Tuesday, 6 June 2023
निर्वचन तुलसी मानस भारती माह अप्रैल 2023
निर्वचन अप्रैल 23
भारतीय ज्ञान परंपरा का प्रकर्ष श्रीरामचरित मानस
वेद, वेदांग, उपांग, उपवेद, स्मृति, इतिहास,
पुराण और दर्शन की अजस्र ज्ञान परंपरा के सनातन भारतीय कोश के यदि किसी एक
प्रतिनिधि ग्रंथ की हमें यदि पहचान करनी है तो गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरित
मानस की ओर हमारा ध्यान स्वभावत: जाता है । गीर्वाण गिरा (संस्कृत) की ओर ध्यान
जाने पर यद्यपि श्रीकृष्ण की गीता विश्व पटल पर इस दृष्टि से साधिकार
प्रतिष्ठित है, किन्तु वेद के लौकिक प्राकार के साक्षात्कार हेतु श्रीरामचरित मानस
के जन-जन के कंठहार मानने के लिए सभी प्राज्ञ और परमार्थी महानुभावों की सहमति
देखी जा सकती है । यह स्पष्ट है कि काशी के शेष सनातन गुरुकुल में पढे गोस्वामी
तुलसीदास समग्र भारतीय ज्ञान-कोश में पारंगत तो थे ही, उनके व्यक्तित्व में शील,
सौष्ठव, लोकधारा और साधुत्व की जो असाधारण प्रतिष्ठा थी, उसने उन्हें अपने इस
महाग्रन्थ के माध्यम से एक अजस्र-काल की धारा का सुमेरु ही समा देने की सामर्थ्य
प्रदान की थी ।
मानस के भरत वाक्य ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतम्’ में
तुलसी का मानस की प्रामाणिकता का उद्घोष तुलसी की विनयशीलता में जैसे एक ‘ढिठाई’ ही
थी तथा इस अपराध बोध से उन्हें ‘सुनि अघ नरकहुं नाक सकोरी’ की प्रतीति हुई थी । किन्तु
तुलसी की शास्त्रज्ञता के प्रति किसी भी अधिकारी विद्वान, मठाधीश, काव्यशात्री,
लोकनायक और सक्षम प्रवक्ता ने कभी, कहीं संदेह प्रकट नहीं किया। प्रसिद्ध है कि धर्मसम्राट
श्री करपात्री जी जब चातुर्मास काल में केवल संस्कृत में ही संवाद करते थे तब भी
वे मानस का पारायण यथाविधि करते हुए यही कहते थी कि मानस तो संपूर्णतया मंत्रात्मक
रचना है । इसलिए यहाँ यह विचार उचित प्रतीत होता है कि हम भारतीय ज्ञान-परंपरा की मानस
में विद्यमान उस शीर्ष धारा का अनुसंधान करें जो सार्वभौमिक तौर पर सभी के लिए
अवलंवनीय है ।
भारतीय ज्ञान परंपरा में वेद सर्वथा परम प्रमाण हैं ।
तुलसी ने वेद की सार्वभौमिक और सार्वकालिक प्रामाणिकता के इस संदर्भ को कभी भी
विस्मृत नहीं किया । वेद के सृष्टि के नियंता ईश्वर में अवतार लेने की सामर्थ्य इसीलिए
है क्योंकि वह इस रचना का कारण और उपादान दोनों है । यह ज्ञातव्य ही है कि अन्य
मताबलम्बियों के ईश्वर में चूंकि अवतार लेने की जब सामर्थ्य ही जब नहीं है तो वह सर्वशक्तिशाली
कैसे हो सकता है ! भगवान शिव कौशलपति श्री राम को जब समस्त संरचना और प्रलय की
सामर्थ्य से युक्त बताते हैं तो वेद का यही साक्ष्य उनकी परिदृष्टि में है –
‘जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ।‘ बालकांड 118
ऋग्वेद के पुरुष, नासदीय, हिरण्यगर्भ, अस्यवामीय;
यजुर्वेद के ईशावास्य और अथर्ववेद के स्कंभ तथा उच्छिष्ठ ब्रह्म आदि सूक्त इसी
दृष्टि के आधार हैं जिनका इतिहास और पुराणों में ‘उपब्रहमण' हुआ है तथा जो वाल्मीकि
के ‘वेदवेदांगतत्वज्ञ’ (वा.रा.1/11) तथा वेदव्यास के ‘धाम्ना स्वेन सदा निरस्त
कुहकं सत्यं परम्’ (भाग. 1/1/1) हैं । व्यास जी ने यहाँ एक और चेतावनी दी है कि
ईश्वर की इस ‘अभिज्ञ स्वराट्’ ब्रह्म की पहचान करते हुए परम प्रबुद्ध भी विमूढ़ित
हो जाते हैं- मुहयन्ति यत् सूरय:’ । यह स्वयं ब्रह्मा, शिव, सती और इंद्रादि सहित
उन षड्दर्शन शास्त्रियों के संबंध में भी सही प्रतीत होता है जो इस अगोचर सत्य को एक
देशीयता में खोजने में कभी-कभी प्रवृत्त हुए हैं । तुलसी ने स्वयं वेदों से श्री
राम की स्तुति में इसी सत्य का निदर्शन इस प्रकार किया है-
‘तव विषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे
भव पंथ भ्रमत अमिट दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ।‘
उत्तरकाण्ड 13क
यहाँ तुलसी के ‘मानस’ में छ: वेदांग - शिक्षा, कल्प,
व्याकरण, ज्योतिष, छंद और निरुक्त; उपांग-इतिहास-पुराण, धर्मशास्त्र, न्याय और
मीमांसा अथवा 4 उपवेद- धनु:, गांधर्व, आयुर्वेद तथा स्थापत्य आदि के विवरण विस्तार
में जाने का प्रसंग नहीं है । इसके अध्येताओं को यह प्रायः सुविज्ञात ही है तुलसी ने
लगभग 56 वार्णिक और मात्रिक छंदों का अपने काव्य में भाषाई सौष्ठव और रस परिपाक
सहित निर्दोष काव्यशास्त्रीय अनुशासन में प्रयोग किया है । राम रावण युद्ध में
धनुर्विद्या के प्रयोग तथा मानस रोग प्रसंग में आयुर्वेद और श्री राम के जन्म काल
में ‘जोग लगन ग्रह बार तिथि’ आदि ज्योतिषीय ज्ञान की परिपूर्णता का वे परिचय
देते हैं । इसी तरह मिथिला और अयोध्या वर्णन काल में स्थापत्य विधान का भी अद्भुद दिग्दर्शन
है। यहाँ तक कि प्रकृति से योग्य मानवीय संव्यवहार के पारिस्थितिक विज्ञान के भी
अनेक प्रसंग इसमें संदृष्टव्य हैं । पर हम यहाँ उनके कुछ ऐसे समन्वयक सूत्रों पर ही
ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं जो ज्ञान की बहुमुखी धाराओं में एकतानता स्थापित
करते हैं ।
दर्शन के सिद्धांत, मत और धारणाओं में लोक और काल में
ही नहीं, इनके इतर भी विरोध का काम करता है जिसके परिणाम स्वरूप ज्ञान की प्रकट और
परिसिद्ध परंपरा भी काल-क्रम में परिलुप्त हो जाती है । ज्ञान की परंपरा में इन द्वंद्वाभाषों
के अतिरिक्त लोक और वेद की मान्यताएँ भी संघर्ष करती हैं जिसके कारण यह धारा
अवरुद्ध प्रतीत होने लगती है । श्रीरामचरित मानस में तुलसी ने इन सब खाइयों के बीच
जिन सेतुओं का निर्माण किया है वे सर्वदा अनूठे हैं । उनकी रामकथा की सरयू के दो
किनारे ‘लोक बेद मत’ के ‘मंजुल कूल’ ( बाल. 39/6) तो हैं ही, चित्रकूट की महती
राजसभा को श्री राम का स्पष्ट परामर्श है-
‘भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।‘ अयो. 258
निगम-आगम, वैष्णव-शैव, द्वैत-अद्वैत, उपासना-ज्ञान,
सगुण-निर्गुण, साधु-असाधु, सत्-असत् माया-जीव-ब्रह्म तथा देश, काल, वर्ण, आश्रम आदि
की शास्त्रीय धारणाओं का ‘रस’ रूप ‘सार’ प्रस्तुत कर पाने की तुलसी की क्षमता असीम
है । इसलिए तुलसी के ही शब्दों में –
‘ गावत बेद पुरान अष्टदस, छओ सास्त्र सब ग्रंथन को रस
मुनि जन धन संतन को सरबस, सार अंस सम्मत सबही
की।‘
मानस है और इसकी भारतीय ज्ञान परंपरा के सार सर्वस्व
के रूप में आरती की जाना सर्वथा ही योग्य है ।
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक