दक्षिणामूर्ति
स्तोत्र का भाव और भूमिका
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प्रभुदयाल मिश्र
दक्षिणामूर्ति स्तोत्र अदिशंकर का अद्वेSत वेदान्त की उत्कृष्ट शिक्षा संबंधी अद~~भुद् स्तोत्र है । यह संस्कृत के
शार्दूल विक्रhड़ित छन्द की मनोहारी रचना है । इसमें ज्ञान के अमूर्त विज्ञान को जैसे वेद वाक्य
और गुरु उपदेशों के प्रचलित पदों में उड़ेल दिया गया है । इसकी संधि और समास से
संवरी संस्कृत भाषा की बिम्ब रचना वाली सशक्त पदावली इसमें देखते ही बनती है ।
वस्तुतः यह एक शिव आराधना स्तोत्र हेS A किन्तु इसमें गुरु को प्रत्यक्ष शिव की संज्ञा प्रदान की गई है ।
दक्षिणामूर्ति में दो शब्द- दक्षिणा और मूर्ति एक सामासिक प्रयोग हेSa। यदि इसका बहुब्रीह समास से
अर्थ लेते हैं तो इसका आशय होता है- जिनकी मूर्ति दक्षिण की ओर अभिमुख है ।
कर्मधारय समास के रूप में इसका अर्थ है-जो दक्ष (कुशल) और अमूर्त अर्थात् निराकार
हैं । मृत्यु रूपी दक्षिण दिशा की ओर अभिमुखता भगवान शिव के कालातीत महाकालत्व की
परिचायक है ।
इस स्तोत्र के संबंध में पौराणिक गाथा इस प्रकार कही जाती है । ब्रह्माजी के चार मानस पुत्र थे- सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार । वे
जन्मना ही सिद्ध और तत्वज्ञान युक्त थे । उन्होंने अल्प आयु में ही ज्ञान की खोज
में ब्रह्म लोक का त्याग कर दिया । उनकी यह खोज दीर्घकाल तक चलती रही । अन्ततः जब
उन्हें गुरु की प्राप्ति हुई तो वे आयु वृद्ध हो चुके थे । वे अन्त में भगवान शिव
के पास कैलाश पर्वत पर पहंचे । अजन्मा शिव स्वभावतः युवा हैं । वे एक वटवृक्ष के
नीचे बैठे हुए हैं । ये आयु वृद्ध शिष्य
ही मौन परमगुरु शिव से यहां ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार
ये चार वृद्ध शिष्य स्वयं चार वेद ही हैं ।
उनके मस्तक का तिलक उनके तृतीय नेत्र को दर्शाता है । उनके हाथ की रुद्राक्ष
माला उनकी चिरन्तन साधनावस्था की परिचायक है । उनका त्रिशूल उनकी गुणातीत स्थिति
का दिग्दर्शक है ।
भगवान दक्षिणामूर्ति के निचले बायें हाथ में भोजपत्र में लिखे गये वेद हैं।
उनका दायंk निचला हाथ अभय
चिन्मुद्रा में है । उनके हाथ की तर्जनी
आत्म स्वरूप का संकेत कर रही हेS। अंगुष्ठ ब्रह्म तत्व का वोध कराता है । दक्षिणामूर्ति भगवान का दायां पांव
बायें पांव के नीचे है । उनके चरण के नीचे अपस्मर नामक असुर पड़ा हुआ है । यह
विस्मृति का प्रतीक है ।
इस स्तोत्र के अनुष्ठान परक पाठ को आवश्यक व्याख्या सहित नीचे प्रस्तुत किया
जा रहा है ।
आवाहन मंत्र
ऊं नमो भगवते दक्षिणामूर्तये महां मेधां प्रज्ञां प्रयच्छ स्वाहा ।
ध्यान श्लोक
मौनव्याख्याप्रकटितपरमब्रह्मत्वं युवानं
वर्षिष्ठान्ते वसद्रषिगणैरावृत्तं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलितचिन्मुद्रमानन्दरूपं
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे । 1 !
ब्रह्मनिष्ठ o`) ऋषियों से घिरे युवा गुरु
मौन रह कर ब्रह्म ज्ञान प्रदान कर रहे हैं । अपने हाथ की ज्ञान मुद्रा द्वारा
उपदेश करते हुए ऐसे आनन्दरूप गुरुओं के गुरु दद्विाणामूर्ति को मैं प्रणाम करता
हूं । 1।
वटविटपसमीपे भूमिभागे निषण्णं सकल मुनि जनानां ज्ञानदातारमारात्
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिेदेवं जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि । 2 ।
वट विटप के समीप समागत मुनिजनों को ज्ञान प्रदान करते हुए जीवन और मृत्यु के
संताप को दूर करने वाले तीनों लोकों के गुरु दक्षिणाewर्ति को मैं नमस्कार करता हूं । 2 ।
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं
शिष्यास्तु छिन्न संशयः
निधये सर्वविद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् गुरवे सर्वलोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ।
3 ।
वट वृक्ष के नीचे वृद्ध शिष्य युवा गुरु के चारों ओर बैठे हुए हैं । गुरु के
मौन रहते हुए शिष्यों के सभी संशय दूर हो रहे हैं । ऐसे सभी ज्ञान के आधार,
सभी रोगों के निवारणकर्ता और
सभी लोकों के गुरु दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है । 3 ।
ऊं नमः प्रणवार्थाय शुद्धज्ञानैकमूर्तये निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणामूर्तये
नमः । 4।
जो प्रणव के अर्थ रूप हैं, शुद्ध ज्ञान स्वरूप हैं और जो परम प्रशान्त हैं ऐसे दक्षिणामूर्ति को नमस्कार
है । 4 ।
दक्षिणामूर्ति स्तोत्र
विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं
पश्यन्नात्मनि मायया वहिरीवोद्भूतं यथा निद्रया
यस्साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । 1 ।
जेा संसार को माया के कारण अपने भीतर स्थित स्वयं से अभिन्न एक स्वप्न की
भांति अथवा दर्पण में प्रकट प्रतिबिब की तरह देखता है किन्तु जो ज्ञान प्राप्त
होने पर विश्व को स्वयं से अभिन्न देखता है ऐसे ज्ञान स्वरूप गुरु दक्षिणामूर्ति को हमारा नमस्कार है । 1 ।
बीजस्यान्तरिवान्कुरो जगदिदं प्राङ् निर्विकल्पं
पुनः मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम्
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया तस्मै
श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । 2 ।
जो प्रारंभ में बीज के ही भीतर में एक अप्रकट अंकुर की तरह और पश्चात् एक
महायोगी या इन्द्रजालिक की तरह अपनी इच्छा से माया के संसर्ग से देश और काल के रूप
में नाना आकार कर लेता है ऐसे ज्ञानस्वरूप गुरु दक्षिणामूर्ति को हमारा नमस्कार है
। 2 ।
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमस्तकल्पार्थकं भासते
साक्षात्त्तत्वमसीति वेदवचसा यो वोधयत्याश्रितपान्
यत्साक्षात्करणाद् भवेन्न
पुनरावृत्तिर्भावाम्भोनिधैा तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । 3 ।
जिसका यथार्थ स्वरूप मिथ्या संसार की भांति प्रतीत होता है, जो ‘तत्त्वमसित्वं’ वेद वाक्य से शिष्यों को प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं,
जिनके प्रत्यक्ष ब्रह्मज्ञान
के पश्चात् संसार सागर में पुनः आवर्तन नहीं होता
ऐसे ज्ञानस्वरूप गुरु दक्षिणामूर्ति को हमारा नमस्कार है । 3 ।
नानाच्छिद्रघटोदरस्थितमहादीपप्रभाभास्वरं ज्ञानं
यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिस्पन्दते
जानामिति तमेव भ्रान्तमनुभात्येतत्समस्तं जगत्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । 4 ।
जिनका ज्ञान एक अनेक छिद्र वाले घट के अन्दर स्थित उस प्रकाशवान दीप की तरह है
जो आंख अदि नाना इन्दियों के द्वारो से प्रक्ट होता है और जो चैतन्य ज्ञान स्वरूप
यह अनुभव करता है कि यह समस्त संसार उसी की प्रतीति है, ऐसे ज्ञानस्वरूप गुरु दक्षिणामूर्ति को हमारा
नमस्कार है । 4 ।
देहं प्राणमतीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्विं च शून्यं
विदुः स्त्रीबालान्धजडोपमासस्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिणे तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये
। 5 ।
वे जो जड, अंधे और बालबुद्धि वाले दिग्भ्रमित विचारक द्वारा देह, प्राण, इन्द्रिय, बुद्धि और अभावात्मा शून्य को आत्मा बताने वाले माया की शक्ति से उत्पन्न
अज्ञान को मिटा देते है, ऐसे ज्ञानस्वरूप गुरु दक्षिणामूर्ति को हमारा नमस्कार है । 5 ।
राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुप्तः पुमान्
प्रागस्वाप्समिति प्रवोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । 6 ।
जो माया से प्रभावित गहन निद्रा काल में इन्द्रिय चेतना को गृहण काल के सूर्य
और चन्द्रमा के आच्छादन की तरह समेट लेता है तथा जो जागृत होने पर यह जानता है कि
वह ‘सोया’ था, ऐसे ज्ञानस्वरूप गुरु दक्षिणामूर्ति को हमारा
नमस्कार है । 6 ।
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तस्फुरन्तं सदा
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । 7 ।
ज्ीवन की प्रत्येक अवस्था में जो सदा विद्यमान ‘ मैं हूं’ के रूप में अपनी उपस्थिति और प्रतीति को अपनी ज्ञान मुद्रा के द्वारा प्रकट करता है,
ऐसे ज्ञानस्वरूप गुरु
दक्षिणामूर्ति को हमारा नमस्कार है । 7 ।
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसंबंधतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितृ पुत्राद्यात्मना भेदतः
स्वप्ने जाग्रति वा य येष पुरुषो मायापारिभ्रामितः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । 8 ।
जो माया के कारण संसार को कार्य और कारण, स्वामी और सेवक, गुरु और शिष्य, पिता और पुत्र अदि संबंधों के रूप में ज्राग्रत और
स्वप्न सभी अवस्थाओं में देखता हेै ऐसे ज्ञानस्वरूप गुरु दक्षिणामूर्ति को हमारा
नमस्कार है । 8 ।
भूरम्भास्यनलनोऽनिलोऽम्बरमहर् नाथो हिमान्शुः
पुमान् इत्याभाति चराचारत्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकं
नान्यत्किंचन विद्यते विमृशतां
यस्मात्परस्माद्विभोः तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । 9 ।
यह चराचर विश्व पृथ्वी, जल,अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र और चैतन्य रूप अष्टधा जिसकी यह सृष्टि है और जिसकी सर्व व्यापी सत्ता
के परे ज्ञानी जनों के लिए कुछ भी स्थित नहीं है, ऐसे ज्ञानस्वरूप गुरु दक्षिणामूर्ति को हमारा
नमस्कार है । 9 ।
सर्वात्मिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्ध्यानाच्च संकीर्तनात्
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरतव स्वतः
सिद्धयेत्पुनरष्टधापरिणतं चैश्चर्यमव्याहतम् । 10 ।
इस स्तोत्र में आत्मा की जो सर्व
व्यापकता प्रकट हुई है, उसका श्रवण, अर्थ मनन, ध्यान और अनुगान कर एक व्यक्ति बिना परिश्रम और बाधा के स्वात्मा में स्थिति
सहित सभी अष्ट विभूति युक्त ज्ञान प्राप्त कर लेता हेै । 10 ।
ऊं
तत् सत्
अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक
संस्थानम्
35,
ईडन गार्डन, राजाभोज मार्ग, भोपाल 16