Wednesday, 26 November 2014
Saturday, 1 November 2014
पुस्तक समीक्षायें
समीक्षा
पत्थर की परत उघारते हुए
प्रभुदयाल मिश्र
श्री हरिविष्णु अवस्थी की समीक्ष्य पुस्तक ‘बुंदेलखंड के शिलालेख’ के हस्तगत मैं अपनी ‘स्वीकृतियों के शिलालेख’ शीर्षक वाली एक पुरानी कविता की निम्न पंक्तियाँ बड़ी सिद्दत से याद करता हूँ-
‘स्मारकों में बंद/ अब भी हैं खिलाफ
शेष स्वीकृतियों के संस्करण और’
अर्थात् हमारी इतिहास की खोज एक तरह से सदा अधूरी ही रहने वाली है. जैसे कुछ और, कुछ और पाने की तलाश सदा बनी ही रहेगी बावजूद इतने अनुसंधान और इतिहास लेखन के. ऐसा नहीं है कि हमारे इतिहास-पुरुष इस दिशा में स्वयं सचेष्ट नहीं रहे किन्तु अपने सीमित साधनों और अपने चिरजीवी बनने की उनकी चाह कुछ ऐसी रिक्तियां जरूर छोड़ जाती है जिसे आज की कुशल और पारदर्शी दृष्टि ही किसी तटस्थता से समाकलित कर सकती है.
श्री हरिविष्णु अवस्थी में इसके लिए जहां अपना सम्यक इतिहासबोध है वहीं उनमें शोधार्थी की गहरी पहल और चेष्टा भी विद्यमान है. यह स्वाभाविक ही है कि इसके लए उन्होंने बुन्देलखंड के उस कालखंड को चुना है जो इस क्षेत्र का स्वर्णयुग तो है ही, सम्पूर्ण भारत के इतिहास का भी वह ऐसा अविस्मरणीय अध्याय है जिसकी भित्ति पर हमारा वर्तमान टिका है. भारतीय इतिहास के इस मध्ययुग ने दुर्धर्ष काल की उस शिलाखंड पर यहाँ कदम रखा था जो अपनी वक्रता में एक परीक्षक की तरह बेरहम भी था.
पृथिवीराज चौहान ने (११८२ ई.) में जिस चंदेल राजा पर्मार्दिदेव (राजा परमाल) विन्ध्येला (बुन्देला) पर आक्रमण किया अंततः वह वंश गढ़कुडार के मार्ग सन् १५३१ में ओरछा राज्य का संस्थापक हुआ. इसके ओरछेश वीरसिंह देव प्रथम (१६०५-२७ ई.) बुन्देला वास्तुकला के जनक हैं. पुस्तक में अडजार, ओरछा, कारी, टीकमगढ़, प्रथिवीपुर, बल्देवगढ़, बौरी, शिवपुरी (कुण्डेश्वर), हीरानगर आदि के जो शिलालेख वर्णित हैं प्रायः वे सभी इस राजवंश की कीर्तिगाथा के आलेख हैं. इनसे इतिहास के साथ-साथ उस युग के समाज, संस्कृति, साहित्य और कला की जीवन से अन्तरंगता का अद्भुत तालमेल द्रष्टिगोचर होता है.
पुस्तक की मूल परिकल्पना के अनुसार ‘बुंदेलखंड के शिलालेख’ संग्रह का यह ‘भाग- एक’ (विक्रम संवत १०११ से २०१२) ओरछा भूभाग से सम्बंधित है. बुंदेलखंड के अंतर्गत उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के क्रमशः - झांसी, बांदा, चित्रकूट, ललितपुर, उरई, हमीरपुर, महोबा, राठ तथा दतिया. टीकमगढ़, सागर, दमोह, छतरपुर और नरसिंहपुर, शिवपुरी आदि जिले आते हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे भाग में लेखक उस बृहत्तर बुंदेलखंड को समाविष्ट करेगा जो ‘इत चम्बल उत नर्मदा’ और तमसा नदी के विशाल भूभाग में मध्य प्रदेश सहित उत्तर प्रदेश के उक्त जिलों को समेटता है. अतः अपनी वर्तमान एक सीमा में ही सही यह पुस्तक विराट भारतीयता के परिप्रेक्ष में जो गवाक्ष खोलती है वह आलोक का ऐसा आमंत्रण है जो इतिहास के पुनर्लेखन की ओर शोधार्थियों को प्रेरित करता है.
पपौरा के शिलालेख (आसाढ १० बुधवार वि. संवत १२०२) में इस उल्लेख कि ‘भोपाल नगर वासीक गोपालपूर्वान्वये साहु टुडा सुत साहु गोपाल तस्य भार्या माहरिणी सुत साहु प्रशामंति नित्यं जिनेश चरणारविन्द पुण्य प्रतिष्ठायाम’ पर टिप्पणी करते हुए लेखक का कहना है- ‘इस क्षेत्र की प्रसिद्धि उस समय जब आवागमन के साधनों का लगभग अभाव सा था, भोपाल तक होना इस स्थान के महत्व को प्रतिपादित करता है.’ (प्रष्ट ६१)
‘माडूमर के वि.सं. १४५० के शिलालेख में मूलचंद की पुत्रवधू कच्छी के सती होने तथा इसके लगभग २५ किलोमीटर दूर ग्राम बर्माडांग के शिलालेख (वि. सं. १४६६ ) में पति की वीरगति पर सती का शिलालेख उस इतिहास का स्मरण कराता है जिसे लेखक ने इस शोध परक टिप्पणी के साथ उजागर किया है-
‘ज्ञातव्य है कि वि. सं. १४४७ में नसीरुद्दीन सुलतान बना था. इसके राज्य में अराजकता फैल गयी थी. मालवा का सूबेदार दिलावर खान गौरी स्वतंत्र हो गया था तथा उसने चंदेरी पर चढाई कर बुंदेलखंड के दक्षिणी और पश्चिमी भाग पर अधिकार कर लिया था. सुलतान मुहम्मद देहली सुलतान अलाउद्दीन का पिता था.’ (प्रष्ट ७९)
ग्राम बर्माडांग संयोगतः मेरा जन्म ग्राम है . गाँव में इस शिलामूर्ति को 'छोटी महामाई' कहा जाता था । ये दुर्गा मंदिर से करीब एकफ़र्लांग की दूरी पर एक पेड़ के नीचे स्थापित थीं । गांव में एक प्रकार से बँटवारा था - बड़ी माता उच्च और छोटी माता निम्न वर्ग के लिये ! शायद छोटी माता को प्राकृतिक प्रकोप जैसे चेतक आदि का भी हेतु माना जाता था । इसीलिये जब बड़े दाउजू के छोटे बेटे बूँठे का ७-८ साल की उम्र में क़रीब साठ साल पूर्व 'देवीजी' के कारण निधन हो गया तो बडेदाउजू ने छोटी देवी के अनेक शिला खंडों को अपने क्षात्र क्रोध में आकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया । यह प्रस्तर खंड शायद उनके सव्वल से नहीं टूटा । कुछ समय पहले ही गाँव वालों ने छोटी देवी को जब बड़ी देवी के पास पधराया तो पुरातत्वविद अवस्थी जी की दृष्टि पड़ी । उसका परिणाम यह सबके सामनेहै ।
इस पुस्तक को पढते और सुविज्ञ मित्रों से बात करते हुए कुछ अन्य बातों की ओर भी ध्यान जाता है. यह तो स्पष्ट है ही कि इस पुस्तक के अध्याय मुख्य रूप से वर्तमान जिला टीकमगढ़ और सामायन्तः ओरछा राज्य की सीमा का ही संस्स्पर्श करते हैं. किन्तु इस क्षेत्र में भी जैसे कुछ और पड़ताल शेष रह जाती है. ओरछा राज्य के दीवान मुस्लिम रहे हैं. इनके द्वारा मकबरों में ‘कुतवा’ शिलालेख तो हैं ही, वे प्रकारांतर से अपने समय और समाज की यथातथ्य बयानी करते हैं. उदाहरण के लिए दीवान वजीरुद्दौला का अल्प आयु में मृत पुत्र के लिए टीकमगढ़ ईदगाह की मजार में लिखा यह शेर-
‘फूल तो वो दो दिन के हैं जो खिले और मुरझा गए
हसरत उन गुन्चुओं की जो बिना खिले मुरझा गए .’
लेखक ने पुस्तक प्रष्ट ५३ पर ईदगाह मस्जिद के १२०५ हिजरी के एक शिलालेख को उद्धृत भी किया है किन्तु उर्दू हिन्दी के घालमेल से इसका आशय अस्पष्ट रह जाता है. लगता है यह प्रूफ में यथेष्ट त्रुटि सुधार न हो सकने से हुआ है.
इस संग्रह की सबसे बडी उपयोगिता मुझे भाषा की दृष्टि से समझ आती है. देवनागरी लिपि में संस्कृत से आरम्भ होकर, ब्रज-बुन्देली मिश्रित कविता और मुग़ल बादशाहों की उर्दू-फारसी से अविभूत हमारी आज की खड़ी बोली जैसे यहाँ अपना स्वरूप निर्धारित कर रही है. जिस भूभाग ने केशव जैसा महाकवि, तानसेन जैसा संगीतज्ञ, राय प्रवीण जैसी नृत्यांगना और महाभारत से भी वृहत्तर धर्मशास्त्र ‘वीरमित्रोदय’ के रचयिता मित्र मिश्र जैसा शास्त्रज्ञ दिया हो, उसकी साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत को अनेक अतल गहराइयों से निकालने की आवश्यकता अभी शेष है. यहाँ इस पुस्तक से एक यह उदाहरण द्रष्टव्य है-
‘ महाराजा विक्रमाजीत सिंह (ई. १७७६-१८१७) जिन्हें विक्रमादित्य सिंह कहा जाता है, परम धार्मिक प्रकृति के थे. वे कवि भी थे और ‘लघुजन’ उपनाम से काव्य सृजन करते थे. नित्य प्रति जब वे अपने आराध्य की सेवा पूजा करने हेतु बैठते थे तो एक नये स्तुति भाव से परिपूर्ण छंद अपने आराध्य को सुनाया करते थे.
‘ आपने ‘लघु सतसई’, ‘माधव लीला’, ‘स्फुट पदावली’ नामक काव्य ग्रंथों की रचना की. ‘लघु सतसई’ में ७२० दोहे हैं जिनमें से कितने ही दोहे कविवर बिहारी की ‘सतसई’ से टक्कर लेते हैं. ‘माधव लीला’ में राधा माधव की लीलाओं का वर्णन है. स्फुट पदावली में आपके उन पदों का संग्रह है जो आप नित्य नए रचकर अपने आराध्य को पूजा के समय सुनाया करते थे.’ (प्रष्ट ६२ )
मरुभूमि शोध संस्थान, राजस्थान ने पुस्तक प्रकाशन बड़ी सुरुचि पूर्वक अपनी अनुभव सिद्ध कला-कूची से अभिसिंचित कर किया है. शिलालेखों में प्रयुक्त संस्कृत, हिन्दी, बुन्देली, प्राकृत, उर्दू और फारसी की शब्दावली को यथारूप मुद्रित कर उसके मूलभाव को हिन्दी में प्रकट करते हुए कुछ प्रूफ संबंधी त्रुटियों का शेष रह जाना स्वाभाविक और सामान्य बात है. आशा है इन पर लेखक और प्रकाशक दोनों की दृष्टि जायेगी और वे अगले संस्करण में आवश्यक सुधार कर लेंगे.
लेखक श्री हरिविष्णुजी अवस्थी को भारतीय कला और संस्कृति के लिए उनके इस उत्कट अवदान के लिए भूरिशः बधाई.
३५, ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, कोलार रोड, भोपाल १६
कृति – बुंदेलखंड के शिलालेख
कृतिकार- हरिविष्णु अवस्थी
प्रकाशक- मरुभूमि शोध संस्थान, डूगरगढ़, राजस्थान
मूल्य – दो सौ रुपए
समीक्षा
रामकथा की रस- मंदाकिनी
प्रभुदयाल मिश्र
डा. रामसनेहीलाल यादव की ‘रामकथा मंदाकिनी’ रामकथा से सम्बंधित २१ ऐसे आलेखों का संकलन है जो ‘रामकाव्य की अर्थवत्ता’ और ‘मूल्यवत्ता’ की गहरी पड़ताल करती है. इसमें सार्वकालिक मानवीय जीवन के परिप्रेक्ष्यगत ऐसे कथा और कथ्यों को छुआ गया है जिनका सामना प्रायः प्रत्येक पाठक और आस्तिक मन रामकथा में गोते लगाता हुआ करता रहता है . उदाहरणार्थ रामचरितमानस में ‘यायावरी’, ‘जन्तान्त्रिक मूल्य’, ‘जनतांत्रिक संस्थाएं’, ‘सांस्कृतिक क्रान्ति के अग्रदूत ऋषिगण’, ‘मानवेतर प्राणी’, ‘दंडकारान्य’, ‘न्यायपालिका’, ‘गर्हित नारी पात्र’, ‘गुप्तचरी’, ‘नभचर’, ‘जल और जलचर’ आदि. ये सभी विषय एक पृथक शोध कार्य का परिपूर्ण विषय बन सकते हैं. इस अर्थ में अनेक शोधार्थियों के मार्गदर्शन और दृष्टिबोध में सहायता करेंगे.
इसी तरह कुछ अन्य विषय तुलनात्मक दृष्टि को आधार बनाकर लिए गए हैं जैसे- ‘आरण्य कांड: मानस और कम्ब रामायण के सन्दर्भ में’, भक्ति का द्रविड़ सबंध, ‘तुलसी पूर्व राम साहित्य’, रीतिकाल के रामभक्त, सेनापति की रामभक्ति, गुरुगोबिन्दसिंह के राम, ‘सहजराम और रघुवंश दीपक’, ‘पवन तनयबल पवन समाना’, ‘पुरुष सिंह दोउ वीर’, आदि. ये विषय जहां अन्ततः मूल रामकथा की आधार भूमिका प्रतिपादन के लिए महत्वपूर्ण हैं वहीं इनकी भी शोधार्थियों को सामान उपयोगिता है.
जहां तक इन विषयों की ‘अर्थवत्ता’ का प्रश्न है, वह स्वतः सिद्ध है. मानस या रामकथा का सन्दर्भ आने पर यह सोच सदा पहला रहता है कि इस कथा का हमारे वर्तमान जीवन से क्या सम्बन्ध है? क्या इससे हमारा वर्तमान सुधर सकता है? क्या इससे समाज को नई दिशा मिलेगी? क्या इसमें उन समस्यायों का निदान उपलब्ध है जो हमारे लिए अत्यंत ज्वलंत हैं? मैं समझता हूँ कि लेखक इन सभी प्रश्नों के प्रति अत्यंत जागरूक है.
लेखक बहुपठित और बहुश्रुत है. उसने अपने आलेखों में संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं के बहुशः सन्दर्भ दिए हैं. यह स्वागतेय कृति सर्वदा आलोडन किये जाने योग्य है .
कृति – रामकथा मंदाकिनी
कृतिकार- डा. रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’
प्रकाशक- शिवांक प्रकाशन , नईदिल्ली
मूल्य- ५९५/
दोहों में रामकथा- पात्र
डा. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ की ‘रामकथा पात्रामृतम्’ एक कविता पुस्तक है जिसमें रामकथा के पात्र (और स्थल) –मैनाक, अशोक वाटिका, नन्दीग्राम, बालि, मातलि, सुषेण, माल्यवान, ताड़का-मारीच, खर-दूषण-त्रिसिरा, कबंध, विराध, त्रिजटा, सुलोचना, रत्नावली और श्रवणकुमार लिए गए हैं. डा. रमानाथ त्रिपाठी के शब्दों में-
‘ इन दोहों में जिस पात्र का वर्णन है उसकी मुख्य विशेषता तो स्पष्ट होती ही है उसमें जुड़े प्रसंग भी सांकेतिक शैली में उभरकर मनः चक्षुओं के समक्ष साकार हो जाते हैं. लेखक ने पात्रों के मनोभावों के रूप में भी कही-कहीं प्रस्तुत किया है या मनोभावों का मानवीकरण किया है.’
उदाहरणार्थ लक्ष्मण का चरित्र चित्रण –
‘सदा सिया के चरण पर झुकी पलक की कोर
किन्तु बाण की नोक है मेघनाद की ओर’
वस्तुतः यह कृति एक भक्त के समर्पण का अर्घ्य है. इसकी साहित्यिकता और कलात्मक संसृष्टि इसकी उपोत्पत्ति है जो तुलसी के शब्दों में
‘राम निकाई रावरी है सभी को नीक
जो यह सांची है सदा तो नीको तुलसीक’ (बाल. २९)
अर्थात् जहां राम की श्रेष्ठता ही दांव पर आ जाए तो अन्य कसी पक्ष की विचारणीयता शेष और आवश्यक नहीं रह जी ! अस्तु ‘ धन्यास्ते कृतिनः पिवन्ति सततं श्री रामनामामृतम्’
कृति- रामकथा पात्रामृतम्
कृतिकार- डा. रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’
प्रकाशक- शिवांक प्रकाशन, अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली
मूल्य – ५९५/
३५, ईडन गार्डन चूनाभट्टी, कोलार रोड, भोपाल १६
समीक्षा
बुंदेलखंड का अंतर्साक्ष्य
प्रभुदयाल मिश्र
जिस प्रकार आत्मसाक्षात्कार, स्वयं की इयत्ता अथवा अपनी क्रांतिकारिता में कभी कबीर ने काशी को छोड़ मगही में अंतिम संस्कार की कामना की थी ठीक उसी प्रकार बुंदेलखंड के प्रसिद्ध लोक सिद्ध कवि ईसुरी ने भी कहा –
‘गंगा जी लों मरे ईसुरी दाग बगौरा दीजो’
अर्थात ‘मेरी मृत्यु भले ही गंगा तट पर हो किन्तु मेरा अंतिम संस्कार मेरे जन्म स्थान बगौरा (बुंदेलखंड) में ही किया जाय .’
यह स्वाभाविक ही है कि प्रख्यात समीक्षक- साहित्यकार डा. गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैयाँ अपनी मिट्टी के ऋण को बखूबी समझते हैं. उनकी सद्य संसृष्टि ‘बुंदेलखंड का साहित्यिक एवं सान्स्कृतिक परिदृश्य इसी संदृष्टि का परिचय देती है.
सबसे पहले इस कृति के शीर्षक से ध्वनित संकेत पर ही विचार कर चलते हैं. इस कुछ बड़े से नाम-धाम को लेकर यह संकेत लेना उचित नहीं होगा कि यह बुंदेलखंड- समग्र- संधान है. जैसाकि कृति के अनुशीलन से प्रकट होता है , यह प्रधानतया लेखक के समय-समय पर लिखे आलेखों, शोध सन्दर्भों का एक सुचिंतित संग्रह है. यूं तो इसमें बुदेलखंड के इतिहास, भूगोल, समाज, कला और लोक जीवन की झांकी भी विद्यमान देखी जा सकती है किन्तु यह कोई इस भूखंड के सम्पूर्ण साहित्य और संस्कृति का समाहार नहीं है. मैं इस प्रकार स्वयं भी अपने इस संशय का समाधान कर चल रहा हूँ कि इसमें मैथिलीशरण और सियाराम शरण गुप्त हैं तो तुलसी क्यों नहीं हैं और केशव हैं तो उनके राजदरबार (हरदौल, राय प्रवीण सहित) की झलक क्योंकर नहीं है.
यह एक विडम्बना ही है कि एक हजार वर्ष से भी अधिक पुरातन भारतीय सनातन और लोक संस्कृति का प्रतिनिधि परिक्षेत्र इतिहास, साहित्य, कला और संस्कृति के पहरेदारों की इतनी बड़ी उपेक्षा का शिकार बना रहा. स्वयं इस समीक्ष्य कृति के लेखक श्री बरसैंयां जी ने अनेक रचनाकारों (उदाहरणार्थ तुलसी के समकालीन विक्रम कवि पुस्तक प्रष्ठ ४१) की खोज की है जिन्होंने अनेक उत्कृष्ट कविता साहित्य का संसर्जन किया. जगनिक के आल्हा के साहित्यिक प्रमाणांकन और दीवान प्रतिपालसिंह के १२ खण्डों के बुंदेलखंड के इतिहास की जानकारी भी ऐसा ही दुर्लभ कोटि का अभिदाय है जिसके लिए लेखक अनेकशः साधुवाद का पात्र है.
पुस्तक के अध्यायों को अनुशीलन की दृष्टि से निम्न पांच श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
१, बुंदेलखंड का लोक साहित्य और इतिहास – इस शीर्षक के अंतर्गत मुख्यरूप से निम्न दो अध्याय रखे जा सकते हैं- १. आल्हागाथा के रचयिता कवि जगनिक और परमाल रासो २. लोक ईसुरी का धार्मिक एवं दार्शनिक चिंतन. आल्हागाथा बुंदेलखंड के लोक जीवन में इतनी भीतर तक पैठ करती है कि यदि उसे भुलाया जाता है तो इस क्षेत्र की सही पहचान असंभव है. किन्तु इतिहास और साहित्य दोनों ने इसकी उपेक्षा की है. इतिहासकार इसे अतिरंजित लोक कल्पना कहते हैं तो साहित्यकार के लिए कवि जगनिक की प्रमाणिकता का प्रश्न शेष रहता है. डा. बरसैंया जी ने अपने अध्ययन और शोध के आधार पर इसकी एतिहासिकता और साहित्यिक पुनर्मूल्यांकन कर अपनी क्षमता का सदुपयोग तो किया ही है, अपनी जन्मभूमि का भी ऋण चुकाया है. वस्तुतः पृथिवीराज रासो और आल्हाखंड दोनों का इतिहास और साहित्य में महत्व समान ठहरता है तथा यदि इसकी पूर्व में उपेक्षा हुई है तो अब समय की धारा इस अन्याय का प्रतिकार भी करे.
इसी शीर्षक में ईसुरी को उनकी लोक- संवेदना के संस्पर्श की क्षमता के कारण रखा गया है. जैसा कि लेखक ने भी प्रतिपादित किया है, ईसुरी अपने दर्शन में कबीर और तुलसी तथा भक्तिरस में सूरदास से तुलना किये जाने योग्य हैं. उनके द्वारा शरीर को ‘किराए के मकान’ की संज्ञा देना जितना मौलिक है उससे अधिक उसकी वह सनातन भारतीय दार्शनिकता है जो उसे जीवन के मिथ्यात्व से परिचित कराती है. लेखक के अनुसार-
‘ ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या’ सूत्र की पुष्टि इन पंक्तियों ( बखरी रैयत है भारे की, दई पिया प्यारे की ) से होती है. माता-पिता, भाई-बंधु, बेटा-बेटी-पत्नी, धन-दौलत कुछ भी और कोई भी साथ जाने वाला नहीं है....इस संसार से पार लगानेवाला केवल ईश्वर है.’ (प्रष्ट ६७)
२. बुन्देली साहित्य का इतिहास – इस शीर्षक के अंतर्गत तीन अध्याय लिए जा सकते हैं-१ बुन्देली के प्रमुख प्राचीन कवि २. बुन्देली का प्राचीन साहित्य और इतिहास ३ . बुन्देली के रचनाकार ग्रन्थ : बुन्देली रचनाकारों का विश्वकोश. इस प्रसंग में लेखक ने अपने मूल प्रबंध ‘बुंदेलखंड के अज्ञात रचनाकार’ का उल्लेख कर यह प्रकट कर दिया है कि इस दिशा में उसका अपना मूल अभिदाय कितना है. यहाँ यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि बुंदेलखंड में साहित्य सृजन केवल बुन्देली भाषा में ही नहीं खड़ी बोली में भी प्रचुर पैमाने में हुआ है तथा वह अपनी रचनाशीलता, गति और परिमाण के आधार पर हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान प्राप्त करने की क्षमता रखता है.
३. बुंदेलखंड का इतिहास – १. दीवान प्रतिपाल सिंह और उनका बुंदेलखंड का इतिहास. लेखक के अनुसार- ’९० वर्ष पूर्व इतिहास का लिखा जाना जितनी बड़ी ऐतिहासिक घटना थी अब सन् २०१० में उसका समग्र प्रकाशन भी उतनी ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है’. (प्रष्ट ५२ )
४. बुन्देली का लोक साहित्य – साहित्य के विद्यार्थी यह प्रश्न उठा सकते हैं कि लोक गीत, लोक व्यंग्य और लोक गाथा में कितना साहित्य है. इसके लिए उन्हें इस पुस्तक के इन तीन अध्यायों - १. लोककवि ईसुरी की फागों में सराबोर राधा-कृष्ण २. बुन्देली गीतों में रामकथा ३. बुन्देली कविता में व्यंग्य. को पढ़ना चाहिए. वास्तव में ईसुरी की सामर्थ्य अपार है. यहाँ इस पुस्तक से एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा-
‘मनुआ को सम्मन है आयो, बूडे बार दिखायो
दूजो सम्मन है जवानगी, दांत हिलत जब पायो
तीजो सम्मन लाठी लेके, कम्मर दर्द करायो
कात ईसुरी तऊ न चेते, सोई वारंट पठायो’ (प्रष्ट ६८)
यह एक चमत्कार ही है कि लोक जीवनी भी प्रशाकीय शब्दावली को इतना पैना कर जीवन-सन्देश में ढाल सकती है!
५. क्षेत्रीय पुरातत्व और सांस्कृतिक समाहार – इस श्रेणी में १. डोलते-बोलते पाषाण –खजुराहो २. अहार और खजुराहो के मंदिरों में गहोहियों का योगदान ३. क्या गहोई और जैन कभी एक थे? आयेंगे. खजुराहो पर कला, संस्कृति, इतिहास, तंत्र और सौंदर्य आदि अनेक दृष्टियों से बहुत लिखा गया है. इस पुस्तक के लेखक द्वारा प्रस्तुत एक झांकी बहुधा द्रष्टव्य है-
‘ विविध मुद्राओं वाली अलौकिक नर्तकियां देवताओं की अनुचरियों के रूप में अंजलि में पद्म, दर्पण, घट, वस्त्रालंकार, आदि भेंट लिए अपने को विवस्त्र करती, अंगड़ाई लेती, प्रष्ट भाग को नखों से खरोंचती, पयोधरों का स्पर्श करती, बहती वेणी से जल निचोड़ती, पैरों से काँटा निकलवाती, पालित पशु पक्षी से क्रीडा करती, पत्र लिखती, वीणा अथवा बंशी बजाती, दीवार पर चित्रांकन करती, पैरों में महावर रचाती, नूपुर बंधवाती,नेत्रों में सुरमा अथा काजल लगाती, कंदुक क्रीडा करती कमनीय और संपुष्ट युवतियों का चित्रांकन देखते ही बनता है.’ (प्रष्ट ९७)
६. परिशिष्ट – १. मैथिलीशरण गुप्त और उनकी ‘भारत भारती’ २. श्री सियारामशरण गुप्त . इन दो आलेखों को मैंने इसलिए परिशिष्ट भाग माना है क्योंकि ये दोनों कवि बंधु मूलतः खड़ी बोली के साहित्य सिद्ध कवि हैं. क्षेत्र की दृष्टि से इनका चयन करते हुए क्या बाबू वृंदावनलाल वर्मा तथा विजावर के कविराज बिहारीलाल का स्मरण योग्य न होता ? किन्तु यह भी स्पष्ट ही है कि यह कोई प्रबंध ग्रन्थ नहीं है.
पुस्तक में कुछ पुनरावृत्तियाँ और मुद्रण त्रुटियाँ अवश्य शेष रह गयी हैं जिनका आगामी संस्करण में परिष्कार कर लेना उचित होगा.
पुस्तक शोध, इतिहास दर्शन और हिन्दी साहित्य में बुन्देलखंड अंचल के उचित समाहार की दृष्टि से अपरिहार्य है. ३५ ईडन गार्डन, कोलार रोड भोपाल १६
कृति- बुंदेलखंड का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य
कृतिकार- डा. गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैंया
प्रकाशन- सन्दर्भ प्रकाशन, अलोपीबाग, इलाहाबाद
मूल्य- रुपए- २५०/ मात्र
ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना
ज्ञान मोक्षप्रद वेद वखाना
प्रभुदयाल मिश्र
मानस के आरण्यकांड में दोहा क्रमांक १३ से १६ तक श्री राम लक्ष्मण संवाद को विद्वान् ‘लक्ष्मण- गीता’ की संज्ञा देते हैं. श्री राम द्वारा ज्ञानोपदेश का यह विशेष अवसर है. मानस की दूसरी गीता ‘विभीषण-गीता’ है जो लंकाकाण्ड तथा तीसरी गीता ‘भरत- गीता’ है जो उत्तर कांड में आती है. इसी लक्ष्मण- गीता में भगवान यह सूत्रवाक्य ‘ज्ञान मोक्षप्रद वेद वखाना’ प्रदान करते हैं.
इसमें तीन बातें प्रधान हैं – ज्ञान, मोक्ष और वेद . इन तीनों शब्दों की व्याख्या इस सूत्र को समझने के लिए आवश्यक है. भगवान का कहना है कि ज्ञान से मोक्ष मोक्ष प्राप्त होता है, ऐसा वेदों ने वर्णित किया है. सबसे पहले हम वेद के प्रमाण को ही लेते हैं. श्रुति कहती है –ऋते ज्ञानात् न मुक्ति. अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं. भगवद्गीता में भी श्री कृष्ण कहते हैं- सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ( ४/३३) अर्थात् हे पार्थ सभी कर्मों का परिसमापन ज्ञान में प्रतिष्ठित होने पर हो जाता है. उल्लेखनीय है कि अकेले इस चतुर्थ अध्याय में ही भगवान ने पन्द्रह वार ‘ज्ञान’ शब्द का प्रयोग किया है. उन्होंने तो यहाँ यह भी कह दिया है कि ‘ज्ञान से पवित्रतर कुछ है ही नहीं’- नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते (४/४८). इससे ज्ञान की महत्ता की सनातन भारतीय मनीषा में प्रतिष्ठा सुपष्ट हो जाती है.
यह ज्ञान है क्या ? गीता के दूसरे अध्याय में सत् की प्रतिष्ठा और असत्के मिथयात्व का बोध कराते हुए भगवान अर्जुन को सांख्य के प्रबोध ( एषा तेऽभिहिता सांख्ये २/३९ ) के बाद योग की शिक्षा देते हैं. आगे सातवें अध्याय में उन्होंने अर्जुन को ज्ञान को विज्ञान सहित और विस्तार से समझाया (ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः -७/२) यहाँ पर भगवान ने वेदान्त दर्शन की सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान करते हुए यही कहा है कि वे ही सम्पूर्ण सृष्टि के कर्ता और नियामक हैं किन्तु माया के वशीभूत जीव उन्हें (भगवान को) अपने ही समान साधारण जीव मान लेता है- अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामअबुद्धयः ७/२४)
अथात् शुद्ध वेदान्त की प्रतिष्ठा ही सनातन भारतीय मेधा की परिसीमा है तथा यही वास्तविक ज्ञान है. इसके द्वारा जीव में ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ब्रह्मैवनापरं’ का बोध जागता है. ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् इस ज्ञान की सम्यक् प्रतिष्ठा कराते हैं. आदि शंकर ने कर्मकांड की जड़ता का प्रतिरोध कर वर्तमान युग में इस ज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा की. श्रुति के चार महावाक्य – अहं ब्रह्मास्मि , तत्वमसि , प्रज्ञानं ब्रह्म और अयं आत्मा ब्रह्म –जीव और ईश्वर के इसी अपार्थक्य की उद्घोषणायें हैं.
इस लक्ष्मण गीता के प्रसंग में भी स्वयं श्री राम लक्षमण को समझाते हैं-
माया ईश न आपु कहुं जान कहिय सो जीव
बंध मोच्छप्रद सर्वपर माया प्रेरक सीव . आरण्यकांड / १५
वेदान्त कहता है कि परमब्रह्म जब माया संयुत तो होता है किन्तु इसका उसे बोध रहता है तथा वह ईश्वर कहलाता है. यही ब्रह्म पञ्च महाभूतों से जुडकर संसार और पञ्च कोशों से सम्प्रक्त हो जीव बन जाता है. इस तरह ब्रह्म या चैतन्न्य ही उपाधियुक्त होकर ईश्वर, संसार या जीव बनता है. तत्वतः इनमें कोई भेद नहीं है. इस ज्ञान को प्राप्त कर जीव परमात्मा से अपने अपार्थक्य की प्रतीति कर लेता है .
और भी सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जीव और ईश्वर में तत्वतः कोई भेद नहीं है. दोनों मायोपहित ही हैं. सूक्ष्म सा अंतर केवल इतना है कि ईश्वर को इसका ज्ञान है जबकि जीव को नहीं है. और यह ज्ञान ही मोक्ष है.
मुक्ति के नाम पर बैकुंठ या स्वर्ग की कल्पना प्राथमिक शिक्षा के सोपान हैं. इनमें भोग की धारणा तो और भी निम्नतर है. यदि स्वर्ग भोग की ही भूमि है तबतो पशु- लोक और स्वर्ग में कोई भेद ही नहीं रहेगा. इससे भी आगे यह बोध महत्वपूर्ण है कि मोक्ष का यह विकल्प मनुष्य के सामने स्वतः खुला हुआ है. इसके लिए वह पराश्रित नहीं है.
स्वामी अनुभवानन्द जी इस सम्बन्ध में एक बड़ा सटीक उदाहरण देते हैं. उनका कहना है इस सम्पूर्ण स्थिति की कल्पना क्रिकेट के खेल से की जा सकती है. सृष्टि के इस खेल में जीव बल्लेबाज है तो संसार मैदान (फील्डिंग टीम ) है. ईश्वर अम्पायर (निर्णयकर्ता ) है. अब यह एक सीधी सी बात है. यदि बल्ले वाला ‘वाक ओवर’ दे देता है, खेलना खत्म कर देता है, तो मैदान और अम्पायर का काम अपने आप खत्म हो जाता है. इसके बाद न तो संसार की कोई भूमिका शेष बचेगी और न ही ईश्वर की !
वास्तव में गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी इस सूक्ति में भारतीय मेधा का सार सर्वस्व भर दिया है. अद्वैत का यह परमोच्च ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को अपने लीला संवरण के समय भागवत के एकादश स्कंध के २८वें अध्याय में सविस्तार प्रदान किया है. यहाँ उद्धव के यह पूछने पर कि –भगवन्, मारता कौन है, शरीर या आत्मा? वास्तविकता तो यह समझ आती है कि शरीर जड है अतः उसका मरना निरर्थक है और आत्मा अविनाशी है अतः उसके मरने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता !
इस पर श्री कृष्ण उद्धव को समझाते हैं कि सत्य यही है कि न तो शरीर मरता है और न ही आत्मा. वास्तव में मरता तो मनुष्य का वह अज्ञान है जो आत्मा को शरीर मान रखता है-
यावद् देहेंद्रियप्राणैरात्मनः संनिकर्षणम्
संसारः फलवांसतावदपार्थोऽप्यव्वेकिनः .( श्रीमद्भागवत ११/२८/१२)
अर्थात् जिस प्रकार बंधन जीव ने ही स्वीकार किया है उसी तरह मोक्ष का वरण करने की भी उसकी स्वतंत्रता है. यह ज्ञान ही मुक्ति है – ज्ञान मोक्षप्रद वेद वखाना.
Friday, 25 April 2014
सुख-दुःख की आँख मिचौनी
अभिप्रेत
सुखस्यान्तरम् दुखं दुखस्यान्तरम् सुखम्
न नित्य लभते दुखं न नित्य लभते सुखम् . महाभारत (शांतिपर्व २६/२३)
भगवान वेदव्यास का यहाँ यही कहना है कि सुख अथवा दुःख में से कोई नित्य
-- चिरंतन नहीं है. इसलिए एक कवि-मन द्वारा चिर-सुख और चिर-दुख की चाह न रखना जीवन
को उसकी सहजता में स्वीकार करना ही है. श्री आई डी खत्री द्वारा अपनी इस सन्देश-सूचिका
में जो सूक्ति-संग्रह प्रस्तुत किया गया है उसका भी सार-संकेत यही प्रतिध्वनित
होता है.
इस तरह लेखक द्वारा अपनी ‘और से’ की गयी प्रस्तावना में इसे सनातन
धर्म के ‘कर्म’ सिद्धांत अथवा ईश्वर-आस्था से जोड़ना उसकी सहज आस्तिकता का ही
परिचायक है.
वेदांत के अनुसार जिस तरह शरीर में ज़रा-मृत्यु, प्राण में भूख-प्यास
है उसी तरह सुख-दुःख मन की वृत्तियाँ हैं. किन्तु शरीर, प्राण और मन के भी परे
विज्ञानमय और आनंदमय कोश और पञ्च कोशों के परे शुद्ध चैतन्न्य हैं. अतः भारतीय अध्यात्म के धरातल पर इन
वृत्तियों मात्र के अनुगमन से परं सत्य का अनुसंधान सुलभ नहीं कहा जा सकता.
जब बौद्ध दर्शन कहता है कि दुःख की सत्ता और उसकी आत्यंतिक निवृत्ति
संभव है तो यह एक निषेध परक सत्य ही कहा जा सकता है. ‘सत्यं परं धीमहि’ (हम परं
सत्य का अनुसंधान कर रहे हैं) जिस प्रतिज्ञा वाक्य से भागवत का प्रारंभ होता है
उसमें ईश्वर को सभी द्वैत के परे प्रतिष्ठित माना गया है. भारतीय अध्यात्म में
ईश्वर घनीभूत आनंद है. आनन्द के किसी दुखवाची विलोम की न तो यहाँ कोई स्थिति है और
न ही कल्पना.
यह प्रसन्नता की बात है श्री खत्री जी ने अपने सात्विक संकल्प के इस
अनुष्ठान की पूर्ति में आनंद के सागर में अनेक गोते लगाए हैं. उनकी इस साधु संकल्पना के लिए मैं
उन्हें सम्मानास्पद मानता हूँ. आशा है कि वे मुक्तामणियों की इस खोज में
आगे सतत सन्नद्ध रहेंगे. इति शम्. इदम् न मम्.
भोपाल, २५ अप्रैल २०१४
प्रभुदयाल मिश्र
अध्यक्ष, महर्षि अगस्त्य वैदिक
संस्थानम्
Thursday, 23 January 2014
'देवस्य काव्यम्' की समीक्षा
समीक्षा
देवस्य काव्यम्ः शाश्वत् जीवन दर्शन का दिशा बोध
डा. प्रेम भारती
विद्वता की आंच में तपकर बहुधा व्यक्तियों की रचनात्मक ऊर्जा उनकी
बुद्धि और तर्क को पुष्टकर अपने व्यक्तित्व को ढालने में ही स्थानांतरित रहती है.
विरले ही ऐसे विचारक होते हैं जो विद्वता के साथ-साथ रचनात्मकता को साध पाते हैं
और वह भी कौशल के साथ. श्री प्रभुदयाल मिश्र एक ऐसे ही व्यक्तित्व की संज्ञा हैं
जो वेद-ज्ञान के क्षेत्र में तो एक जाना पहचाना नाम हैं, पर काव्य के अंतर्राष्ट्रीय
क्षेत्र में यह नाम सर्वथा नया और अजनवी है. देवस्य-काव्यम् (वैदिक-काव्यधारा)
के कवि प्रभुदयाल जी एक बहु आयामी व्यक्तित्व के धनी हैं. महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानं
भोपाल के अध्यक्ष के रूप में प्रकाशित ‘देवस्य काव्यम्’ उनका ऐसा काव्य
संग्रह है जो उनके अंतरर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व को उजागर करता है.
यह कृति ‘ देवताओं द्वारा, देवताओं के लिए देवता की कृति’ कही जा सकती
है. इसमें कवि ने देवऋण के लिए ‘देव कविता’, ऋषि ऋण के लिए ‘वेद कविता’ तथा पितृ
ऋण के लिए ‘तर्पण कविता’ शीर्षक से अपनी भावान्जलियाँ अर्पित की हैं. कृति के विषय
में कुछ भी कहने के पूर्व रचनाकार का यह मंतव्य उल्लेखनीय है-
‘’ काव्य यहाँ मात्र वह दृष्टि है जिसके द्वारा वेद के एक पक्ष को
समझने की चेष्टा की गयी है. काव्य वेद की तरह तथा वेद काव्य की तरह सनातन और
सार्वकालिक है.’’ (भूमिका, ‘पश्य देवस्य काव्यम्’)
जो लोग वाल्मीकि से लेकर आज तक की काव्य यात्रा को शास्त्रीय कसौटी पर
कसते हैं, संभव है वे इस कथन से सहमत न हों. उनकी दृष्टि में यह एक आंशिक सत्य हो
सकता है, किन्तु काव्य की जिस सनातनता की श्री मिश्र चर्चा करना चाहते हैं, वह भावना
और विवेक, नैतिकता और निसर्ग, कर्त्तव्य और प्रेम, संस्कृति और प्रकृति, संयम और
समागम का सनातन द्वंद्व है और यह द्वंद्व ही इस काव्य का सौंदर्य है. इस दृष्टि से
कविता धारा उतनी पुरानी है जितनी जीवन धारा. मानव जब कभी भावनाओं अथा बौद्धिक
प्रवृत्ति की तीव्रता से उद्वेलित हुआ, उसके आंतरिक मानसरोवर में उसने काव्य के
माध्यम से अभिव्यंजना का स्वरूप खड़ा किया है.
‘देवस्य काव्यम्’ की विषय वस्तु में कवि द्वारा ऐसी ही
भाव संजीवनी पाठक वर्ग को परोसे जाने का प्रयत्न किया गया है जो आज के आपाधापी के
युग की अचेत जड़ता एवं मूर्छा को दूरकर उसे नूतन ऊर्जा और नव जीवन प्रदान करे . इस
काव्य-धारा के माध्यम से कवि ने अतीत के सन्दर्भ खोजकर उस परम्परा को पुनर्जीवित
करने का प्रयास किया है जो हमारे भीतर संचेतना के रूप में शताब्दियों से प्रवाहमान
है. इस द्रष्टि से यह रचना अद्भुत है. आज मनुष्य का जीवन सौंदर्य रहित, गंधहीन कागज
के फूल के समान हो गया है. कवि की अपेक्षा
है कि इस गंध का आस्वादन करने में वे सभी सहायक होंगे जो भारत की अप्रतिम धरोहर
में प्रीति और श्रद्धा रखते हैं.
भारत ही एक ऐसा देश है जहां कविता और धर्म एक साथ चलते हैं. इस
द्रष्टि से ‘देवस्य काव्यम्’ की रचना का उत्स वह भाव-भूमि है जहां संस्कृति और सभ्यता
के आधारभूत मूल्यों का कवि की प्रतिभा के माध्यम से प्रकटीकरण हुआ है. वस्तुतः
संसार की रचना करने वाला भी तो स्वयं एक ‘कवि’ ही है और यह संसार उसकी ऐसी काव्य
कृति है जो नित नवीन होती जाती है !
संग्रह के पांच पटल हैं. इनमें २७ कविताओं का संकलन है. प्रथम पटल में
तीन कवितायें ‘ वैदिक कविता’ के नाम से हैं. द्वितीय पटल में जीवन-दर्शन से सम्बन्धित
बारह कवितायें हैं जिनके शीर्षक हैं- जीवन कविता, यात्रा कविता, प्रार्थना कविता,
आनंद कविता, विषाद कविता, वर्तमान कविता, निरपेक्ष कविता, न्याय कविता, प्रतिकृति
कविता, क्रिया कविता, प्रतिकार कविता और समय कविता. कवि का विश्वास है- ‘जीवन का
विकल्प बन नहीं सकती कविता/ क्योंकि कविता स्वयं है जीवन/ सतत प्रवाहमान/ जीवन
धारा जैसी.
(प्रस्ठ १७)
सचमुच में बारह कविताओं की विषयवस्तु दार्शनिक द्रष्टिकोण से से ‘ईश्वर
अथवा कविता के समानांतर’ इस प्रकार गडी गयी है जिसमें गहन दार्शनिक भावों को लेकर
जीवन के विविध आयामों को परिभाषित किया गया है. न्याय कविता की इन पंक्तियों में –
आदमी के भीतर/ जब लड़ने लगते हैं दो आदमी/ उनमें से प्रत्येक का दावा
होता है / कि सही वही है/ एक मात्र और सम्पूर्ण सही/ तब कविता ही करती है कोई निदान.
(प्रष्ट -३९)
सत्य की सहज अभिव्यक्ति प्रकट हुई है.
तृतीय पटल ‘देव कविता’ के नाम से है जिसमें पांच कवितायें वरुण,
इन्द्र, रुद्र, मरुत और मरुद्गण से सम्बंधित हैं. ‘वरुण’ कविता ऋग्वेद
मंडल ७ के सूक्त ८६ का रूपांतरण है जिसकी मूल रचना का छंद त्रिष्टुप है तथा इसके
द्रष्टा ऋषि हैं वशिष्ट. इसी प्रकार ऋग्वेद के अन्य मंडलों से अन्य ऋषियों द्वारा
संद्रष्ट मन्त्रों पर आधारित कवितायें हैं इन्द्र, रुद्र और मरुत आदि. इनमें ऋषि
देवताओं से प्रायः प्रार्थना करते हैं –
हमें शत वर्ष जीवन दें/ पाप पीड़ा रोग भागें दूर/ सब
चतुर्थ पटल में ‘वेद कवितायें’ हैं. इनमें अस्यवामीय (ऋग्वेद मंडल १
सूक्त १६४) के काव्यानुवाद के ५२ छंद हैं. इनमें व्यंजना और बिम्ब विधान से सृष्टि
की रचना और इसके रचयिता का परिचय दिया गया है. यजुर्वेद के अंतिम ४०वें अध्याय ‘ईशावास्य’
के १८ वे छंद हैं जो शाश्वत सनातन जीवन दर्शन का सरसता पूर्ण निदर्शन कराते हैं.
पंचम पटल ‘ तर्पण कविता’ में पांच कवितायें क्रम से पिता, दादा, ताऊ,
नाना और माँ संकलित हैं. अर्थात् मातृ और पितृ दोनों ही पक्ष का परम्परा के अनुरूप
संस्मरण ! पितर, पूर्वजों के प्रति क्रतज्ञता का यह बोध वह सनातनी निष्ठा है जिसका
प्रभाव प्रत्येक मनुष्य पर पड़ता ही है. और अंतिम कविता की यह पंक्ति जैसे उस धारा
का ही पर्याय है जिसे सदा बहते रहना अभीष्ट है-
अपूर्ण ही रहनी है यह कविता इस तरह
लौटा कब पाया कोई तर्पण का जल
किसी बिछुडे पूर्वज को (प्रस्ठ १११ )
इस प्रकार आज की नयी कविता के शिल्प विधान को अपनाकर श्री मिश्रजी ने
कविता को शाश्वत जीवन धारा से तो जोड़ा ही है, इन कविताओं में हमारा वर्तमान भी
अपनी पूरी जीवन्तता से धधकता है. इन कविताओं में वास्तव में वह क्षमता है जो हमें
हमारी पहचान कराती है.
समीक्ष्य संग्रह के सम्पूर्ण परिशीलन से यह निचोड़ निकलता है कि यह कृति
पठनीय तथा माननीय है. यह वर्तमान समाज का दर्पण बने और नौशिखिये कवियों के लिए
प्रेरणाश्रोत- यही कामना है. इस प्रकार के चिंतन से मानवता प्राणवती होती है तथा
राष्ट्रियता परिपुष्ट. मैं इसके लिए रचनाकार को बहुत बहुत साधुवाद देता हूँ.
एफ ९१/४९, तुलसीनगर भोपाल
९४२४४१३१९०
पुस्तक – देवस्य काव्यम्
रचनाकार- प्रभुदयाल मिश्र
प्रकाशक- अमेजोन, चार्ल्सटन, यू एस ए
प्रष्ट संख्या – ११२
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