का लोक-संस्करण श्रीरामचरितमानस
श्रुति
वचन है- ऋते ज्ञानान्न मुक्ति (हिरण्यकेशीय शाखा) अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति
नहीं । ज्ञान है सत्य का स्वानुभव । और
सत्य- हमारे नित्य संध्या विधान के मंत्र ‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ में जब स्मरण किया जाता है
तो स्पष्ट है कि सभी को उसके साक्षात्कार का अवसर प्राप्त है । श्रीमद्भागवत का तो
प्रथम श्लोक के अंतिम चरण में इसी आशय के प्रतिज्ञा कथन ‘सत्यं परं धीमहि’ से
ग्रंथ का आरंभ किया गया है । भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार स्तम्भ वेद-वेदांग से
लेकर स्मृति, पुराण इतिहास आदि सभी शास्त्रों में इसी सत्य के ‘शब्द प्रमाण’ भरे हुए
हैं । इनमें गीता और रामायण हमारी दो हथेलियों में उपलब्ध ऐसे दर्पण ही हैं जिनसे
इसके साक्षात्कार का हमें अवसर सदा ही सुलभ बना हुआ है ।
गीता
में भगवान श्रीकृष्ण की स्पष्ट घोषणा है ‘ज्ञानं तेsहं
सविज्ञानमिदं वक्षयाम्यशेषत:’ (7/2) अर्थात् श्री कृष्ण की घोषणा है कि वे ज्ञान
को उसकी प्रायोगिकता में समझा रहे हैं । रामचरित मानस में श्री राम लक्ष्मण के
प्रश्नों के उत्तर में संक्षेप में सार स्वरूप इसी सत्य का प्रतिपादन इस प्रकार
करते हैं –
‘मैं अरु मोर तोर
तें माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया
गो गोचर जहॅ लगि मन
जाई । सो सब माया जानेहु भाई । ..
माया ईस
न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव
बन्ध
मोच्छप्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव । ( आरण्यकांड 15)
ईश्वर और मनुष्य के
बीच की दूरी मात्र माया के अंधेरे की इस दीवाल की ही है जो ज्ञान के प्रकाश से उसे
तत्क्षण मुक्ति के द्वार में प्रविष्ट करा देती है । ठीक इसी प्रकार का उपदेश श्री
राम भरत को भी प्रदान करते हैं –
सुनहु तात माया कृत
गुन अरु दोष अनेक
गुन यह उभय न देखिअहि
देखिअ सो अविवेक । उत्तरकाण्ड 41
अर्थात् हे भाई (भरत)
माया के कार्य की अनेक सकारात्मक और नकारात्मक विशेषताएँ हैं । इनका निदान इतना
गहन है कि उसमें मनुष्य का न पड़ना ही श्रेयस्कर है । यदि इसके विस्तार में वह जाता
है तो यह उसका अविवेक ही ठहरता है (क्योंकि इससे उसके बंधन ही प्रगाढ़ होते हैं)।
मानस में ही शिव, विरंचि, सती, भुशुंडि, गरुड
और इंद्रादिक देवताओं के इस माया से विमोहित हो जाने के अनेकानेक प्रसंग हैं। आगे
अन्य दूसरों की तो बात ही उत्पन्न नहीं होती । पार्वती जी द्वारा राम के स्वरूप को
समझने के लिए पूछे जाने पर श्री शिव वेदान्त दर्शन के इसी सत्य सार की इस प्रकार
प्रतिष्ठा करते हैं-
झूठेउ सत्य जाहि बिनु
जाने । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने
जेहि जानें जग जाइ
हेराई । जागे जथा सपन भ्रम जाई । बालकांड 112/1
असत् (माया) बोध से
रज्जु में भुजंग की प्रतीति अथवा स्वप्न में सत्यत्व का आभास इसी माया का गुण अथवा
दोष (विशेषता!) है जिससे निवृत्ति का उपाय मात्र अपने वास्तविक सत् स्वरूप में
जागना और स्थित हो जानया है । जिस तत्व बोध को वेद के चार महावाक्य- अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा
ब्रह्म और प्रज्ञानं ब्रह्म उद्घाटित करते हैं, रामचरित
मानस के प्रथम प्रवक्ता श्री शिव इस प्रकार उन्मीलित करते हैं –
जगत प्रकास्य प्रकाशक
रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू
जासु सत्यता तें जड़
माया । भास सत्य इव मोह सहाया
रजत सीप महुँ भास जिमि
जथा भानु कर बारि
जदपि मृषा तेहुं काल
सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि । बालकांड 117
विश्व मानव के लिए जीव, जगत, माया
और ब्रह्म का यह निदर्शन भारतीय दर्शन का परमोच्च अवदान है । सदा से सदा के लिए
संपादित मानव की चेष्टा इसी बोध में परिसमाप्त होने को हैं । इस प्रकार सनातन ज्ञान-सागर के जन-जन को सुलभ
सत्व रामचरित मानस विश्व को प्राप्त वरदान दैवी प्रसाद से कदापि भिन्न नहीं है ।
7.
निर्वचन
जुलाई 23
काव्य का
प्रयोजन
भारतीय साहित्य परंपरा में काव्य के प्रयोजन
पर भरत मुनि,
भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, आनंद
वर्धन, कुंतक, महिम भट्ट, अभिनव
गुप्त, भोज, मम्मट और
विश्वनाथ आदि आचार्यों ने व्यक्ति और वैश्विक दोनों ही परिप्रेक्ष्य में बहुत
परिपूर्णता से विचार किया है । सामान्यतया उनके अनुसार जहां काव्य
व्यक्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष) का साधन है वहीं यह महाभूतों (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और
आकाश) की तरह अशिव के निवारण का भी कार्य करता है । इस प्रकार प्रातिभ रचनाकार्य
परमात्मा की सृष्टि की ही एक पूरक इकाई हो जाता है । पश्चिम के विचारकों में
प्लेटो, अरस्तू, रस्किन, टालस्टाय, कॉलरिज, आर्नोल्ड
और आई ए रिचार्ड्स भी प्राय: इन्हीं
धारणाओं के हैं ।
गोस्वामी
तुलसीदास ने जैसे इसका सम्पूर्ण समाहार करते हुए मानवीय अस्तित्व के सभी आयामों की
सार्थकता और सिद्धि को अपूर्व रीति से इस प्रकार परिभाषित कर दिया –
कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कर
हित होई ।
अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व राजा भोज के
समकालीन आचार्य मम्मट ने अपने ‘काव्य प्रकाश’ में कविता के बहुआयामी समन्वित छ:
उद्देश्य इस प्रकार बताए हैं –
काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे
शिवेतरक्षतये
सद्य: परनिवृत्तये कांतासम्मिततयोपदेशयुजे ।
इनमें चतुर्थ अशिव के क्षय विषयक कार्य है । शिव मंगल
के प्रतीक हैं । यजुर्वेद में ‘नम: शंभवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च
नम: शिवाय च शिवतराय च’ (16/41) इस मंत्र के छहों विशेषण शिव के कल्याणकारी होने
के ही विधायक और परिचायक हैं । अत: एक कवि की कारयित्री क्षमता का अशिव के शमन में
योग महत्वपूर्ण हो जाता है । कवि यह कार्य नवरस की वर्षा के अतिरिक्त यथा स्थिति
व्यंग्य, वक्रोक्ति
और लक्षणा शब्द शक्ति के माध्यम से भी पूरा किया करता है ।
हिन्दी साहित्य के वर्तमान युग में भी महावीर
प्रसाद द्विवेदी,
मैथिली
शरण गुप्त, जयशंकर
प्रसाद, रामचन्द्र
शुक्ल, हजारी
प्रसाद द्विवेदी,
नगेन्द्र, नन्द
दुलारे वाजपेयी प्रभृति रचनाकार कवित्व की इसी प्रकृत धारा के पैरोकार रहे हैं ।
विगत सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम के भौतिक यथार्थ बोध की प्रतिस्पर्धा में
प्रतिनिधि हिन्दी कविता भी जैसे अपनी प्रकृत पहचान से दूर हो चली थी जबकि थोरो, इमर्सन, वहाल्ट
व्हिटमैन, एट्स और
इलियट आदि सनातन भारतीय दृष्टि के अनुसंधान में लगे थे ।
यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान में भारतीय
ज्ञान भंडार के सम्यक् अन्वीक्षण
और द्रष्टा ऋषियों की परादृष्टि की प्रकृत पहचान की नित नूतन पहल हो रही है । उसे
यह समझ आने लगा है कि साहित्य और कला जीवन के भौतिक उपादान तक सीमित किए जाकर
उपभोग के पर्याय बनाकर नहीं छोड़े जा सकते । जिस प्रकार मनुष्य के अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त और
अहंकार) की अवस्थाओं के प्रकटीकरण के लिए स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति
और समाधि की अवस्थाएँ आवश्यक हैं,
वैसे ही
समग्र जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान,
विज्ञान, कला-साहित्य
और परा-दृष्टिवत्ता
भी आवश्यक है ।
गोस्वामी तुलसीदास ने इस सत्य का साक्षात्कार
किया था तथा उन्होंने विवेकी जनों को इस हेतु आवश्यक दर्पण भी दिखाया –
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक
सो बिचारि सुनहहिं सुमति जिन्ह के बिमल बिबेक
। बाल. 9
8.
निर्वचन अगस्त 23
गीता-प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी
महोत्सव
7 जुलाई 2023 को भारत के प्रधान मंत्री श्री
नरेंद्र मोदी ने गीता प्रेस गोरखपुर में सम्पन्न गीता प्रेस की स्थापना के शताब्दी
समारोह में उपस्थित हो संस्थान को करोड़ों भारतीयों के अन्त:स्थ मंदिर की संज्ञा
प्रदान की । ठीक इसी भाव भूमिका में मानस भवन के श्री रामकिंकर सभागार में तुलसी
मानस प्रतिष्ठान,
हिन्दी
भवन और सप्रे संग्रहालय भोपाल के समन्वित प्रकल्प में एक दिन पूर्व 6 जुलाई को
मध्य प्रदेश की प्रतिनिधि संस्थाओं की ओर से गीताप्रेस की पुस्तक प्रदर्शिनी सहित भगवत्प्राप्त
भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार और सेठ जयदयाल जी गोयंदका को पुष्पांजलि अर्पित की गई ।
इस अवसर पर विचारक मनीषियों ने व्यक्त किया गया कि जिस प्रकार गोस्वामी तुलसी ने
मध्य काल में लोकरक्षण का कार्य किया ठीक उसी प्रकार गीता प्रेस गोरखपुर ने
वर्तमान काल में सनातन धर्म को अभिनव पहचान प्रदान कर भारत के विस्मृतप्राय
अध्यात्म, दर्शन, साहित्य
और इतिहास के प्रलुप्त गौरव को नई पीढ़ी के सुपुर्द किया है।
प्रकारांतर से इस अवसर पर भारत सरकार द्वारा
गीताप्रेस को प्रदत्त प्रतिष्ठित गांधी-सम्मान को लेकर उठाए गए प्रश्न पर भी
वक्ताओं ने स्पष्ट रूप से
‘कल्याण’ पत्रिका तथा इसके संस्थापक संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार पर गांधी
जी के प्रभाव और इनके संबंध की आंतरिकता पर भी प्रकाश डाला । एक अर्थ में श्री
पोद्दार जी गांधी जी की उस वैष्णवता का ही विस्तार थे जिसमें स्वभावजन्य उदारता, परमार्थ, राष्ट्रप्रेम, सर्वजन
हित और विश्व मानवता की प्रतिष्ठा होती है । यदि किसी की दृष्टि में अक्षय मुकुल
द्वारा गीता प्रेस पर लिखी ‘मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’ पुस्तक की राहु छाया पडी है
तो वह एकांगी और पूर्वाग्रह ग्रसित ही है।
‘तुलसी मानस भारती’ ने गांधी जन्म शताब्दी के
अवसर पर अपने अंक अक्टोबर 2020 में ‘श्वास श्वास में राम’, वार्षिकांक
जनवरी 2023 में ‘गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी वर्ष’ शीर्षक से
संपादकीय और जून 23 के अंक में बालकृष्ण कुमावत के आलेख ‘ दैवी संपदा की
प्रतिमूर्ति भाईजी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार’ प्रकाशित किए हैं । हमारी आगामी
वार्षिकांक की योजना भी गीता प्रेस गोरखपुर के अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, भाषा और
भारतीय लोक जीवन पर पड़े अमिट प्रभाव के समाकलन विषयक है । क्या यह एक विडंबना नहीं
है कि जहां अध्यात्म और संस्कृति के क्षेत्र में गीताप्रेस के अभिदाय की
अपरिहार्यता स्वीकार की जाती है,
संस्कृत, हिन्दी, देश की
अन्य भाषाओं तथा हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में इस संस्थान के योग को प्रायः
बिसार दिया जाता है । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि वर्तमान भारतीय शिक्षा
व्यवस्था में भारतीयता के जड़-मूल में पैठी इस संस्था को वह स्थान प्रदान नहीं किया
गया जिसकी वह संपूर्ण अधिकारिणी है ।
जिस संस्थान की गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद, स्तोत्र, पूजा विधि, भाष्य, विशेषांक
और कल्याण पत्रिका की शास्त्र सम्मतता के प्रति चारों प्रधान शंकराचार्य पीठ, काशी
अयोध्या, वृंदावन, उज्जैन
आदि के साधु-मनीषी और विद्वत समाज एकमतेन पूरी तरह आश्वस्त हों उसके परम प्रमाण पर
संदेह जैसी स्थिति क्योंकर उत्पन्न हुई ? भारतीय
ज्ञान परंपरा जहां वेद को ‘शब्द प्रमाण’ की सत्ता प्राप्त है, वहाँ गीता
प्रेस के इतने कुशल,
श्रम
साध्य और
पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि की संपूर्णता का सामान हो उसे किसी भी प्रकार से
विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए ।
आइए, हम भारतीय
मेधा के महर्षियों की श्रुति,
स्मृति, संहिता, आख्यान और
आचार विज्ञान को शब्दाकार देने वाले विश्व के सर्वाधिक उपकारी गीताप्रेस और उसके
संस्थापकों को अपनी आदरांजलि प्रदान कर ऐसी धन्यता की प्रतीति करें जो परमार्थ का
बोध कराती है ।
9. निर्वचन सितंबर 23
वेद का लोक संस्करण
मानस
क्या वेद का कोई
लोक-संस्करण भी है, हो सकता है ? और यदि ऐसा है, तो इसकी संरचना कब और कैसे हुई ? स्वयं तुलसीदास ही लोकमत को वेद मत के समतुल्य मानते हुये लिखते हैं –
‘चली
सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ।
सरजू नाम सुमंगल
मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला । बाल. 38/6
अर्थात् रामचरित
मानस की राम का यशोगान करने वाली प्रवहमान सुंदर कविता-नदी सरयू के वेद और लोकमत
रूपी दो किनारे हैं ।
रामचरित मानस
में चित्रकूट की धर्म और राजनय की विराट
सभा में अयोध्या राज्य प्रभार के निर्णय के संबंध में त्रिकालज्ञ गुरु वशिष्ठ कहते
हैं –
भरत बिनय सादर
सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि
करब साधुमत
लोकमत नृपनय निगम निचोरि । अयोध्या 258
वेद के तीन
प्रभाग हैं – उपासना, कर्म और ज्ञान । इसे
वेदत्रयी अर्थात् क्रमश: ऋक्, यजु और सामवेद को कहा जाता है
। इससे यह भी समझ लेना है कि वेद का अधिकतम लगभग 80 प्रतिशत भाग उपासना, 15 प्रतिशत कर्म और लगभग 5 प्रतिशत ज्ञान प्रधान है । इस तरह वेदान्त, जो अद्वैत दर्शन के रूप में अभिज्ञात है, इस
ज्ञानाश्रयी धारा का महाप्रस्थान है । उपनिषद, ब्रह्मसूत्र
और भगवद्गीता इसकी प्रस्थानत्रयी है । भारतीय षड् दर्शन- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और
पूर्वमीमांसा के बाद उत्तरमीमांसा ही वेदान्त अर्थात् वैदिक मनीषा का शीर्ष भाग है
। जहां इसमें योग का पर्यवसान होता है वहीं पूर्वमीमांसा वैष्णवी पुष्टि धारा में
इसका ‘विशिष्ट’ प्रभाव स्पष्ट
दृष्टिगोचर होता है ।
भारतीय ज्ञान
परंपरा के स्तम्भ वेद, वेदान्त, इतिहास, पुराण आदि सभी शिला-पट्टों में अमिट रह
सनातन भारतीय संस्कृति का यही जीवन व्यवहार बनता है । इस लोक विश्रुत आदर्श को
अपने रामचरित मानस में जीवन का आधार दर्शन बनाते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने इसी लिए
कहा –
सीय राम मय सब
जग जानी । करहुँ प्रणाम जोर जुग पानी । (बालकांड 7/1)
परंब्रहम
निश्चित ही एकसाथ विश्वमय और विश्वोत्तीर्ण हो सकता है । तभी भगवान भोलेनाथ मंत्र,
विधि और निषेध आदि की सीमा से परे चले जाते हैं । भगवान शिव के इसी शाबर-मंत्र जाल
की महिमा का बखान गोस्वामी तुलसीदास ने करते हुए कहा है –
‘कलि
बिलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरजा
अनमिल आखर अरथ न
जापू । प्रगट प्रभाव महेस प्रतापू । बाल. 15/3
अर्थात् शिव-शक्ति ने कलियुग को देखते
हुए संसार के हित में शाबर मंत्र समूह रचा । इसके शब्द, अर्थ और जप प्रक्रिया में
स्वयं का ही विधान काम करता है और यह शिव के प्रसाद से त्वरित फलदायी भी है ।
लोक और वेद के
एक अद्भूद समाहार का दृश्य रामचारित मानस के आयोध्याकाण्ड में तब मिलता है जब श्री
राम अपने वनवास काल में चित्रकूट पहुंचते हैं । वहाँ के मूल निवासी ‘कोल, किरात’
को जब यह सूचना मिलती है तो वे ‘कंद मूल फल भरि भरि दोना । चले रंक जनु लूटन सोना’
का आदर्श प्रस्तुत कर कहते हैं –
‘हम सब धन्य
सहित परिवारा । दीख दरसु भर नयन तुम्हारा
कीन्ह बासु भल
ठाँव बिचारी । इहाँ सकल ऋतु रहब सुखारी ।‘
इस पर श्री राम
की प्रतिक्रिया और गोस्वामी तुलसीदास की टिप्पणी भी उतनी ही अनूठी है –
‘बेद बचन मुनि
मन आगम ते प्रभु करुणा ऐन
बचन किरातन्ह के
सुनत जिमि पितु बालक् बैन ।‘ अयोध्याकांड 136
10. निर्वचन अक्टोबर
2023 ज्ञानं ब्रह्म
भारतीय परंपरा
में ज्ञान के पर्याय वेद हैं । ऋग्वेद
के 10 मंडलों में 1028 सूक्त और 10600 ऋचाएँ,
सामवेद के 6 अध्यायों में मंत्र 1875, यजुर्वेद
के अध्याय 40 में 1975 मंत्र तथा अथर्ववेद के 20 कांड में 740 सूक्त और
मंत्र 5962 हैं । चारों वेद संहिताओं की कुल मंत्र संख्या 20379 है । श्री
वेदव्यास को वेदों के चार भागों में वर्गीकरण का हेतु माना जाता है। उन्होंने इनके
परिशिक्षण का दायित्व अपने शिष्यों -ऋग्वेद का
वैशम्पायन, यजुर्वेद का सुमंतु, सामवेद का पैल और अथर्ववेद का जैमिन को सौंपा।
इनकी विषयवस्तु
के संबंध में संक्षेप में इतनी जानकारी पर्याप्त है कि ऋग्वेद मंत्रात्मक आराधन, यजुर्वेद याज्ञिक अनुष्ठान, सामवेद समाधि युक्त
अनुगान और अथर्ववेद राज, समाज, विज्ञान,
औषधि, मनस और सृष्टि संचार के विषयों को
समेटता है । इसके अतिरिक्त जैसा कि वेदों का उपवेदों में विस्तार हुआ, ऋग्वेद से आयुर्वेद, सामवेद से गांधर्ववेद, यजुर्वेद से धनुर्वेद तथा अथर्ववेद से अर्थशास्त्र का प्रणयन हुआ।
यदि वेद के
शिरोभाग वेदान्त का सार संदेश एक पंक्ति में समाहित करना है, तो यजुर्वेद 40/1 से निम्नलिखित मंत्र उद्धृत किया
जा सकता है -
ईशावास्यमिदं
सर्वं यत्किंचजगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन
भुन्जीथः मा गृधः कस्यस्वित्धनम् ।
यही मंत्र
ईशावास्योपनिषद का भी प्रस्थान बिन्दु है । विनोबा भावे ने ईशावास्योपनिषद की अपनी
टिप्पणी "ईशा वृत्ति" में इस तथ्य पर जोर दिया है कि भगवद्गीता के बीज
ईशावास्योपनिषद में खोजे जा सकते हैं। यह शास्त्र संपूर्ण वेदांत का प्रतिनिधि
दर्शन है। इसके इस पहले मंत्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए हम बहुत अच्छी तरह से
निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि विश्व बंधुत्व के सिद्धांत, एकमानवीयता की जीवन शैली और उपयुक्त विश्व व्यवस्था की योग्य नीति मूलत:
इसी में निर्धारित की गई है।
वेद, जैसा कि हमें समझना चाहिए, निरपेक्ष ब्रह्म का
अनुचिन्तन हैं । भारतीय ऋषि वैज्ञानिक
जीवन को उसकी पूर्णता- भौतिक के साथ-साथ आध्यात्मिक रूप से जीने के लिए
मनुष्य के प्रतिनिधि जीवन-नियमों के अन्वेषणकर्ता
हैं। मानव जीवन के छह मूल सिद्धांत दर्शन - न्याय, वैशेषिक,
कर्म, सांख्य, योग और
वेदांत, भी वेद विनिश्रित हैं । इनका औपनिषदिक शिरोभाग
वेदान्त सभी का उपसंहार है। प्रस्थानत्रयी के नाम से प्रसिद्ध उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता इस दर्शन के आधार स्तम्भ हैं । वेदांत को अद्वैत
दर्शन भी कहा जाता है क्योंकि यह ईश्वर के सार्वभौम एकत्व का उद्घोषक है।
ब्रह्म सूत्र के
दूसरे सूत्र में कहा गया है, संसार की उत्पत्ति
ब्रह्म से ही हुई है – जन्माद्यस्य यतः (ब्रह्म सूत्र-2)।
गीता में इस
ज्ञान के कुछ संदर्भ निम्नानुसार देखे जा सकते हैं –
श्रीमद्भग्वद्गीता में ज्ञान की
परिभाषा, उसके विस्तार और उसे ज्ञान प्राप्ति का जिस प्रकार
श्रेष्ठ साधन बताया गया है उसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं –
नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रामिह विद्यते
(4.8)
(ज्ञान से श्रेष्ठतर इस संसार में कुछ
भी नहीं है ।)
तैत्तिरीयोपनिषद् के प्रथम अनुवाक की
ब्रह्मानंदवल्ली में यह उल्लेख है कि सत्य, ज्ञान और अनंतता ही ब्रह्म है तथा उसका निवास वेद में निहित परं व्योम की
कन्दरा के भीतर है –
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं
गुहायां परमे व्योमन् ।
भारत के पुनर्जागरण में भारतीय ऋषियों
के द्वारा समग्र संसार के कल्याण के लिए किए गए इस सत्य के साक्षात्कार का समय
सन्निकट है, ऐसा अनुमान किया जा सकता है !
11. निर्वचन नवंबर 23
मानस
का समन्वित सांख्य दर्शन
गीता में भगवान
श्रीकृष्ण ने जिनके लिए ‘सिद्धानां कपिलो मुनि:’ कहा वे ही सांख्य दर्शन के
प्रणेता और स्वयं विष्णु के 24 अवतारों में एक कपिल मुनि हैं । वर्तमान की जानकारी
के अनुसार वे ईशा पूर्व 700 वर्ष पहले थे । यद्यपि उनके मूल सांख्य सूत्र तो
अनुपलब्ध हैं किन्तु 300 वर्ष ईशा पूर्व के उनकी परंपरा के आचार्य ईश्वर कृष्ण
शास्त्री की ‘सांख्य कारिकाएँ’ सुलभ हैं जिससे इस दर्शन सिद्धांत की सम्यक जानकारी
प्राप्त होती है ।
गोस्वामी
तुलसीदास ने रामचरित मानस के बालकांड में भगवान राम के अवतार के हेतुओं में मनु और
सतरूपा के तप के संदर्भ विवरण में उनके पुत्र प्रियवृत की पुत्री देवहूति और उनके
पुत्र कपिल का संदर्भ इस प्रकार दिया है –
‘आदिदेव प्रभु
दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला
सांख्य सास्त्र
जिन्ह प्रगट बखाना । तत्व बिचार निपुन भगवाना ।‘ (141/4)
श्रीमद्भागवत के
तृतीय स्कन्ध के अध्याय 24-33 में विस्तार से भगवान कपिल के अवतार और माता देवहूति
को उनके प्रदत्त तत्वज्ञान का विवरण है । इसके परिणाम स्वरूप देवहूति को मोक्ष की
प्राप्ति होती है । अपने मूल प्रश्न में देवहूति सांख्य दर्शन के प्रकृति और पुरुष
के द्वैत तत्व को जानने का अनुरोध इस प्रकार करती हैं –
‘ तं त्वा गताहं
शरणं शरण्यं स्वभृत्यसंसारतरो: कुठारम्
जिज्ञास्याहं
प्रकृते: पुरुषस्य नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ।‘ (1/25/11)
माता देवहूति
यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह पूछती हैं कि मनुष्य उससे स्वभावत: अभिन्न प्रकृति
से कैसे परे जा सकता है तो भगवान का उत्तर है कि जिस प्रकार अरणि अग्नि उत्पन्न कर
स्वयं उससे भस्म हो जाती है उसी प्रकार प्रकृति को साधना पूर्वक आत्मा के प्रकाश
में तिरोहित हो जाती है ।
रामचरित मानस के
बालकांड में जैसे यही तत्वबोध भगवान शिव दोहा क्रमांक 107 से दोहा 120 तक पार्वती
जी को प्रदान करते हुए कहते हैं कि प्रकृति प्रधान यह संसार असत् होते हए भी उसे
उसी प्रकार दुख देता रहता है जिस प्रकार स्वप्न में कोई अपने सिर के काट लिए जाने
पर तब तक दुखी बना रहता है जब तक कि वह जाग नहीं जाता है ।
सांख्य दर्शन की
एक महत्वपूर्ण अवधारणा ‘सत्कार्यवाद’ है । इसका आशय यह है कि इस मत के अनुसार कोई
भी सृष्टि अथवा सर्जन ‘सत्’ से ही संभव है, असत् से नहीं । यह धारणा वर्तमान में भी पूरी तरह से युक्तियुक्त ही है
क्योंकि जो है ही नहीं उससे जो कुछ है वह कैसे जन्म ले सकता है । श्रीकृष्ण ने
गीता में इसीलिए कहा – ‘नासतो विद्यते भावो न भावो विद्यते सत:’ (2/16) । इसके
अनुसार प्रत्येक कार्य का कारण होना आवश्यक है । कारण दो प्रकार का होता है
-निमित्त और उपादान । ये दोनों प्रकृति और पुरुषसंगक हैं तथा अनादि हैं । गीता में
भी श्री कृष्ण ने कहा ‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्यनादी उभावपि’ (13/19)। यह इस
दर्शन का द्वैत वाद है जो दो समान सत्ताओं -ऊर्जा और पदार्थ तथा शैव दर्शन में शिव
और शक्ति की संज्ञा धारण करते हैं ।
प्रकृति
त्रिगुणात्मक है। सत, रजस और तमोगुण रूप के
ये गुण प्रकृति में विक्षोभ पैदा करते हैं जिससे इसकी साम्यावस्था अभिव्यक्ति की
ओर उन्मुख होती है । दूसरी ओर चेतन जीव में अपनी चेतना के उन्मीलन की अभीप्सा रहती
है । इस तरह प्रकृति और पुरुष के योग से चेतन प्राणी का जन्म होता है ।
भारतीय षड्दर्शन
परंपरा में सांख्य और वेदान्त धाराएं ज्ञान की परमोच्च कक्षाएँ हैं । षडंग वेद के
परमाचार्य गोस्वामी तुलसीदास इन दर्शनों का श्रीमद्भगवद्गीता की ही तरह मानस में
भक्ति परक ऐसा समाहार प्रदान करते हैं जो व्यवहार के लिए सामान्य जनों को भी सहज
ग्राह्य है ।
जेहि इमि गावहिं
बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान
सोइ दसरथ सुत
भगत हित कोसलपति भगवान । (बालकांड 118)
12. निर्वचन दिसंवर 23
वैशेषिक
दर्शन रामचरित मानस में
वैशेषिक दर्शन
के प्रवर्तक महर्षि कणाद अणु विज्ञान के प्रथम आविष्कर्ता हैं । उन्होंने अणु की
परिभाषा करते हुए कहा – नित्यं परिमंडलम् (7.1.20) अर्थात् अणु मंडलाकार (spherical) है तथा यह कि वह सनातन है – सदकारणवाननित्यं तस्य कार्यं लिंगम्
(4.1.1-2) अर्थात सत तत्व अकारण और सनातन है । अणु इसका प्रमाण है । उनके 373
वैशेषिक सूत्र 10 अध्यायों में संग्रहीत हैं। अपने सूत्र ग्रंथ के अध्याय 4 में
उन्होंने अणु की नित्यता पर गहन विचार किया है । अध्याय 2 में उनके द्वारा
गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का विवेचन किया गया है । उनकी परिभाषा के
अनुसार-संयोगाभावे गुरुत्वात पतनम् (5.1.7) अर्थात संयोग का अभाव होने से वस्तु का
पतन होता है ।
गोस्वामी
तुलसीदास संसार में सत् और असत् वस्तुओं के परस्पर संयोग से उत्पन्न होने वाले
प्राकृतिक प्रभाव युक्तियुक्त वैज्ञानिकता से इस प्रकार विवर्णित करते हैं –
धूम कुसंगति
कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई
सोइ जल अनल अनिल
संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता
ग्रह भेषज जल
पवन पट पाइ कूजोग सुजोग
होंहि कुबस्तु
सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग । मानस बाल. ७ क्
उन्होंने इसी
प्रकार चंद्रमा के कृष्ण पक्ष में क्षीण और शुक्ल पक्ष में वृद्धिगत होने की
सदोषता और निर्दोषता को पूर्ण वैज्ञानिक निरपेक्षता में इस प्रकार समाकलित किया –
सम प्रकाश तम
पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह
ससि सोषक पोषक
समुझि जग जस अपजस दीन्ह । बाल. ७ ख
वैशेषिक दर्शन
में जीवन का ध्येय पंच पुरुषार्थ -धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माना गया है । इस सनातन भारतीय
दृष्टि को तुलसी ने मानस में क्रमश: भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण और श्री राम के चरित्र के आदर्श से प्रमाणित किया है –
मुदित अवधपति
सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि
जनु पाए महिपाल
मनि क्रियन्ह सहित फल चारि । बाल. 325
मानस में इनकी
आवृत्ति अनेकश: 1. चारि पदारथ करतल तोरे (बाल 163/7), 2. करतल होहिं पदारथ चारी (बाल. ३१४/२), 3. प्रमुदित
परम पवित्र जनु पाइ पदारथ चारि (बाल. 345), 4.चारि पदारथ भरा
भंडारू (अयो. 102/4) इत्यादि हुई है।
यह भी बहुत
महत्वपूर्ण है कि कणाद के अनुसार प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान के दो प्रकार हैं
जिनमें अनुमान के अंतर्गत शब्द प्रमाण आता है जिसके अनुसार वेद सत्य के परम प्रमाण
हैं –
तद्वचनादान्मायस्य (10.2.9)
तुलसी के राम
‘वेदान्त वेद्य’ (सुंदरकांड) ही नहीं वेदों से संस्तुत्य और समाराध्य भी हैं-
जे तुलसी मानस भारती के संपादकीय वर्ष 2023
1. निर्वचन जनवरी 23
गीता प्रैस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी वर्ष
अप्रैल १९२३ में गोरखपुर के उर्दू बाज़ार में दस रुपये प्रतिमाह
एक किराये के कमरे में आरम्भ भारतीय दर्शन,
साहित्य,
संस्कृति और अध्यात्म के महा
स्तम्भ गीता प्रेस ने देश की १५ भाषाओं में अब तक ७३ करोड़ से अधिक संख्या में पुस्तकें प्रकाशित की हैं।
इनमें मुख्य रूप से
प्रकाशित गीता की संख्या १५ करोड़ ५८ लाख और रामचरितमानस की संख्या ही
११ करोड़ ३९ लाख है । यह अनुमान किया गया है कि इस शताब्दी वर्ष में ही संस्थान केवल गीता और रामायण की ही १०० करोड़ मूल्य की विक्री का कीर्तिमान बनाने जा रहा है जबकि यह सभी जानते हैं कि गीता प्रेस का विक्रय मूल्य पुस्तक की लागत से बहुत कम होता है ।
संस्थान के मासिक प्रकाशन और मासिक कल्याण के प्रकाशन में भी
हनुमान प्रसाद जी पोद्दार को प्राप्त महात्मा गांधी के परामर्श के अनुसार विज्ञापन और व्यक्ति पूजा का
निरंतर सर्वथा निषेध
प्रभावशील है ।
आधुनिक भारत की इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक क्रान्ति के सूत्रधार जयदयाल जी गोयन्दका और इसके आधार स्तम्भ श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार थे। श्री गोयन्दका जो कलकत्ता में कपास और कपड़े के एक मारवाड़ी 'सही भाव'
के व्यापारी थे,
ने सबसे पहले वर्ष १९२२ में गोबिन्द भवन से गीता की ११००० प्रतियाँ छपाईं । पश्चात् गोरखपुर वासी श्री घनश्यामदास जी जालान की प्रेरणा से अप्रेल १९२३ में उन्होंने ६०० रुपये मूल्य से एक हाथ-मुद्रण
मशीन ख़रीदी । वर्ष १९२६ की अखिल भारतीय मारवाड़ी महासभा से गोयन्दका (सेठजी)
से हनुमान प्रसाद पोद्दार(
भाईजी)
मिले जिनके आजीवन संपादकत्व में मासिक कल्याण (
एक वार्षिकांक सहित)
का लोक व्यापी प्रकाशन आरंभ हुआ । वर्ष १९०२ में हिन्दी की 'सरस्वती'
से आरम्भ चाँद,
मतवाला,
धर्मयुग,
साप्ताहिक हिन्दुस्तान,
सारिका,
कादम्बिनी,
दिनमान आदि कितनी पत्रिकायें काल के ग्रास में
समाप्त नहीं होती गईं किन्तु आज भी कल्याण की २ लाख से अधिक की प्रतियाँ प्रतिमाह लोग बड़े चाव से ख़रीदते और पढ़ते हैं।
हिन्दी के अनेक ख्यातिनाम विद्वान और समीक्षकों ने
यथा अवसर प्रायः इस तथ्य की
ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि हिन्दी और हिन्दी साहित्य के विकास तथा इसकी लौकिक सार्वभौमिकता में जो अभिदाय गीता प्रेस का है वह सर्वथा अद्वितीय होते हुये भी हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य के पटल पर वहाँ स्थित नहीं किया गया जो उसका वास्तविक स्वत्व है । वर्ष १९०० में मैकडोनल द्वारा हिन्दी की देवनागरी लिपि की सरकारी मान्यता और वर्ष १९१० में इलाहाबाद में स्थापित हिन्दी साहित्य सम्मेलन आखिर कितने दूर के पड़ाव हैं किन्तु एक अजस्र ज्ञान मँजूषा की कुंजी सौ वर्ष पहले जो इस दैवी उपक्रम कर्ताओं को मिली उसने जैसे किसी कालातीत कोष को ही उन्मुक्त कर सर्वजन सुलभ बनाया है
। किन्तु क्या हिन्दी के विकास और देश के साहित्यिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण में
उसकी भूमिका की यह अनदेखी उचित है? जबकि
वास्तविकता यही है कि आज जब भी
कभी भारतीय धरोहर की
श्रुति और स्मृति के सनातन शास्त्रों की पाठ,
लेखन की शुद्धता और प्रामाणिकता का प्रश्न उठता है तो इसके प्रति इस संस्थान की प्रतिबद्धता तथा समर्पण का
भाव ही सभी के लिये अनुकरणीय हो जाता है ।
गीता और रामायण, भागवत आदि के मानक संस्करण प्रकाश में लाने के पूर्व गीता प्रेस ने देश के शीर्षस्थ विद्वानों की सहायता से वर्तमान पीढ़ी को जो मूल पाठ और भाष्य सुलभ कराये हैं वे प्राय:
कालान्तर में प्रकाशित सभी भाष्यों की आधारभूमि का कार्य करते रहे हैं । उदाहरण के लिय श्री रामचरितमानस के मानकीकृत वर्तमान स्वरूप का निर्धारण श्री शान्तनु विहारी (स्वामी अखंडानंद सरस्वती),
श्री नंददुलारे वाजपेयी और चिमनलाल गोस्वामी की
त्रिसदस्यीय समिति द्वारा किया गया जिसमें अनेक
क्षेपकों और
अवधी,व्रज
तथा बुन्देलीकरण की एकांगिता के
निवारण का कार्य किया गया था ।
यह अपने आप में एक अमिट काल-अभिलेख ही है कि जिस प्रतिष्ठान को राष्ट्र पिता महात्मा गांधी,
पंडित मदन मोहन मालवीय,
धर्म सम्राट करपात्री जी,
वीतरागी प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और तपोमूर्ति रामसुखदास जी महाराज का निरंतर आशीर्वाद और दिशादर्शन प्राप्त हुआ हो वह देश की अविस्मरणीय धरोहर कैसे नहीं होगी !
1.
आज
जब भारत उपनिवेशवादी मानसिकता तथा ओड़े गए पश्चिमी बुद्धिवाद से उबर रहा है तो एक
प्रकृत भारतीय बोध में इस विचार का अनुवर्तन सर्वथा वांछनीय हो जाता है कि देश के
साहित्य, संस्कृति, भाषा और स्वत्व की
रक्षा और संवर्धन में सभी सचेष्ट हो जांय ताकि हमारा भविष्य आज एक दीर्घ
दुस्स्वप्न की महानिशा से मुक्ति का आभास कर सके ।
2.
निर्वचन फरवरी -23
उत्तर रामायण अर्थात् उत्तर कांड
आद्य रामायण के
प्रणेता महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण के स्वरूप का निर्धारण करते हुए बालकाण्ड
के चतुर्थ सर्ग में इसका निम्न निदान प्रदान किया है –
चतुरविंशत्सहस्राणि
शलोकानामुक्तवानृषि:
तथा सर्गशतान् पञ्च षट्कांडानि
तथोत्तरम् । (वा. रा. 1/4/2 )
अर्थात् इसमें महर्षि ने चौबीस हजार
श्लोक, पाँच सौ सर्ग, छ: कांड और
‘उत्तर’ भाग की रचना की है ।
यह श्लोक उन सभी महा मनीषी, उद्भट, अधीत महानुभावों को रामायण के रचनाकार का
स्वत: स्पष्ट समाधान है जो इस बात को लेकर
सदियों से अपनी शक्ति का क्षरण करते आ रहे हैं कि वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड
एक उत्तरवर्ती प्रक्षिप्त भाग है जिसकी रचना वाल्मीकि जी ने नहीं की है । वास्तव
में वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के संदर्भ में ही तुलसी के रामचरित मानस के
‘उत्तरकाण्ड’ को उचित रीति से समझा जा सकता है क्योंकि इसकी रचना में जहां
गोस्वामी जी ने आदि कवि की कुशल विधा का अभीष्ट उपयोग किया है वहीं उनके समान ही
इसमें कुछ कूट और गुत्थियाँ भी रख छोड़ी हैं जिनका शंका समाधान करते हुए रामायण के
पाठकों और अध्येताओं को लगातार परिश्रम करना पड़ता है ।
रामचरित मानस के बालकाण्ड में पार्वती जी ने भगवान शिव से जो निम्न आठ
प्रश्न किए हैं वे एक प्रकार से रामकथा के कांडों का ही परिचय हैं-
प्रथम सो कारण कहहु बिचारी । निर्गुन
ब्रह्म सगुन् बपु धारी
पुनि प्रभु कहउ राम अवतारा । बालचरित
पुनि कहहु उदारा (बाल कांड)
कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो
दूषन काहीं । (बाल, अयोध्या कांड)
बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहउ नाथ
जिमि रावन मारा । (आरण्य, किष्किन्धा, सुंदर और लंका कांड)
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहउ
संकर सुखसीला । (उत्तर कांड)
बहुरि कहउ करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज
धाम । बालकाण्ड 110 (उत्तर रामायण!)
पार्वती जी ने अपने इन प्रश्नों में
श्री राम के स्वधाम गवन के जिस वृत्त के समाहार का अनुरोध किया है वह वस्तुत:
बाल्मीकि की ‘उत्तर रामायण’ की कथा है जिसे तुलसी ने स्पष्टतया छोड़ दिया है ।
उत्तरकाण्ड में अपनी कथा का उपसंहार करते हुए श्री शिव जब कहते है ‘राम कथा गिरिजा
मैं बरनी’ तो पार्वती जी उसे यथावत स्वीकार करते हुए कहती हैं ‘नाथ कृपा मम गत
संदेहा ‘(उत्तरकांड 129)। रामकथा के भाष्यकार इसका समाधान करते हुए प्रायः यही
कहते हैं कि श्री राम के स्वधाम गवन की लीला तुलसी को प्रीतिकर नहीं होने से
स्वीकार ही नहीं थी । इसी तरह शिव और पार्वती संवाद के संदर्भ में भी यह निष्कर्ष
निकाला जा सकता है कि प्रश्न पूछते समय यद्यपि पार्वती जी की इस प्रश्न के प्रति
जिज्ञासा रही होगी किन्तु भगवान की नित्य लोकोत्तर कथा सुन लेने के बाद उनका
सम्पूर्ण समाधान हो गया, अतः उन्हें अपने मूल
प्रश्न को पुन: स्मरण कराने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई ।
किन्तु इससे यह संकेत तो गृहण किया ही
जा सकता है कि तुलसी को अपने युग और अपनी
दृष्टि में इस कथा विस्तार का बोध था । किन्तु जैसा कि उन्होंने अपने
उपोद्घात में स्पष्ट किया है निगम, आगम, पुराण आदि से सुसंगत कथानक के अतिरिक्त
उन्होंने ‘कुछ’ अन्यत्र अर्थात अपनी कल्पना, काव्य कला,
शील और संस्कार-परंपरा से भी संपृक्त किया । इसमें युग-बोध, भाषा-विज्ञान, समाज-दर्शन, साहित्य
के प्रतिमान और कवि की अपनी प्रतिभा की छाप भी स्वत: आती ही है । और तुलसी के
संदर्भ में इन परिमाणों को किसी प्रकार न्यूनतर मानकर नहीं चला जा सकता क्योंकि
जहां उनकी वेद-वेदांग की शिक्षा शेष सनातन के प्रसिद्ध गुरुकुल में हुई वहीं
उन्हें भक्ति परंपरा के आद्याचार्य रामानंद जी महाराज के शिष्य श्री नरहर्याचार्य
की कृपा भी प्राप्त हुई थी । इस प्रकार उन्हें भारतीय ज्ञान परंपरा का संस्कार, शिक्षा और स्वयं की युगांतरकारी प्रतिभा से प्रामाणिक प्रतिनिधि पुरुष ही
कहा जाना उचित ठहरता है।
इतना सब इस इस धारणा की प्रतीति में
है कि उत्तरकाण्ड में तुलसीदास जी ने इसकी कथावस्तु का जो स्वरूप अवधारित किया है
उसमें मुख्य रूप से वाल्मीकि की उत्तर रामायण का आधार देखा जा सकता है ।
3. निर्वचन मार्च 23
उत्तर रामायण -2
कथानक के रूप में राम चरित मानस के
उत्तरकाण्ड में श्री राम के अयोध्या लौटने पर उनका अभिषेक, विभीषण, सुग्रीवादि मित्रों की विदाई, राम राज्य का वैभव, राम का राज्य सभा सम्बोधन, कागभुशुंडि उपाख्यान, कलियुग संताप तथा ज्ञान और
भक्ति मार्ग का विवर्तन मुख्य प्रसंग हैं । अनंतर श्री राम द्वारा करोड़ों अश्वमेध
यज्ञ करने तथा उनके सहित अन्य भाइयों के दो-दो पुत्र होने का उल्लेख कर ही इस मूल
कथानक को ‘विश्राम’ दे दिया है ।
वाल्मीकि रामायण का षष्ठ कांड
‘पौलस्त्य (रावण) के वध’ के साथ एक अर्थ में पूर्ण हो जाता है जैसा कि महर्षि का
कथानक विषयक प्रतिज्ञा कथन् है – ‘ काव्यं रामायणं कृत्स्न्नं सीतायाश्चरितं महत्
। पौलस्त्यवधमित्येव चकार चारितव्रत: (बाल. 4/7) उनके उत्तरकाण्ड के 111 सर्गों
में लगभग 30% (1 से 34 सर्ग) भाग में रावण के अत्याचार का विवरण है । (यहाँ यह
ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि तुलसी ने रावण के इन अत्याचारों का वर्णन अपने
बालकाण्ड में ही समेट लिया है।) सर्ग 35-36 में हनुमान जी का इतिहास है । इसके
अतिरिक्त सीता जी के कथानक का अति महत्वपूर्ण भाग है – उनका वनवास, उनके द्वारा कुश और लव को जन्म देना और अंतत: उनका अपनी जन्मदात्री पृथिवी
की गोद में समय जाना । इसके अतिरिक्त श्री राम के साकेत धाम लौटने के पूर्व का एक
और महत्वपूर्ण वृत्त उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने लक्ष्मण को उनकी आज्ञा के
उल्लंघन के लिए दंडित करते हुए उनका परित्याग किया जिससे लक्ष्मण श्री राम के
साकेत प्रत्यागमन के पूर्व ही अपने अनंतशेष स्वरूप में स्थित हो जाते हैं ।
यदि हम तुलसी के अन्य महत्वपूर्ण
कथा-श्रोत पद्म पुराण का संदर्भ लें तो उसके पाताल खंड के अध्याय 1 से 68 में
मुख्य रूप से वाल्मीकि रामायण के उत्तरखंड का ही विस्तार मिलता है । इसके अतिरिक्त
स्कन्द पुराण के वैष्णव खंड में उत्तरकाण्ड के कथानक का समावेश है । उक्त के
अतिरिक्त वेद व्यास के महाभारत के वन पर्व में मार्कन्डेय ऋषि द्वारा युधिष्ठिर को
वर्णित श्री राम के कथानक की उत्तरकाण्ड विषयक कथावस्तु का सम्यक समावेश हुआ है ।
इस प्रकार श्री वाल्मीकि की संरचना में उत्तरकाण्ड की समायोजना की प्रामाणिकता पर
संदेह करना कुछ पूर्वाग्रह और कुछ अतिरिक्त बौद्धिकता जनित ही प्रतीत होता है ।
वस्तुत: उत्तर रामकथा के कुछ प्रसंग विशेषकर सीता परित्याग और संबूक वध से हमारी
वर्तमान स्त्री और दलित विमर्श चेतना आहत प्रतीत होती है अत: इससे त्राण का मार्ग
इस सम्पूर्ण वृत्त को प्रक्षिप्त मानना सुविधाजनक हो जाता है । किन्तु ऐसे अन्य
अनेक धरातल हैं जिनका स्पर्श करते हुए हम सभी आशंका-कुसशंका का निवारण कर सकते हैं
। किन्तु यहाँ न् तो इसका अवसर है और न ही इसकी आवश्यकता, अत: मैं गोस्वामी तुलसीदास के उत्तरकाण्ड की कथावस्तु की सारवत्ता तक ही
अपने आप को सीमित रख रहा हूँ ।
बाबा तुलसी को अपनी ‘सुहावन जन्म भूमि
पुरी (अयोध्या)’ स्वभावत: ही बहुत प्रिय है क्योंकि इसके ‘उत्तर दिसि’ पावन सरयू
बहती है । किन्तु उनके मानस की ‘सप्त सोपान’ भूमिका तो और भी अधिक स्पष्ट है –
‘ सप्त प्रबंध सुभग सोपाना’ (बाल.
36/1), ‘भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला’ । उ.
21/1) और ‘ एहि मह रुचिर सप्त सोपाना । रघुपति भगति केर पन्थाना’ (उ 128/3) ।
पार्वती जी के द्वारा पूछे गए सप्त
प्रश्नों का हम उल्लेख कर ही चुके हैं जिनका भगवान शिव सविस्तार उत्तर देते हैं और
वे जैसे साभिप्राय ही श्री राम के स्वधाम गवन के अष्टम प्रश्न को छोड़ देते हैं ।
यहाँ तक कि गरुड-कागभुशुंडि संवाद में अनेक प्रश्नोत्तरों की दीर्घ श्रंखला है
किन्तु अंत में गरुड सँजोकर रखे ‘सात’ प्रश्नों के उत्तर में ही परिपूर्णता पाते
हैं-
‘नाथ मोहि निज सेवक जानी । सप्त
प्रश्न मम कहहु बखानी। (उ. 120.2)
सबसे दुर्लभ कवन सरीरा (१)
बड़ दुख कवन (२)
कवन सुख भारी (३)
संत असंत मरम तुम जानहु । तिन कर सहज
सुभाव बखानहु । (४)
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला (५)
कहहु कवन अघ परम कराला (६)
मानस रोग कहहु समुझाई (७)
भगवान श्री राम के विषद लीला वृत्त, गरुड तथा कागभुशुंडि जैसे महान् भक्तों के व्यामोह के निवारण तथा ज्ञान
और भक्ति जैसे गूढ दर्शन सिद्धांत के निरूपण के पश्चात गरुड के इन सामान्य से सात
प्रश्नों को सुनकर यह लग सकता है कि क्या इनकी प्रासांगिकता तब भी शेष रहती है ।
किन्तु जैसे गोस्वामी जी को श्री राम के लोकोत्तर आख्यान को जन-जन तक पहुंचाना ही
अधिक अभीष्ट था । सुख-दुख, पुण्य-पाप, संत-असंत
और मन के निग्रह जैसे विषय मानवीय जीवन यापन के ऐसे आयाम हैं जो किसी भी व्यक्ति
के विचार की प्रक्रिया में आरंभ से अंत तक विद्यमान रहते हैं । और तो और
आरण्यकाण्ड में लक्ष्मण ( ‘ईश्वर जीव भेद प्रभु’ आ.14 ) और उत्तरकाण्ड में भरत
(संत असंत भेद बिलगाई । प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई । उ. 36.5) श्री राम से कुछ इसी
तरह के प्रश्नों के उत्तर चाहते हैं ।
वस्तुत: मानव जीवन अपने आप में ही
प्रश्नोत्तर की निरंतर प्रक्रिया है जिसे वह अपने अनुभव में लगातार दोहराने में भी
लगा रहता है । किन्तु इनका पूर्ण समाधान तभी संभव हो पाता है जब कोई सिद्ध
महापुरुष स्वानुभव से उनका समाधान करता है । फिर साक्षात श्री राम और उनके परम
प्रसाद भाजन कल्पांत जयी कागभुशुंडि से इनके समाधान के लिए उत्तरकाण्ड के समापन
बिन्दु पर श्री गरुड का प्रवृत्त होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं प्रतीत होता
।
उक्त विचार पूर्वक यही कहा जा सकता है
कि जिस प्रकार श्रीमद्भागवत के अंत में भगवान श्री कृष्ण उद्धव को - मामेव
नैरपेक्ष्येण
भक्तियोगेन
विंदति
।
(11/27/53) तथा भगवद्गीता के अंत
में अर्जुन को – सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज (गीता 18/66) कहते हैं, गोस्वामी तुलसीदास भी
रामायण के सम्पूर्ण कथानक का सार तत्त्व प्रपत्ति अर्थात् श्री राम की अनन्य भक्ति के उपदेश पूर्वक
अपने उत्तरकाण्ड का समापन करते हैं –
जासु
पतित पावन बड़ बाना । गावहिं कबि श्रुति संत पुराना
ताहि
भजहि मन तजि कुटिलाई । राम भजे गति केहि नहिं पाई । (उत्तर 129/7-8)
और
चूंकि यह एक आख्यानक महाकाव्य है, अत: वे गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज, खल, आभीर, यवन, किरात, खस और स्वपच आदि जीव, जाति और समूह के
परमोद्धार
के दृष्टांत देना भी नहीं भूलते । इस प्रकार तुलसी के मानस का उत्तरकाण्ड पारंपरिक
फलश्रुति के बहुत आगे प्रमाण, द्रष्टांत
और आत्मानुभव को भी प्रकाशित कर इसे स्वयं सिद्ध संपूर्णता का आधार प्रकट करता है
।
4. निर्वचन
अप्रैल 23
भारतीय ज्ञान परंपरा
का प्रकर्ष श्रीरामचरित मानस
वेद, वेदांग, उपांग, उपवेद, स्मृति, इतिहास, पुराण और दर्शन की
अजस्र ज्ञान परंपरा के सनातन भारतीय कोश के यदि किसी एक प्रतिनिधि ग्रंथ की हमें
यदि पहचान करनी है तो गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरित मानस की ओर हमारा ध्यान
स्वभावत: जाता है । गीर्वाण गिरा (संस्कृत) की ओर ध्यान जाने पर यद्यपि श्रीकृष्ण
की गीता विश्व पटल पर इस दृष्टि से साधिकार प्रतिष्ठित है, किन्तु
वेद के लौकिक प्राकार के साक्षात्कार हेतु श्रीरामचरित मानस के जन-जन के कंठहार
मानने के लिए सभी प्राज्ञ और परमार्थी महानुभावों की सहमति देखी जा सकती है । यह
स्पष्ट है कि काशी के शेष सनातन गुरुकुल में पढे गोस्वामी तुलसीदास समग्र भारतीय
ज्ञान-कोश में पारंगत तो थे ही, उनके
व्यक्तित्व में शील, सौष्ठव, लोकधारा
और साधुत्व की जो असाधारण प्रतिष्ठा थी, उसने
उन्हें अपने इस महाग्रन्थ के माध्यम से एक अजस्र-काल की धारा का सुमेरु ही समा
देने की सामर्थ्य प्रदान की थी ।
मानस के भरत वाक्य
‘नानापुराणनिगमागमसम्मतम्’ में तुलसी का मानस की प्रामाणिकता का उद्घोष तुलसी की
विनयशीलता में जैसे एक ‘ढिठाई’ ही थी तथा इस अपराध बोध से उन्हें ‘सुनि अघ नरकहुं
नाक सकोरी’ की प्रतीति हुई थी । किन्तु तुलसी की शास्त्रज्ञता के प्रति किसी भी अधिकारी
विद्वान,
मठाधीश, काव्यशात्री, लोकनायक
और सक्षम प्रवक्ता ने कभी, कहीं
संदेह प्रकट नहीं किया। प्रसिद्ध है कि धर्मसम्राट श्री करपात्री जी जब चातुर्मास
काल में केवल संस्कृत में ही संवाद करते थे तब भी वे मानस का पारायण यथाविधि करते
हुए यही कहते थी कि मानस तो संपूर्णतया मंत्रात्मक रचना है । इसलिए यहाँ यह विचार
उचित प्रतीत होता है कि हम भारतीय ज्ञान-परंपरा की मानस में विद्यमान उस शीर्ष
धारा का अनुसंधान करें जो सार्वभौमिक तौर पर सभी के लिए अवलंवनीय है ।
भारतीय ज्ञान परंपरा
में वेद सर्वथा परम प्रमाण हैं । तुलसी ने वेद की सार्वभौमिक और सार्वकालिक
प्रामाणिकता के इस संदर्भ को कभी भी विस्मृत नहीं किया । वेद के सृष्टि के नियंता
ईश्वर में अवतार लेने की सामर्थ्य इसीलिए है क्योंकि वह इस रचना का कारण और उपादान
दोनों है । यह ज्ञातव्य ही है कि अन्य मताबलम्बियों के ईश्वर में चूंकि अवतार लेने
की जब सामर्थ्य ही जब नहीं है तो वह सर्वशक्तिशाली कैसे हो सकता है ! भगवान शिव
कौशलपति श्री राम को जब समस्त संरचना और प्रलय की सामर्थ्य से युक्त बताते हैं तो
वेद का यही साक्ष्य उनकी परिदृष्टि में है –
‘जेहि इमि गावहिं बेद
बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान
सोइ दसरथ सुत भगत हित
कोसलपति भगवान ।‘ बालकांड 118
ऋग्वेद के पुरुष,
नासदीय,
हिरण्यगर्भ,
अस्यवामीय;
यजुर्वेद के ईशावास्य और अथर्ववेद के स्कंभ तथा उच्छिष्ठ ब्रह्म आदि सूक्त इसी
दृष्टि के आधार हैं जिनका इतिहास और पुराणों में ‘उपब्रहमण'
हुआ है तथा जो वाल्मीकि के ‘वेदवेदांगतत्वज्ञ’ (वा.रा.1/11) तथा वेदव्यास के
‘धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परम्’ (भाग. 1/1/1) हैं । व्यास जी ने यहाँ
एक और चेतावनी दी है कि ईश्वर की इस ‘अभिज्ञ स्वराट्’ ब्रह्म की पहचान करते हुए
परम प्रबुद्ध भी विमूढ़ित हो जाते हैं- मुहयन्ति यत् सूरय:’ । यह स्वयं ब्रह्मा, शिव, सती
और इंद्रादि सहित उन षड्दर्शन शास्त्रियों के संबंध में भी सही प्रतीत होता है जो
इस अगोचर सत्य को एक देशीयता में खोजने में कभी-कभी प्रवृत्त हुए हैं । तुलसी ने
स्वयं वेदों से श्री राम की स्तुति में इसी सत्य का निदर्शन इस प्रकार किया है-
‘तव विषम माया बस
सुरासुर नाग नर अग जग हरे
भव पंथ भ्रमत अमिट
दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ।‘ उत्तरकाण्ड 13क
यहाँ तुलसी के ‘मानस’
में छ: वेदांग -
शिक्षा,
कल्प,
व्याकरण,
ज्योतिष,
छंद और निरुक्त;
उपांग-इतिहास-पुराण,
धर्मशास्त्र,
न्याय और मीमांसा अथवा 4 उपवेद-
धनु:,
गांधर्व,
आयुर्वेद तथा स्थापत्य आदि के विवरण विस्तार में जाने का प्रसंग नहीं है । इसके
अध्येताओं को यह प्रायः सुविज्ञात ही है तुलसी ने लगभग 56 वार्णिक और मात्रिक
छंदों का अपने काव्य में भाषाई सौष्ठव और रस परिपाक सहित निर्दोष काव्यशास्त्रीय
अनुशासन में प्रयोग किया है । राम रावण युद्ध में धनुर्विद्या के प्रयोग तथा मानस
रोग प्रसंग में आयुर्वेद और श्री राम के जन्म काल में ‘जोग
लगन ग्रह बार तिथि’ आदि ज्योतिषीय ज्ञान की परिपूर्णता का वे परिचय देते हैं । इसी
तरह मिथिला और अयोध्या वर्णन काल में स्थापत्य विधान का भी अद्भुद दिग्दर्शन है।
यहाँ तक कि प्रकृति से योग्य मानवीय संव्यवहार के पारिस्थितिक विज्ञान के भी अनेक
प्रसंग इसमें संदृष्टव्य हैं । पर हम यहाँ उनके कुछ ऐसे समन्वयक सूत्रों पर ही
ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं जो ज्ञान की बहुमुखी धाराओं में एकतानता स्थापित
करते हैं ।
दर्शन के सिद्धांत, मत
और धारणाओं में लोक और काल में ही नहीं, इनके
इतर भी विरोध का काम करता है जिसके परिणाम स्वरूप ज्ञान की प्रकट और परिसिद्ध
परंपरा भी काल-क्रम में परिलुप्त हो जाती है । ज्ञान की परंपरा में इन
द्वंद्वाभाषों के अतिरिक्त लोक और वेद की मान्यताएँ भी संघर्ष करती हैं जिसके कारण
यह धारा अवरुद्ध प्रतीत होने लगती है । श्रीरामचरित मानस में तुलसी ने इन सब
खाइयों के बीच जिन सेतुओं का निर्माण किया है वे सर्वदा अनूठे हैं । उनकी रामकथा
की सरयू के दो किनारे ‘लोक बेद मत’ के ‘मंजुल कूल’ ( बाल. 39/6) तो हैं ही, चित्रकूट
की महती राजसभा को श्री राम का स्पष्ट परामर्श है-
‘भरत बिनय सादर सुनिअ
करिअ बिचारु बहोरि
करब साधुमत लोकमत
नृपनय निगम निचोरि।‘ अयो.
258
निगम-आगम,
वैष्णव-शैव,
द्वैत-अद्वैत,
उपासना-ज्ञान,
सगुण-निर्गुण,
साधु-असाधु,
सत्-असत् माया-जीव-ब्रह्म तथा देश, काल, वर्ण, आश्रम
आदि की शास्त्रीय धारणाओं का ‘रस’ रूप ‘सार’ प्रस्तुत कर पाने की तुलसी की क्षमता
असीम है । इसलिए तुलसी के ही शब्दों में –
‘ गावत बेद पुरान
अष्टदस, छओ
सास्त्र सब ग्रंथन को रस
मुनि जन धन संतन को
सरबस,
सार अंस सम्मत सबही
की।‘
मानस है और इसकी
भारतीय ज्ञान परंपरा के सार सर्वस्व के रूप में आरती की जाना सर्वथा ही योग्य है ।
5.
निर्वचन मई २०२३
ऋषि अगस्त्य के श्री राम
भारत में १२वीं सदी से लगातार रामार्चन के लिए अगस्त्य संहिता'
प्रमुख ग्रन्थों में से एक है । अगस्त्य संहिता के भविष्य खण्ड के १३१-१३५ अध्यायों में 'रामानंदजन्मोत्सव'
का भी एक प्रसंग कुछ संस्करणों में मिलता है जिसमें कलियुग के ४४०० वर्ष बीत जाने पर उल्लेख हुआ है कि-
आविर्भूतो महायोगी द्वितीय इव भास्कर:
रामानंद इति ख्यातो लोकोद्धरणकारण:
यह प्रश्न उठता है कि १२९९ ईसवी में इस प्रकार जन्मे श्रीरामानंद जी १५१८ और १५२७ में जन्मे कबीर और रैदास के गुरु कैसे हो सकते थे?
इसलिए विद्वान इस खण्ड को प्रक्षिप्त मानते हैं । पर अगस्त्य संहिता रामोपसना का प्राचीनतम वैष्णवागम ग्रन्थ सर्वथा मान्य और स्वीकृत है । यदि रामतापनीयोपनिषद् रामोपासना का निगम कल्प है तो अगस्त्य संहिता आगमिक । अध्यात्म रामायण भी अगस्त संहिता का उल्लेख करती है । अथर्ववेद से संबंधित 'रामतापनीयोपनिषद्'
में अनेक स्थलों पर अगस्त्य संहिता की शब्दावली से मेल खाते अनेक श्लोक मिलते हैं ।
अगस्त्य संहिता में श्री राम के
षोडसोपचार पूजन द्रारा नित्य,
नैमित्तिक और काम्य कर्मकाण्डों को विहित किया गया है । श्री राम की अनन्या भक्ति इसका मूल प्रतिपाद्य है । यह महामुनि अगस्त्य के अपने शिष्य सुतीक्ष्ण के साथ संवाद रूप में अभिकथित
है । अगस्त्य जी अपने उत्तर में शिव-पार्वती के संवाद द्वारा इसे विस्तार देते हैं । भगवान शंकर के अनुसार भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा को विश्व कल्याण के लिए पर षडक्षर राममंत्र का उपदेश किया । संहिता के सप्तम अध्याय में बताया गया है कि इसी षडक्षर मंत्र को उन्होंने भगवान शिव को प्रदान किया जिसके कारण भगवान शिव ने काशी में मरने वाले जीवों का उद्धारत्व प्राप्त किया ।
फलं भवतु देवेश सर्वेषां मुक्तिलक्षणम्
मुमूर्षाणां च सर्वेषां दास्ये मन्त्रवरं परम् । अगस्त्य संहिता ७/३४
मानस प्रेमी यहाँ तुलसी के कथन -
'कासीं मरत जंतु अवलोकी,
जासु नाम बल करउं बिसोकी।'
( बाल.
१/११९)
का स्पष्ट आधार प्राप्त कर सकते हैं !
महर्षि अगस्त्य आगम,
निगम,
इतिहास और पुराण यहाँ तक
कि तमिल भाषा के आधुनिक वैय्याकरणी के रूप में अभिज्ञात हैं । वाल्मीकि और तुलसी रामायण उन्हें रावण के संहार में
राम का परम सहायक सिद्ध करती है । वाल्मीकि रामायण का अगस्त्य द्वारा प्रदत्त ३१ श्लोकों का आदित्य हृदय स्तोत्र वह परमास्त्र था जिसका श्री राम उपयोग करते हैं । तुलसी ने भी श्री राम द्वारा अंतत:
'छांडे सर इक्तीस'
का उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में
श्री राम की सभा में अगस्त्य द्वारा विवर्णित अनेक कथा प्रसंगों का प्रामाणिक साक्ष्य
मिलता है ।
ऐसे ऋषि,
वैज्ञानिक और लोक कल्याण के
सर्वोच्च विधायक महर्षि अगस्त्य की श्री रामाराधना विषक अगस्त्य संहिता का अध्ययन,
शोध और अवगाहन वर्तमान
प्रबुद्ध समाज को सर्वथा ही विधेय हो जाता है ।
6. निर्वचन जून 23
वेद का लोक-संस्करण श्रीरामचरितमानस
श्रुति
वचन है- ऋते ज्ञानान्न मुक्ति (हिरण्यकेशीय शाखा) अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति
नहीं । ज्ञान है सत्य का स्वानुभव । और
सत्य- हमारे नित्य संध्या विधान के मंत्र ‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत’ में जब स्मरण किया जाता है
तो स्पष्ट है कि सभी को उसके साक्षात्कार का अवसर प्राप्त है । श्रीमद्भागवत का तो
प्रथम श्लोक के अंतिम चरण में इसी आशय के प्रतिज्ञा कथन ‘सत्यं परं धीमहि’ से
ग्रंथ का आरंभ किया गया है । भारतीय ज्ञान परंपरा के आधार स्तम्भ वेद-वेदांग से
लेकर स्मृति, पुराण इतिहास आदि सभी शास्त्रों में इसी सत्य के ‘शब्द प्रमाण’ भरे हुए
हैं । इनमें गीता और रामायण हमारी दो हथेलियों में उपलब्ध ऐसे दर्पण ही हैं जिनसे
इसके साक्षात्कार का हमें अवसर सदा ही सुलभ बना हुआ है ।
गीता
में भगवान श्रीकृष्ण की स्पष्ट घोषणा है ‘ज्ञानं तेsहं
सविज्ञानमिदं वक्षयाम्यशेषत:’ (7/2) अर्थात् श्री कृष्ण की घोषणा है कि वे ज्ञान
को उसकी प्रायोगिकता में समझा रहे हैं । रामचरित मानस में श्री राम लक्ष्मण के
प्रश्नों के उत्तर में संक्षेप में सार स्वरूप इसी सत्य का प्रतिपादन इस प्रकार
करते हैं –
‘मैं अरु मोर तोर
तें माया । जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया
गो गोचर जहॅ लगि मन
जाई । सो सब माया जानेहु भाई । ..
माया ईस
न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव
बन्ध
मोच्छप्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव । ( आरण्यकांड 15)
ईश्वर और मनुष्य के
बीच की दूरी मात्र माया के अंधेरे की इस दीवाल की ही है जो ज्ञान के प्रकाश से उसे
तत्क्षण मुक्ति के द्वार में प्रविष्ट करा देती है । ठीक इसी प्रकार का उपदेश श्री
राम भरत को भी प्रदान करते हैं –
सुनहु तात माया कृत
गुन अरु दोष अनेक
गुन यह उभय न देखिअहि
देखिअ सो अविवेक । उत्तरकाण्ड 41
अर्थात् हे भाई (भरत)
माया के कार्य की अनेक सकारात्मक और नकारात्मक विशेषताएँ हैं । इनका निदान इतना
गहन है कि उसमें मनुष्य का न पड़ना ही श्रेयस्कर है । यदि इसके विस्तार में वह जाता
है तो यह उसका अविवेक ही ठहरता है (क्योंकि इससे उसके बंधन ही प्रगाढ़ होते हैं)।
मानस में ही शिव, विरंचि, सती, भुशुंडि, गरुड
और इंद्रादिक देवताओं के इस माया से विमोहित हो जाने के अनेकानेक प्रसंग हैं। आगे
अन्य दूसरों की तो बात ही उत्पन्न नहीं होती । पार्वती जी द्वारा राम के स्वरूप को
समझने के लिए पूछे जाने पर श्री शिव वेदान्त दर्शन के इसी सत्य सार की इस प्रकार
प्रतिष्ठा करते हैं-
झूठेउ सत्य जाहि बिनु
जाने । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने
जेहि जानें जग जाइ
हेराई । जागे जथा सपन भ्रम जाई । बालकांड 112/1
असत् (माया) बोध से
रज्जु में भुजंग की प्रतीति अथवा स्वप्न में सत्यत्व का आभास इसी माया का गुण अथवा
दोष (विशेषता!) है जिससे निवृत्ति का उपाय मात्र अपने वास्तविक सत् स्वरूप में
जागना और स्थित हो जानया है । जिस तत्व बोध को वेद के चार महावाक्य- अहं ब्रह्मास्मि, तत्त्वमसि, अयमात्मा
ब्रह्म और प्रज्ञानं ब्रह्म उद्घाटित करते हैं, रामचरित
मानस के प्रथम प्रवक्ता श्री शिव इस प्रकार उन्मीलित करते हैं –
जगत प्रकास्य प्रकाशक
रामू । मायाधीस ज्ञान गुन धामू
जासु सत्यता तें जड़
माया । भास सत्य इव मोह सहाया
रजत सीप महुँ भास जिमि
जथा भानु कर बारि
जदपि मृषा तेहुं काल
सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि । बालकांड 117
विश्व मानव के लिए जीव, जगत, माया
और ब्रह्म का यह निदर्शन भारतीय दर्शन का परमोच्च अवदान है । सदा से सदा के लिए
संपादित मानव की चेष्टा इसी बोध में परिसमाप्त होने को हैं । इस प्रकार सनातन ज्ञान-सागर के जन-जन को सुलभ
सत्व रामचरित मानस विश्व को प्राप्त वरदान दैवी प्रसाद से कदापि भिन्न नहीं है ।
7.
निर्वचन
जुलाई 23
काव्य का
प्रयोजन
भारतीय साहित्य परंपरा में काव्य के प्रयोजन
पर भरत मुनि,
भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, आनंद
वर्धन, कुंतक, महिम भट्ट, अभिनव
गुप्त, भोज, मम्मट और
विश्वनाथ आदि आचार्यों ने व्यक्ति और वैश्विक दोनों ही परिप्रेक्ष्य में बहुत
परिपूर्णता से विचार किया है । सामान्यतया उनके अनुसार जहां काव्य
व्यक्ति के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष) का साधन है वहीं यह महाभूतों (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और
आकाश) की तरह अशिव के निवारण का भी कार्य करता है । इस प्रकार प्रातिभ रचनाकार्य
परमात्मा की सृष्टि की ही एक पूरक इकाई हो जाता है । पश्चिम के विचारकों में
प्लेटो, अरस्तू, रस्किन, टालस्टाय, कॉलरिज, आर्नोल्ड
और आई ए रिचार्ड्स भी प्राय: इन्हीं
धारणाओं के हैं ।
गोस्वामी
तुलसीदास ने जैसे इसका सम्पूर्ण समाहार करते हुए मानवीय अस्तित्व के सभी आयामों की
सार्थकता और सिद्धि को अपूर्व रीति से इस प्रकार परिभाषित कर दिया –
कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कर
हित होई ।
अब से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व राजा भोज के
समकालीन आचार्य मम्मट ने अपने ‘काव्य प्रकाश’ में कविता के बहुआयामी समन्वित छ:
उद्देश्य इस प्रकार बताए हैं –
काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे
शिवेतरक्षतये
सद्य: परनिवृत्तये कांतासम्मिततयोपदेशयुजे ।
इनमें चतुर्थ अशिव के क्षय विषयक कार्य है । शिव मंगल
के प्रतीक हैं । यजुर्वेद में ‘नम: शंभवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च
नम: शिवाय च शिवतराय च’ (16/41) इस मंत्र के छहों विशेषण शिव के कल्याणकारी होने
के ही विधायक और परिचायक हैं । अत: एक कवि की कारयित्री क्षमता का अशिव के शमन में
योग महत्वपूर्ण हो जाता है । कवि यह कार्य नवरस की वर्षा के अतिरिक्त यथा स्थिति
व्यंग्य, वक्रोक्ति
और लक्षणा शब्द शक्ति के माध्यम से भी पूरा किया करता है ।
हिन्दी साहित्य के वर्तमान युग में भी महावीर
प्रसाद द्विवेदी,
मैथिली
शरण गुप्त, जयशंकर
प्रसाद, रामचन्द्र
शुक्ल, हजारी
प्रसाद द्विवेदी,
नगेन्द्र, नन्द
दुलारे वाजपेयी प्रभृति रचनाकार कवित्व की इसी प्रकृत धारा के पैरोकार रहे हैं ।
विगत सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम के भौतिक यथार्थ बोध की प्रतिस्पर्धा में
प्रतिनिधि हिन्दी कविता भी जैसे अपनी प्रकृत पहचान से दूर हो चली थी जबकि थोरो, इमर्सन, वहाल्ट
व्हिटमैन, एट्स और
इलियट आदि सनातन भारतीय दृष्टि के अनुसंधान में लगे थे ।
यह प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान में भारतीय
ज्ञान भंडार के सम्यक् अन्वीक्षण
और द्रष्टा ऋषियों की परादृष्टि की प्रकृत पहचान की नित नूतन पहल हो रही है । उसे
यह समझ आने लगा है कि साहित्य और कला जीवन के भौतिक उपादान तक सीमित किए जाकर
उपभोग के पर्याय बनाकर नहीं छोड़े जा सकते । जिस प्रकार मनुष्य के अन्त:करण (मन, बुद्धि, चित्त और
अहंकार) की अवस्थाओं के प्रकटीकरण के लिए स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति
और समाधि की अवस्थाएँ आवश्यक हैं,
वैसे ही
समग्र जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान,
विज्ञान, कला-साहित्य
और परा-दृष्टिवत्ता
भी आवश्यक है ।
गोस्वामी तुलसीदास ने इस सत्य का साक्षात्कार
किया था तथा उन्होंने विवेकी जनों को इस हेतु आवश्यक दर्पण भी दिखाया –
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक
सो बिचारि सुनहहिं सुमति जिन्ह के बिमल बिबेक
। बाल. 9
8.
निर्वचन अगस्त 23
गीता-प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी
महोत्सव
7 जुलाई 2023 को भारत के प्रधान मंत्री श्री
नरेंद्र मोदी ने गीता प्रेस गोरखपुर में सम्पन्न गीता प्रेस की स्थापना के शताब्दी
समारोह में उपस्थित हो संस्थान को करोड़ों भारतीयों के अन्त:स्थ मंदिर की संज्ञा
प्रदान की । ठीक इसी भाव भूमिका में मानस भवन के श्री रामकिंकर सभागार में तुलसी
मानस प्रतिष्ठान,
हिन्दी
भवन और सप्रे संग्रहालय भोपाल के समन्वित प्रकल्प में एक दिन पूर्व 6 जुलाई को
मध्य प्रदेश की प्रतिनिधि संस्थाओं की ओर से गीताप्रेस की पुस्तक प्रदर्शिनी सहित भगवत्प्राप्त
भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार और सेठ जयदयाल जी गोयंदका को पुष्पांजलि अर्पित की गई ।
इस अवसर पर विचारक मनीषियों ने व्यक्त किया गया कि जिस प्रकार गोस्वामी तुलसी ने
मध्य काल में लोकरक्षण का कार्य किया ठीक उसी प्रकार गीता प्रेस गोरखपुर ने
वर्तमान काल में सनातन धर्म को अभिनव पहचान प्रदान कर भारत के विस्मृतप्राय
अध्यात्म, दर्शन, साहित्य
और इतिहास के प्रलुप्त गौरव को नई पीढ़ी के सुपुर्द किया है।
प्रकारांतर से इस अवसर पर भारत सरकार द्वारा
गीताप्रेस को प्रदत्त प्रतिष्ठित गांधी-सम्मान को लेकर उठाए गए प्रश्न पर भी
वक्ताओं ने स्पष्ट रूप से
‘कल्याण’ पत्रिका तथा इसके संस्थापक संपादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार पर गांधी
जी के प्रभाव और इनके संबंध की आंतरिकता पर भी प्रकाश डाला । एक अर्थ में श्री
पोद्दार जी गांधी जी की उस वैष्णवता का ही विस्तार थे जिसमें स्वभावजन्य उदारता, परमार्थ, राष्ट्रप्रेम, सर्वजन
हित और विश्व मानवता की प्रतिष्ठा होती है । यदि किसी की दृष्टि में अक्षय मुकुल
द्वारा गीता प्रेस पर लिखी ‘मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया’ पुस्तक की राहु छाया पडी है
तो वह एकांगी और पूर्वाग्रह ग्रसित ही है।
‘तुलसी मानस भारती’ ने गांधी जन्म शताब्दी के
अवसर पर अपने अंक अक्टोबर 2020 में ‘श्वास श्वास में राम’, वार्षिकांक
जनवरी 2023 में ‘गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना का शताब्दी वर्ष’ शीर्षक से
संपादकीय और जून 23 के अंक में बालकृष्ण कुमावत के आलेख ‘ दैवी संपदा की
प्रतिमूर्ति भाईजी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार’ प्रकाशित किए हैं । हमारी आगामी
वार्षिकांक की योजना भी गीता प्रेस गोरखपुर के अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, भाषा और
भारतीय लोक जीवन पर पड़े अमिट प्रभाव के समाकलन विषयक है । क्या यह एक विडंबना नहीं
है कि जहां अध्यात्म और संस्कृति के क्षेत्र में गीताप्रेस के अभिदाय की
अपरिहार्यता स्वीकार की जाती है,
संस्कृत, हिन्दी, देश की
अन्य भाषाओं तथा हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में इस संस्थान के योग को प्रायः
बिसार दिया जाता है । इसका कारण यही प्रतीत होता है कि वर्तमान भारतीय शिक्षा
व्यवस्था में भारतीयता के जड़-मूल में पैठी इस संस्था को वह स्थान प्रदान नहीं किया
गया जिसकी वह संपूर्ण अधिकारिणी है ।
जिस संस्थान की गीता, रामायण, महाभारत, पुराण, उपनिषद, स्तोत्र, पूजा विधि, भाष्य, विशेषांक
और कल्याण पत्रिका की शास्त्र सम्मतता के प्रति चारों प्रधान शंकराचार्य पीठ, काशी
अयोध्या, वृंदावन, उज्जैन
आदि के साधु-मनीषी और विद्वत समाज एकमतेन पूरी तरह आश्वस्त हों उसके परम प्रमाण पर
संदेह जैसी स्थिति क्योंकर उत्पन्न हुई ? भारतीय
ज्ञान परंपरा जहां वेद को ‘शब्द प्रमाण’ की सत्ता प्राप्त है, वहाँ गीता
प्रेस के इतने कुशल,
श्रम
साध्य और
पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि की संपूर्णता का सामान हो उसे किसी भी प्रकार से
विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए ।
आइए, हम भारतीय
मेधा के महर्षियों की श्रुति,
स्मृति, संहिता, आख्यान और
आचार विज्ञान को शब्दाकार देने वाले विश्व के सर्वाधिक उपकारी गीताप्रेस और उसके
संस्थापकों को अपनी आदरांजलि प्रदान कर ऐसी धन्यता की प्रतीति करें जो परमार्थ का
बोध कराती है ।
9. निर्वचन सितंबर 23
वेद का लोक संस्करण
मानस
क्या वेद का कोई
लोक-संस्करण भी है, हो सकता है ? और यदि ऐसा है, तो इसकी संरचना कब और कैसे हुई ? स्वयं तुलसीदास ही लोकमत को वेद मत के समतुल्य मानते हुये लिखते हैं –
‘चली
सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ।
सरजू नाम सुमंगल
मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला । बाल. 38/6
अर्थात् रामचरित
मानस की राम का यशोगान करने वाली प्रवहमान सुंदर कविता-नदी सरयू के वेद और लोकमत
रूपी दो किनारे हैं ।
रामचरित मानस
में चित्रकूट की धर्म और राजनय की विराट
सभा में अयोध्या राज्य प्रभार के निर्णय के संबंध में त्रिकालज्ञ गुरु वशिष्ठ कहते
हैं –
भरत बिनय सादर
सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि
करब साधुमत
लोकमत नृपनय निगम निचोरि । अयोध्या 258
वेद के तीन
प्रभाग हैं – उपासना, कर्म और ज्ञान । इसे
वेदत्रयी अर्थात् क्रमश: ऋक्, यजु और सामवेद को कहा जाता है
। इससे यह भी समझ लेना है कि वेद का अधिकतम लगभग 80 प्रतिशत भाग उपासना, 15 प्रतिशत कर्म और लगभग 5 प्रतिशत ज्ञान प्रधान है । इस तरह वेदान्त, जो अद्वैत दर्शन के रूप में अभिज्ञात है, इस
ज्ञानाश्रयी धारा का महाप्रस्थान है । उपनिषद, ब्रह्मसूत्र
और भगवद्गीता इसकी प्रस्थानत्रयी है । भारतीय षड् दर्शन- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और
पूर्वमीमांसा के बाद उत्तरमीमांसा ही वेदान्त अर्थात् वैदिक मनीषा का शीर्ष भाग है
। जहां इसमें योग का पर्यवसान होता है वहीं पूर्वमीमांसा वैष्णवी पुष्टि धारा में
इसका ‘विशिष्ट’ प्रभाव स्पष्ट
दृष्टिगोचर होता है ।
भारतीय ज्ञान
परंपरा के स्तम्भ वेद, वेदान्त, इतिहास, पुराण आदि सभी शिला-पट्टों में अमिट रह
सनातन भारतीय संस्कृति का यही जीवन व्यवहार बनता है । इस लोक विश्रुत आदर्श को
अपने रामचरित मानस में जीवन का आधार दर्शन बनाते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने इसी लिए
कहा –
सीय राम मय सब
जग जानी । करहुँ प्रणाम जोर जुग पानी । (बालकांड 7/1)
परंब्रहम
निश्चित ही एकसाथ विश्वमय और विश्वोत्तीर्ण हो सकता है । तभी भगवान भोलेनाथ मंत्र,
विधि और निषेध आदि की सीमा से परे चले जाते हैं । भगवान शिव के इसी शाबर-मंत्र जाल
की महिमा का बखान गोस्वामी तुलसीदास ने करते हुए कहा है –
‘कलि
बिलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरजा
अनमिल आखर अरथ न
जापू । प्रगट प्रभाव महेस प्रतापू । बाल. 15/3
अर्थात् शिव-शक्ति ने कलियुग को देखते
हुए संसार के हित में शाबर मंत्र समूह रचा । इसके शब्द, अर्थ और जप प्रक्रिया में
स्वयं का ही विधान काम करता है और यह शिव के प्रसाद से त्वरित फलदायी भी है ।
लोक और वेद के
एक अद्भूद समाहार का दृश्य रामचारित मानस के आयोध्याकाण्ड में तब मिलता है जब श्री
राम अपने वनवास काल में चित्रकूट पहुंचते हैं । वहाँ के मूल निवासी ‘कोल, किरात’
को जब यह सूचना मिलती है तो वे ‘कंद मूल फल भरि भरि दोना । चले रंक जनु लूटन सोना’
का आदर्श प्रस्तुत कर कहते हैं –
‘हम सब धन्य
सहित परिवारा । दीख दरसु भर नयन तुम्हारा
कीन्ह बासु भल
ठाँव बिचारी । इहाँ सकल ऋतु रहब सुखारी ।‘
इस पर श्री राम
की प्रतिक्रिया और गोस्वामी तुलसीदास की टिप्पणी भी उतनी ही अनूठी है –
‘बेद बचन मुनि
मन आगम ते प्रभु करुणा ऐन
बचन किरातन्ह के
सुनत जिमि पितु बालक् बैन ।‘ अयोध्याकांड 136
10. निर्वचन अक्टोबर 2023
ज्ञानं ब्रह्म
भारतीय परंपरा
में ज्ञान के पर्याय वेद हैं । ऋग्वेद
के 10 मंडलों में 1028 सूक्त और 10600 ऋचाएँ,
सामवेद के 6 अध्यायों में मंत्र 1875, यजुर्वेद
के अध्याय 40 में 1975 मंत्र तथा अथर्ववेद के 20 कांड में 740 सूक्त और
मंत्र 5962 हैं । चारों वेद संहिताओं की कुल मंत्र संख्या 20379 है । श्री
वेदव्यास को वेदों के चार भागों में वर्गीकरण का हेतु माना जाता है। उन्होंने इनके
परिशिक्षण का दायित्व अपने शिष्यों -ऋग्वेद का
वैशम्पायन, यजुर्वेद का सुमंतु, सामवेद का पैल और अथर्ववेद का जैमिन को सौंपा।
इनकी विषयवस्तु
के संबंध में संक्षेप में इतनी जानकारी पर्याप्त है कि ऋग्वेद मंत्रात्मक आराधन, यजुर्वेद याज्ञिक अनुष्ठान, सामवेद समाधि युक्त
अनुगान और अथर्ववेद राज, समाज, विज्ञान,
औषधि, मनस और सृष्टि संचार के विषयों को
समेटता है । इसके अतिरिक्त जैसा कि वेदों का उपवेदों में विस्तार हुआ, ऋग्वेद से आयुर्वेद, सामवेद से गांधर्ववेद, यजुर्वेद से धनुर्वेद तथा अथर्ववेद से अर्थशास्त्र का प्रणयन हुआ।
यदि वेद के
शिरोभाग वेदान्त का सार संदेश एक पंक्ति में समाहित करना है, तो यजुर्वेद 40/1 से निम्नलिखित मंत्र उद्धृत किया
जा सकता है -
ईशावास्यमिदं
सर्वं यत्किंचजगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन
भुन्जीथः मा गृधः कस्यस्वित्धनम् ।
यही मंत्र
ईशावास्योपनिषद का भी प्रस्थान बिन्दु है । विनोबा भावे ने ईशावास्योपनिषद की अपनी
टिप्पणी "ईशा वृत्ति" में इस तथ्य पर जोर दिया है कि भगवद्गीता के बीज
ईशावास्योपनिषद में खोजे जा सकते हैं। यह शास्त्र संपूर्ण वेदांत का प्रतिनिधि
दर्शन है। इसके इस पहले मंत्र पर ध्यान केंद्रित करते हुए हम बहुत अच्छी तरह से
निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि विश्व बंधुत्व के सिद्धांत, एकमानवीयता की जीवन शैली और उपयुक्त विश्व व्यवस्था की योग्य नीति मूलत:
इसी में निर्धारित की गई है।
वेद, जैसा कि हमें समझना चाहिए, निरपेक्ष ब्रह्म का
अनुचिन्तन हैं । भारतीय ऋषि वैज्ञानिक
जीवन को उसकी पूर्णता- भौतिक के साथ-साथ आध्यात्मिक रूप से जीने के लिए
मनुष्य के प्रतिनिधि जीवन-नियमों के अन्वेषणकर्ता
हैं। मानव जीवन के छह मूल सिद्धांत दर्शन - न्याय, वैशेषिक,
कर्म, सांख्य, योग और
वेदांत, भी वेद विनिश्रित हैं । इनका औपनिषदिक शिरोभाग
वेदान्त सभी का उपसंहार है। प्रस्थानत्रयी के नाम से प्रसिद्ध उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता इस दर्शन के आधार स्तम्भ हैं । वेदांत को अद्वैत
दर्शन भी कहा जाता है क्योंकि यह ईश्वर के सार्वभौम एकत्व का उद्घोषक है।
ब्रह्म सूत्र के
दूसरे सूत्र में कहा गया है, संसार की उत्पत्ति
ब्रह्म से ही हुई है – जन्माद्यस्य यतः (ब्रह्म सूत्र-2)।
गीता में इस
ज्ञान के कुछ संदर्भ निम्नानुसार देखे जा सकते हैं –
श्रीमद्भग्वद्गीता में ज्ञान की
परिभाषा, उसके विस्तार और उसे ज्ञान प्राप्ति का जिस प्रकार
श्रेष्ठ साधन बताया गया है उसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं –
नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रामिह विद्यते
(4.8)
(ज्ञान से श्रेष्ठतर इस संसार में कुछ
भी नहीं है ।)
तैत्तिरीयोपनिषद् के प्रथम अनुवाक की
ब्रह्मानंदवल्ली में यह उल्लेख है कि सत्य, ज्ञान और अनंतता ही ब्रह्म है तथा उसका निवास वेद में निहित परं व्योम की
कन्दरा के भीतर है –
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं
गुहायां परमे व्योमन् ।
भारत के पुनर्जागरण में भारतीय ऋषियों
के द्वारा समग्र संसार के कल्याण के लिए किए गए इस सत्य के साक्षात्कार का समय
सन्निकट है, ऐसा अनुमान किया जा सकता है !
11. निर्वचन नवंबर 23
मानस
का समन्वित सांख्य दर्शन
गीता में भगवान
श्रीकृष्ण ने जिनके लिए ‘सिद्धानां कपिलो मुनि:’ कहा वे ही सांख्य दर्शन के
प्रणेता और स्वयं विष्णु के 24 अवतारों में एक कपिल मुनि हैं । वर्तमान की जानकारी
के अनुसार वे ईशा पूर्व 700 वर्ष पहले थे । यद्यपि उनके मूल सांख्य सूत्र तो
अनुपलब्ध हैं किन्तु 300 वर्ष ईशा पूर्व के उनकी परंपरा के आचार्य ईश्वर कृष्ण
शास्त्री की ‘सांख्य कारिकाएँ’ सुलभ हैं जिससे इस दर्शन सिद्धांत की सम्यक जानकारी
प्राप्त होती है ।
गोस्वामी
तुलसीदास ने रामचरित मानस के बालकांड में भगवान राम के अवतार के हेतुओं में मनु और
सतरूपा के तप के संदर्भ विवरण में उनके पुत्र प्रियवृत की पुत्री देवहूति और उनके
पुत्र कपिल का संदर्भ इस प्रकार दिया है –
‘आदिदेव प्रभु
दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला
सांख्य सास्त्र
जिन्ह प्रगट बखाना । तत्व बिचार निपुन भगवाना ।‘ (141/4)
श्रीमद्भागवत के
तृतीय स्कन्ध के अध्याय 24-33 में विस्तार से भगवान कपिल के अवतार और माता देवहूति
को उनके प्रदत्त तत्वज्ञान का विवरण है । इसके परिणाम स्वरूप देवहूति को मोक्ष की
प्राप्ति होती है । अपने मूल प्रश्न में देवहूति सांख्य दर्शन के प्रकृति और पुरुष
के द्वैत तत्व को जानने का अनुरोध इस प्रकार करती हैं –
‘ तं त्वा गताहं
शरणं शरण्यं स्वभृत्यसंसारतरो: कुठारम्
जिज्ञास्याहं
प्रकृते: पुरुषस्य नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ।‘ (1/25/11)
माता देवहूति
यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह पूछती हैं कि मनुष्य उससे स्वभावत: अभिन्न प्रकृति
से कैसे परे जा सकता है तो भगवान का उत्तर है कि जिस प्रकार अरणि अग्नि उत्पन्न कर
स्वयं उससे भस्म हो जाती है उसी प्रकार प्रकृति को साधना पूर्वक आत्मा के प्रकाश
में तिरोहित हो जाती है ।
रामचरित मानस के
बालकांड में जैसे यही तत्वबोध भगवान शिव दोहा क्रमांक 107 से दोहा 120 तक पार्वती
जी को प्रदान करते हुए कहते हैं कि प्रकृति प्रधान यह संसार असत् होते हए भी उसे
उसी प्रकार दुख देता रहता है जिस प्रकार स्वप्न में कोई अपने सिर के काट लिए जाने
पर तब तक दुखी बना रहता है जब तक कि वह जाग नहीं जाता है ।
सांख्य दर्शन की
एक महत्वपूर्ण अवधारणा ‘सत्कार्यवाद’ है । इसका आशय यह है कि इस मत के अनुसार कोई
भी सृष्टि अथवा सर्जन ‘सत्’ से ही संभव है, असत् से नहीं । यह धारणा वर्तमान में भी पूरी तरह से युक्तियुक्त ही है
क्योंकि जो है ही नहीं उससे जो कुछ है वह कैसे जन्म ले सकता है । श्रीकृष्ण ने
गीता में इसीलिए कहा – ‘नासतो विद्यते भावो न भावो विद्यते सत:’ (2/16) । इसके
अनुसार प्रत्येक कार्य का कारण होना आवश्यक है । कारण दो प्रकार का होता है
-निमित्त और उपादान । ये दोनों प्रकृति और पुरुषसंगक हैं तथा अनादि हैं । गीता में
भी श्री कृष्ण ने कहा ‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्यनादी उभावपि’ (13/19)। यह इस
दर्शन का द्वैत वाद है जो दो समान सत्ताओं -ऊर्जा और पदार्थ तथा शैव दर्शन में शिव
और शक्ति की संज्ञा धारण करते हैं ।
प्रकृति
त्रिगुणात्मक है। सत, रजस और तमोगुण रूप के
ये गुण प्रकृति में विक्षोभ पैदा करते हैं जिससे इसकी साम्यावस्था अभिव्यक्ति की
ओर उन्मुख होती है । दूसरी ओर चेतन जीव में अपनी चेतना के उन्मीलन की अभीप्सा रहती
है । इस तरह प्रकृति और पुरुष के योग से चेतन प्राणी का जन्म होता है ।
भारतीय षड्दर्शन
परंपरा में सांख्य और वेदान्त धाराएं ज्ञान की परमोच्च कक्षाएँ हैं । षडंग वेद के
परमाचार्य गोस्वामी तुलसीदास इन दर्शनों का श्रीमद्भगवद्गीता की ही तरह मानस में
भक्ति परक ऐसा समाहार प्रदान करते हैं जो व्यवहार के लिए सामान्य जनों को भी सहज
ग्राह्य है ।
जेहि इमि गावहिं
बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान
सोइ दसरथ सुत
भगत हित कोसलपति भगवान । (बालकांड 118)
12. निर्वचन दिसंवर 23
वैशेषिक
दर्शन रामचरित मानस में
वैशेषिक दर्शन
के प्रवर्तक महर्षि कणाद अणु विज्ञान के प्रथम आविष्कर्ता हैं । उन्होंने अणु की
परिभाषा करते हुए कहा – नित्यं परिमंडलम् (7.1.20) अर्थात् अणु मंडलाकार (spherical) है तथा यह कि वह सनातन है – सदकारणवाननित्यं तस्य कार्यं लिंगम्
(4.1.1-2) अर्थात सत तत्व अकारण और सनातन है । अणु इसका प्रमाण है । उनके 373
वैशेषिक सूत्र 10 अध्यायों में संग्रहीत हैं। अपने सूत्र ग्रंथ के अध्याय 4 में
उन्होंने अणु की नित्यता पर गहन विचार किया है । अध्याय 2 में उनके द्वारा
गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का विवेचन किया गया है । उनकी परिभाषा के
अनुसार-संयोगाभावे गुरुत्वात पतनम् (5.1.7) अर्थात संयोग का अभाव होने से वस्तु का
पतन होता है ।
गोस्वामी
तुलसीदास संसार में सत् और असत् वस्तुओं के परस्पर संयोग से उत्पन्न होने वाले
प्राकृतिक प्रभाव युक्तियुक्त वैज्ञानिकता से इस प्रकार विवर्णित करते हैं –
धूम कुसंगति
कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई
सोइ जल अनल अनिल
संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता
ग्रह भेषज जल
पवन पट पाइ कूजोग सुजोग
होंहि कुबस्तु
सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग । मानस बाल. ७ क्
उन्होंने इसी
प्रकार चंद्रमा के कृष्ण पक्ष में क्षीण और शुक्ल पक्ष में वृद्धिगत होने की
सदोषता और निर्दोषता को पूर्ण वैज्ञानिक निरपेक्षता में इस प्रकार समाकलित किया –
सम प्रकाश तम
पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह
ससि सोषक पोषक
समुझि जग जस अपजस दीन्ह । बाल. ७ ख
वैशेषिक दर्शन
में जीवन का ध्येय पंच पुरुषार्थ -धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माना गया है । इस सनातन भारतीय
दृष्टि को तुलसी ने मानस में क्रमश: भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण और श्री राम के चरित्र के आदर्श से प्रमाणित किया है –
मुदित अवधपति
सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि
जनु पाए महिपाल
मनि क्रियन्ह सहित फल चारि । बाल. 325
मानस में इनकी
आवृत्ति अनेकश: 1. चारि पदारथ करतल तोरे (बाल 163/7), 2. करतल होहिं पदारथ चारी (बाल. ३१४/२), 3. प्रमुदित
परम पवित्र जनु पाइ पदारथ चारि (बाल. 345), 4.चारि पदारथ भरा
भंडारू (अयो. 102/4) इत्यादि हुई है।
यह भी बहुत
महत्वपूर्ण है कि कणाद के अनुसार प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान के दो प्रकार हैं
जिनमें अनुमान के अंतर्गत शब्द प्रमाण आता है जिसके अनुसार वेद सत्य के परम प्रमाण
हैं –
तद्वचनादान्मायस्य (10.2.9)
तुलसी के राम
‘वेदान्त वेद्य’ (सुंदरकांड) ही नहीं वेदों से संस्तुत्य और समाराध्य भी हैं-
जे ब्रह्म
अजमद्वैतमनुभवगम्य मन पर ध्यावहीँ
ते कहहु जानहु
नाथ हम तव सगुण जस नित गावहीँ । उत्तरकांड
धर्म के संबंध
में उनका ‘यतोभ्युदयानि: श्रेय स सिद्धि धर्म:’ अर्थात् जिससे हमारा लोक और परलोक
में अभ्युदय की सिद्धि का साधन हो वही धर्म है । धर्म इस तरह वह परम पुरुषार्थ है
जो मुक्ति के द्वार तक हमें पहुंचाता है। स्पष्ट है कि ऐसे धर्म में संकीर्णता को
कहीं कोई स्थान नहीं है । मानस में धर्म शब्द की आवृति शताधिक बार हुई है । उनके
अनुसार ‘सत्य’ ही परम धर्म है – धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना
।(अयो. 94/5) उनके अनुसार श्री राम सत्य के ही पर्याय हैं – राम सत्यब्रत धरम रत
सब कर सीलु सनेहु। (अयो. 292) स्वयाम्भव
मनु जिनकी संहिता मानव जीवन का सर्वांगीण संविधान है, स्वयं – दंपति धरम आचरण नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह के लीका । (बाल
141/2) के रूप में उनके स्वयं के जीवन आदर्श को परिभाषित करती है ।
इस प्रकार तुलसी के रामचरित मानस में हम आस्तिक षड् दर्शनों में बहिरंग और भौतिक दर्शन की आधार भूमि वैशेषिक दर्शन की विचार भूमि का सम्यक् दर्शन
ब्रह्म
अजमद्वैतमनुभवगम्य मन पर ध्यावहीँ
ते कहहु नाथ हम तव सगुण जस नित गावहीँ । उत्तरकांड
धर्म के संबंध
में उनका ‘यतोभ्युदयानि: श्रेय स सिद्धि धर्म:’ अर्थात् जिससे हमारा लोक और परलोक
में अभ्युदय की सिद्धि का साधन हो वही धर्म है । धर्म इस तरह वह परम पुरुषार्थ है
जो मुक्ति के द्वार तक हमें पहुंचाता है। स्पष्ट है कि ऐसे धर्म में संकीर्णता को
कहीं कोई स्थान नहीं है । मानस में धर्म शब्द की आवृति शताधिक बार हुई है । उनके
अनुसार ‘सत्य’ ही परम धर्म है – धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना
।(अयो. 94/5) उनके अनुसार श्री राम सत्य के ही पर्याय हैं – राम सत्यब्रत धरम रत
सब कर सीलु सनेहु। (अयो. 292) स्वयाम्भव
मनु जिनकी संहिता मानव जीवन का सर्वांगीण संविधान है, स्वयं – दंपति धरम आचरण नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह के लीका । (बाल
141/2) के रूप में उनके स्वयं के जीवन आदर्श को परिभाषित करती है ।
धर्म के संबंध में उनका ‘यतोभ्युदयानि: श्रेय स सिद्धि धर्म:’ अर्थात् जिससे हमारा लोक और परलोक में अभ्युदय की सिद्धि का साधन हो वही धर्म है । धर्म इस तरह वह परम पुरुषार्थ है जो मुक्ति के द्वार तक हमें पहुंचाता है। स्पष्ट है कि ऐसे धर्म में संकीर्णता को कहीं कोई स्थान नहीं है । मानस में धर्म शब्द की आवृति शताधिक बार हुई है । उनके अनुसार ‘सत्य’ ही परम धर्म है – धरमु न दूसर सत्य समाना । आगम निगम पुरान बखाना ।(अयो. 94/5) उनके अनुसार श्री राम सत्य के ही पर्याय हैं – राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु सनेहु। (अयो. 292) स्वयाम्भव मनु जिनकी संहिता मानव जीवन का सर्वांगीण संविधान है, स्वयं – दंपति धरम आचरण नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह के लीका । (बाल 141/2) के रूप में उनके स्वयं के जीवन आदर्श को परिभाषित करती है ।
इस प्रकार तुलसी
के रामचरित मानस में हम आस्तिक षड् दर्शनों में बहिरंग और भौतिक दर्शन की आधार
भूमि वैशेषिक दर्शन की विचार भूमि का सम्यक् दर्शन कर सकते हैं ।
प्रभुदयाल मिश्र, प्रधान संपादक