बुन्देली शब्दों का व्युत्पत्ति कोष : एक अभिनव पहल
वेदज्ञ आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल द्वारा ‘बुन्देली भाषा के वैज्ञानिक विवेचन’ के पश्चात् इसके’ शब्दों के व्युत्पत्ति कोष’ का प्रणयन उनकी भाषा के सूत्र के सहारे भारतीय वाक् के मूल में प्रवेश की एक चिर अभीप्सित पहल है । इन दिनों वैदिक संस्कृत की समझ में सहायक तत्कालीन लोक जीवन और व्यवहार के उस पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन में एक विचारक वर्ग गंभीरता पूर्वक संलग्न है । विगत अनेक वर्षों तक पुरा चिन्तन से जुड़े श्री भगवान सिंह के ऋग्वेद संबंधी अनेक आलेख इस दृष्टि को दिशा देते रहे हैं । श्री भगवानसिंहजी भाषाशास्त्रीय अध्ययन
परंपरा को
सर्वथा एक
नया आयाम
देते हैं।
सितम्बर 2012 के
नया ज्ञानोदय
के अंक
मे उन्होंने इस
दिशा से संबन्धित तीन
सूत्र इस
प्रकार दिये
गए हैं-
1. हमारी
लोकभाषाएं संस्कृत
से नहीं
निकली हैं
। वे
तो वैदिक
भाषा से
भी पुरानी
हैं।
2 .वे संस्कृत
से अधिक
समृद्धध हैं।
3.सभी बोलियाँ अनगिनत
बोलियों के
बिपाक से
बनी हैं.
श्री भगवानसिंहजी
की स्थापना
है कि
वेदों के
काल मे
पहुँचने के
लिए वेदों
की भाषा
को उसके
मूल में पहचानना आवश्यक है।
इसके लिए
एक तो
संस्कृत भाषा
का मार्ग
है और
एक मार्ग
है जन
भाषा का।
विद्वान् विचारक के मत
में जन भाषा के
अध्ययन द्वारा
हम वेद
की भाषा
ही नहीं,
वेद के
मूल तक
भी पहुँच
सकते हैं।
यह स्थापना
अभिनव और
विचारोत्तेजक है
। वहीं
इसकी जोखिम
को भी
समझना उचित
होगा। प्रश्न
यह है
कि क्या
जनभाषा, बोलियाँ
एक व्याकरण
सम्मत विशालकाय
साहित्य संरचना
के सागर
को प्रभावित
कर सकती हैं? क्या बोलचाल
और साहित्य
की भाषाओं
के भेद
को लेकर
चलना साहित्य,
भाषाशास्त्र और
सांस्कृतिक आरोह
के सिद्धान्त
के अनुरूप
है? आखिर
भाषा का
धातु रूप
बोलियों पर
आश्रित है
अथवा बोलियाँ
कालांतर में
भाषा के
समानान्तर ही
इसका संज्ञा,
क्रिया, विशेषण
आदि के
रूप में
विस्तार करने
में स्वतः
समर्थ हो जाती
हैं ?
प्राचीन साहित्य
मे इस
प्रकार की
दो प्रकार
की भाषा
प्रयोग के
अनेक उदाहरण
विद्यमान हैं।
वाल्मीकि रामायण
में ही हनुमान अपना
संवाद जिस
भाषा में राम से
पहली वार
करते हैं
उस पर
राम उन्हें
संस्कृतनिष्ठ होने
का प्रमाण
पत्र देते
हैं। मध्य
युग की रचनाओं, विशेषकर
कालिदास, भवभूति
आदि के
नाटकों में सुशिक्षित और
कम शिक्षित
पात्र क्रमशः
संस्कृत और
प्राकृत का
प्रयोग करते
हैं। यदि
यह भी
स्वीकार कर
लिया जाए
कि लोकभाषा
संस्कारित भाषा
को प्रभावित
करती है
तो साहित्य
की भाषा
की उस
पर ऐसी
निर्भरता और
उसके उत्स
कि कुंजी
या माध्यम
मान लेना
सामान्यतः कठिन प्रतीत होता
है। विशेषकर
संस्कृत की
अपनी प्रकट
समृद्धि, संभावना और
व्याकरण की
अनुशासनबद्धता ही
इसे इतने
अपार साहित्य
सृजन के
क्षमता प्रदान
करती प्रतीत
होती है।
अत: यह स्वभाविक ही है कि आचार्य शुक्ल ने बुन्देली भाषा का मूल संस्कृत धातुओं, ध्वनि परिवर्तन, निर्वचन,सन्धि ऊष्मीकरण, अनुनासिकीकरण, घोषी-अघोषीकरण, अल्प- महाप्राणीकरण, अभिस्वीकृति और अपस्वीकृति आदि पर आधारित किया है ।
अभी
कुछ समय पूर्व ही राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, भोपाल परिसर ने लगभग ११००० बुन्देली
शब्दों का एक कोष प्रकाशित किया है. अब संस्थान् की केन्द्रीय सहायता से प्रकाशित होने वाला यह
‘बुन्देली शब्दों का व्युत्पत्ति कोष’ महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम् द्वारा प्रकाश में लाया जा रहा है.
इसकी यद्यपि शब्द संख्या सीमित (लगभग १५०० ) है, किन्तु इसकी अपनी अनेक विशेषताएं
हैं. यह अपने आप में चकित करने वाली बात है कि विद्वान् आचार्य शुक्ल ने अपने इस कोष के प्रत्येक बुन्देली शब्द
को वैदिक काल से लेकर वर्तमान तक की अखिल भारतीय परम्परा और संस्कृति की धारा में
पूर्ण वेग से परिप्रवाहित देखा है. वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, पाणिनि, पतंजलि, काशकृत्स्न,
यास्क और संस्कृत कवि कालिदास आदि से लेकर वर्तमान तक की विकास यात्रा में यदि
मानव पीढ़ी ने अनेक हिचकोले खाए हैं तो हमारा शब्द भी समय की आंच में तपकर कुंदन की
तरह उभरा है. बुन्देली के ‘सपरबो’ शब्द का उद्भव संस्कृत के ‘सपर्या’ से स्थापित करते हुए कोशकार कहता
है-
‘
यहाँ बड़ी दूर की कौड़ी लाई गयी है. लक्षणा शक्ति का प्रयोग है. पूजा के लिए स्नान
पहले आवश्यक है. ‘सपर्या’ (पूजा) संपन्न करने के पूर्व आवश्यक रूप से स्नान की
क्रिया संपन्न करनी होती है. अतः ‘सपर्या’ के संकेतित अर्थ में स्नान भी आवश्यक
रूप से विहित था. यही अर्थ बुन्देली ने ले लिया. पूजा गायब हो गयी, अकेला स्नान बच
रहा है. अर्थापकर्ष की घटना शब्द के संसार में घट गयी.’
आज
हिन्दी भाषा की राष्ट्रभाषा के रूपमें प्रतिष्ठा में दक्षिण के कुछ राज्यों की
क्षेत्रीयता वाधा उत्पन्न करती है. किन्तु यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि इस व्युत्पत्ति
कोष में विद्वान् लेखक ने लगभग ७५ प्रतिशत शब्दों
की व्युत्पत्ति में कर्नाटक के काशकृत्ष्ण और उनके टीकाकार कर्नाटक के
प्रसिद्ध कवि चन्नवीर का आधार लिया है.
आचार्य
शुक्ल की स्थापना की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने इस कोष में ऐसे
अनेक बुन्देली के शब्दों की खोज की है जो आज भी शुद्ध तत्सम और वेद कालीन स्वरूप
में यथावत विद्यमान हैं जबकि उनके समानार्थी हिन्दी के शब्द तद्भव रूप में व्यवहृत
हो रहे हैं. इससे बुन्देली भाषा की प्राचीनता तो प्रतिपादित होती ही है, यह सत्य
भी प्रमाणित होता है कि भाषा की स्वयं की सत्ता अपरिसीम है तथा उसे इतिहास, भूगोल, समाज, राज्य या
सम्प्रदाय की हथकड़ियाँ और सीमाएं कभी स्वीकार नहीं रही हैं.
‘वैश्य’
शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लेखक ने वैदिक ‘शब्द’ वणिक को आधार माना है . इसी सन्दर्भ में यास्क द्वारा
‘पणि’ को ‘वणिक का आधार
मानने पर पाणिनि और काशकृत्श्न के आधार पर धातु व्यवहार का अर्थ लेते हुए उसने अपना
यह रोचक विश्लेषण भी दिया है-
‘ मूल में वणिक शब्द
एकार्थी था. पर बाद में बनिया होते ही वह अनेकार्थी हो गया. बनियां का एक अर्थ हो
गया कंजूस. बनियां व्यापारी तो है ही, अतः साहचर्य के कारण उसके गुणों को भी बनियां
पर आरोपित कर दिया गया.’
पुस्तक में लेखक ने
प्रत्येक शब्द के बुन्देली व्यवहार के जो उदाहरण दिए हैं वे अपनी रोचकता और पुनर्रचना
क्षमता में इतने अनूठे हैं कि यदि उन्हें क्रमानुसार गल्प बद्ध कर दिया जाय तो यह
पुस्तक एक सशक्त आंचलिक उपन्यास की भी
जन्मदात्री बन सकती है. विशेषकर, लेखक ने ‘माते’, ‘बब्बा’, ‘कक्का’, ‘छोटी बहू’
आदि पात्रों को जो संवेदना की अतल गहराई प्रदान की है, वह इन्हें पूर्ण जीवंत बना देती
है. स्वाभाविक रूप से कोई भी पाठक इनकी सजीवता देखकर इन्हें इतिहास के गर्भ से
उठाकर काल की अजस्रता में अवश्य ही प्रतिष्ठित कर देना चाहेगा.
महर्षि अगस्त्य वैदिक
संस्थानम् के संस्थापक वरिष्ठ और संस्थापक सदस्य आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल के इस
अभिनव अभिदाय के लिए संस्थानम् उनकी अखंड भारतीय सांस्कृतिक परम्परा की संपोषणकारी
क्षमता की सराहना करता है तथा इसके प्रकाशन का दायित्व संस्थानम् को सौंपने के
लिये उनके प्रति आभार प्रकट करता है.
संस्थानम् राष्ट्रिय
संस्कृत संस्थान् नई दिल्ली, विशेषकर उसके कुलपति प्रो. परमेशवर नारायण शास्त्री
के प्रति भी आभार मानता है कि संस्थान ने पुस्तक प्रकाशन हेतु योग्य आर्थिक सहायता
की स्वीकृति देकर इस प्रबंध को विद्वत् जनों और शोधार्थियों को शीघ्रतर उपलब्ध करा
सकने के योग्य बनाया.
प्रभुदयाल मिश्र
अध्यक्ष, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्, भोपाल मध्य
प्रदेश