1. निर्वचन विशेषांक जनवरी 2024
1. सनातन भारतीय ज्ञान
विधा के आयाम और श्रुति-स्मृति परंपरा
2. वेद, वेदांग
और उपनिषद के प्रामाणिक भाष्य
3. इतिहास ग्रंथ – रामायण
और महाभारत के शुद्ध संस्करण और भाष्य
4. पुराणों के परिशुद्ध
संस्करण, भाष्य और सनातन संदेश
5. उपासना सूक्त ग्रंथों,
विधि-
निषेध व्यवस्था और पूजा, अनुष्ठान पद्धति का समाहार, युक्तयुक्तीकरण
6. भगवद्गीता का प्रामाणिक
संस्करण, टीका और आधार भाष्य
7. श्रीरामचरित मानस का
मानकीकृत स्वरूप, पाठानुशीलन और भाष्य
8. श्रीमद्भागवत का
प्रामाणिक पाठानुशीलन तथा कथा वाचन परंपरा का विस्तार
9. कल्याण के विशेषांको की
विषय सामग्री
10. स्त्री,बालक,
समाज
सुधार और सामाजिक सद्भाव का साहित्य
11. तुलसीदास जी की समस्त
रचनाओं का प्रकाश और भाष्य
12. भक्ति साहित्य का
प्रकाशन और भाष्य की प्रामाणिकता
13. भारतीय भाषाओं का
समाहार और सनातनता
14. हिन्दी साहित्य की
विकास यात्रा का गीता-प्रेस गोरखपुर एक पड़ाव
15. हिन्दी भाषा के
मानकीकरण और विकास में गीता प्रेस की भूमिका
16. कला, संस्कृति,
विज्ञान
और शोध के विस्तार की भूमिका
17. विश्व मानवता और सनातन
भारतीय संस्कृति की वैश्विक प्रतिष्ठा
18. विश्व समाज में चरित्र,
नैतिकता,
अहिंसा,
शाकाहारिता,
तप,
स्वाध्याय,
सद्भाव
की भूमिका
19. गीता प्रेस साहित्य की
सुलभता, बोधगम्यता, सम्प्रेषणीयता और सार्वकालिकता
20. कल्याण पत्रिका का
स्वरूप, प्रभाव और सार्वकालिक् पत्रकारिता
21. संस्थापक जयदयाल जी
गोयंदका और भाई हनुमान प्रसाद जी पोद्दार का व्यक्तित्व और भारतीय समाज, संस्कृति
और साहित्य में प्रतिष्ठा
22. राष्ट्रीय
स्वांतन्त्रता आंदोलन और राष्ट्रीयता के संप्रसार में प्रेस की भूमिका
23. संगणक और संचार के
अत्याधुनिक संसाधन की प्रतिस्पर्धा में प्रेस का वर्तमान स्वरूप और संभावनाएँ
24. देश की अन्य हिन्दी
पत्र पत्रिकाओं पर ‘कल्याण’ का प्रभाव और शाश्वत संदेश की प्रसारावस्था
25. योग, ज्ञान,
कर्म
और उपासना मार्ग के युक्ति युक्त संधान में गीता प्रेस प्रकाशनों का योगदान
इस संबंध में हमारे विद्वान सहयोगियों से जो सामग्री मिली है वह
पत्रिका परिवार के निष्ठावान पाठकों के लिए आगे के पृष्ठों में प्रसाद रूप में
प्रस्तुत है । अपनी इस संकल्पना को यहाँ दुहराने का आशय मात्र यह है कि आगे भी इस
विषय पर केंद्रित सामग्री की उपयोगिता शेष मानकर हम उसे यथा स्थान प्रकाशित करते
रहेंगे ।
गीता प्रेस द्वारा भारतीय ज्ञान परंपरा के संपोषण क्रम में स्मरणार्थ
षड्दर्शन में ‘न्याय’ पर यत्किंचित विचार- प्रक्रम को भी आगे बढ़ाते हैं ।
न्याय
दर्शन
इस दर्शन धारा
के प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं । उनका ‘न्यायसूत्र’ इस मत का आदि ग्रंथ है ।
जिन साधनों से ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त होता है उन्हें ‘न्याय’ की संज्ञा
दी गई- नीयते विविक्षितार्थ: अनेन इति न्याय: । न्याय दर्शन में वैशेषिक की ही
भांति पदार्थों के तत्वज्ञान से नि:श्रेयस की सिद्धि मानी गई है । न्याय दर्शन में
प्रमाण आदि 16 पदार्थ माने गए हैं जिनमें प्रमेय के अंतर्गत वैशेषिक दर्शन के सभी
छ: पदार्थ सम्मिलित कर लिए गए हैं । इसके लिए जिन प्रमाणों की सहायता प्राप्त की
जाती है वे चार हैं प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाण ।
न्याय
दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम तर्क की महिमा का अख्यापन करते हैं । उनके अनुसार मुक्तावस्था में भी एक ‘आत्मा’ को दूसरी से पृथक करने
वाला ‘मन’ भी एक द्रव्य ही है। इस मन
से जीव को कभी छुटकारा ही नहीं मिलता।
अनादिकाल से एक जीव का अविद्या के कारण जब किसी एक मन के साथ संयोग हो गया तो
वह जीव उस मन के साथ-साथ अनंत शरीरों में घूमता है। मुक्ति में भी वही मन उस आत्मा के साथ रहता है।
व्यापक होने पर भी इसी मन के साथ सदैव संयोग रखने के कारण वह जीव अव्यापक के समान
रहता है। जीवात्मा और परमात्मा इन दोनों
में एक प्रकार से कोई सम्बन्ध नहीं है।
दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र में निरपेक्ष हैं। जीवात्मा अपने अनादि कर्मों के संस्कार से एक
शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता रहता है। सभी दुखों का नाश होने पर वह मुक्त
तो होता है परन्तु उसे मन से छुटकारा नहीं मिलता। मुक्तावस्था और संसारावस्था में
मात्र इतना ही तो भेद है कि संसारावस्था में ज्ञान, सुख,
आदि गुण होते हैं जबकि मुक्तावस्था में वे नहीं होते।
मुझे
वैष्णव भक्ति परंपरा के विशिष्ट द्वैत बोध और मुक्ति के पार के भी पुरुषार्थ का
यहाँ इन दो संदर्भों का अर्थ गांभीर्य विचारणीय प्रतीत होता है –
भरत श्रीराम की चरण प्रीति में चारों
पुरुषारथों
का परित्याग करने को पूर्ण संकल्पित हैं –
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउं निरवान
जनम जनम रति राम पद यह वरदान न आन ।
भक्ति की विशिष्ट अद्वैत दर्शन परंपरा की ‘पुष्टि
मार्ग’ की धारा में श्रीमद्भागवत का प्रमाण भी इस प्रकार सुदृष्ट है जो वृत्र
द्वारा भगवान के प्रार्थना में प्रकट है –
न नाकपृष्ठं न च
पारमेष्ठ्यं न
सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा समंजस त्वा
विरहय्य कांक्षे । ( 6/11/25)
-हे सर्व सौभाग्य निधि हरि, मैं
आपको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमंडल का साम्राज्य, रसातल का एकछत्र राज्य, योग
की सिद्धियाँ- यहाँ तक कि मोक्ष भी नहीं चाहता ।
सारत: मैं यहाँ यही कहना चाहता हूँ कि
भारत की अजस्र ज्ञान परंपरा ने जहां वैविध्यता में कुछ छोड़ा नहीं वहीं उसको समग्रता
में जिन संस्थाओं और व्यक्तियों ने सँजो कर रखा है उनके प्रति हमारी कितनी
कृतज्ञता शेष ही बनी रहती है !
प्रभुदयाल मिश्र, प्रधान संपादक
2. निर्वचन फरवरी 2024
मीमांसा दर्शन और
श्रीरामचरितमानस संदर्भ
पूर्वमीमांसा दर्शन में वेद के यज्ञपरक वचनों की व्याख्या बड़े
विचार के साथ की गयी है। इसके प्रणेता ऋषि जैमिनी हैं। मीमांसा का
तत्वसिद्धान्त विलक्षण है । इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में है । मीमांसा
दर्शन के अनुसार "चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः" अर्थात् वेद-वाक्य से लक्षित अर्थ, धर्म है । वेद ने जिन कर्मों को करने के लिये कहा है, उनको करना और जिनको करने से मना किया है, उनको न
करना "धर्म" है।
मीमांसा का तत्वसिद्धान्त विलक्षण है । आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन इसमें नहीं
है । यह केवल वेद वा उसके शब्द की नित्यता का
ही प्रतिपादन करता है । इसके अनुसार मन्त्र ही सब कुछ हैं । वे ही देवता
हैं; देवताओं की अलग कोई सत्ता नहीं ।
पूर्व मीमांसा दर्शन के अनुसार-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥
इस वेदमन्त्र के अनुसार मुमुक्षु जनों को भी कर्म
करना चाहिए। वेदविहित कर्म करने से कर्मबंधन स्वतः समाप्त हो जाता है - (कर्मणा
त्यज्यते ह्यसौ, तस्मान्मुमुक्षुभिः
कार्य नित्यं नैमित्तिकं तथा आदि वचनों के अनुसार
भारतीय आस्तिक दर्शनों का मुख्य प्राण मीमांसा दर्शन है। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध अध्याय 27 में उद्धव श्री कृष्ण से उनकी
आराधना के ‘क्रियायोग’ के वर्णन का
आग्रह करते हैं. भगवान इसे ‘कर्मकांड’ के
रूप में समाख्यात करते हुए सांगोपांग रीति और बहुत
विस्तार से पूजन का विधान बताते हैं। उनके अनसार पूजा की तीन विधियां हैं- वैदिक,
तांत्रिक और मिश्रित। किन्तु उन्होंने भगवद्गीता (9-26) की तरह यहां भी कहा है कि ‘श्रद्धा पूर्वक जल मात्र
अर्पित करने से मैं प्रसन्न हो जाता हूँ तब गंध, पुष्प,
धूप, दीप, और
नैवेद्य आदि वस्तुओं के समर्पण से तो कहना ही क्या ’- भूर्यप्यभक्तोपहृतं
न मे तोषाय कल्पते
गन्धो धूपः समुनसो ऽदीपोनादय च किं पुनः।
(11/27/18)
श्री रामचरित मानस में कर्म मीमांसा, यज्ञादि अनुष्ठान तथा स्वर्दि
भोग के प्रसंग यत्र तत्र सर्वत्र विद्यमान हैं । श्री राम का जन्म, विवाह, वनवास और रावण से हुआ महायुद्ध कर्म और
कर्मफल की ही सांसारिक विधान की प्रतिष्ठा की स्वीकृति है । इसमें निशाचरों द्वारा
तामसिक यज्ञ के सत्य को भी स्वीकार किया गया है –
‘कहुँ
महिष मानुष धेनु खर अज खल निशाचर भक्षहीं’ सुंदरकांड
यहाँ तककि आततायी मेघनाद के ऐसे ही घोर तामसिक
यज्ञ का भगवान राम की आज्ञा से लक्ष्मण, अंगद हनुमान आदि विध्वंस करते
हैं –
‘जाइ कपिनह सो देखा बैसा । आहुति देत रुधिर अरु
भैंसा
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधन्सा ।‘ सुंदरकांड
76/1-2
भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
ते तं भुक्त्वा
स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये
मर्त्यलोकं विशान्ति । एवं त्रयीधर्ममानुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते । (11/21)
अर्थात् सकाम करने वाले व्यक्तियों को स्वर्ग से
वापिस लौटना पड़ता है और उनका पतन भी संभव है । रामचरित मानस में ऐसे सकाम महान्
सम्राट प्रतापभानु को को अंतत: रावण बनना पड़ता है क्योंकि उसने एक सकाम
यज्ञानुष्ठान की कामना की थी –
‘ जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ । बाल. 164
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक
3. निर्वचन मार्च 2024
रामलला का
विश्व-वैराट्य
अयोध्या में 22 जनवरी 24 को पाँच
वर्षीय रामलला की प्रतिष्ठापना के संदर्भ में जिनके मन में यह प्रश्न उपस्थित होता
रहा है कि राम के राजा के रूप में उनके पूर्ण विकसित स्वरूप का निदर्शन ही क्या
यहाँ अधिक उचित नहीं होता उन्हें भगवान श्री शिव के इन ‘वचनों’ को याद करना चाहिए
क्योंकि इसके बाद ही पार्वती की बौद्धिक ‘कुतर्क रचना’ मिट गई और वे श्री राम की
उपासक बनकर ‘दारुण असंभावनाओं’ को पार कर गईं –
झूठेऊ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहचानें
जेहि जाने जग जाई हेराई । जागत जथा
सपन भ्रम जाई ।
बंदऊँ बाल रूप सोइ रामू ।
किन्तु कुतर्क की इस ‘रचना’ के आज
अनेक पैरोकार तनकर सामने खड़े देखे जा सकते हैं । उनका तर्क है कि ‘रामायण’ के
‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ को किस आशय से एक छोटे पायदान ‘रामलला’ की शैशवता में
सीमित किया जा रहा है ? उन्हें सोलहवीं सदी की वैष्णवी
भक्तिधारा के वात्सल्य भाव की उपासना में भी एक सीमित ध्येय की ही पूर्ति तो दिखाई
देती ही है, उनके द्वारा वर्तमान के युगांतरकारी
प्राण प्रतिष्ठा कार्य को एक विचलन भी प्रतिपादित किया जा रहा है !
यह भी कहा जा रहा है कि ‘अवध’ के
राजा राम में एक प्रकार से ‘व्रज’ के कृष्ण के
लीलाभाव को आरोपित कर राम के परमादर्श को मात्र उपासना की सीमा में लाना एक प्रकार
से उन्हें उनकी ‘पुरुषोत्तमता से अपदस्थ करना है । और विडंबना यह नहीं कि यहाँ
उनके लिए रामकथा विषयक कुछ उत्तरवर्ती उपनिषद्, ‘आनंद रामायण’ तथा विशिष्ट अद्वैत आदि काल-धाराएँ जहां संदर्भ हैं
अपितु 500 वर्ष का जीवित और प्रत्यक्ष भारत-अयोध्या का इतिहास भी भूल जाने का ही
विषय रह जाता है !
आदिकवि वाल्मीकि के महाकाव्य
‘रामायण’ के काव्यशास्त्रीय धीरोदात्त नायक राम यदि ‘गुणवान्,
वीर्यवान्, धर्मज्ञ,
कृतज्ञ, सत्यवाक्य और दृढव्रत’ (।।1.1.2।।) हैं तो
यह उनकी ऐसी एकांगिता कैसे हो सकती है जिससे उनका शैशव और नर लीला भाव पूर्णतया
तिरोहित हो जाता हो ? भक्तिकाल
के तुलसी ने जब रामचरित मानस में श्रीराम को ‘शक्ति, शील और सौंदर्य’ का प्रतिमान बनाया तभी वे लोक और वेद की समवर्ती
धाराओं को अपनी भुजाओं में संपूर्णतया समेट लेते हैं । सत्य और शील के राम के परम
धर्म में यदि ‘सत्य’ धर्मध्वज का दंड है है तो ‘शील’ ही वह पताका है जिससे वे कभी
च्युत नहीं होते चाहे वे मानवीय व्यवहार की किसी भी क्लिष्ट स्थिति में न पहुँच गए
हों । इसकी आदिकवि सहित अन्य किसी भी रामायण से तुलना के ऐसे अनेक प्रसंग लिए जा
सकते हैं जिनमें षडंग वेद के ज्ञाता जन-कवि तुलसी ने आदर्श के सभी परिमाणों से
उन्हें परमोच्च प्रमाणित करते हैं ।
अत: मुझे यह उचित प्रतीत
होता है कि तुलसी की रचनाओं के यहाँ हम कुछ उन प्रसंगों का एकसाथ स्मरण करलें
जिनमें हमें ‘रामलला’ की छवि के दर्शन सुलभ होते हैं –
आदि सारदा गनपति गौरि मनाइय हो
रामलला कर नहछू गाइ सुनाइय हो ।
जेहि गाए सिधि होइ परम निधि पाइय हो
कोटि जनम कर पातक दूरि सो जाइय हो ।
- रामलला नहछू
अवधेस के द्वारे सकारे गई, सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच-विमोचन को ठगि सी
रही, जे न ठगे धिक से॥
तुलसी मनरंजन रंजित-अंजन नैन सु-खंजन-जातक से।
सजनी ससि में समसील उभै नवनील सरोरुह से बिकसे॥
तन की दुति श्याम सरोरुह लोचन
कंज की मंजुलताई हरैं ।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंग
की दूरि धरैं ॥
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि ज्यों किलकैं
कल बाल बिनोद करैं ।
अवधेस के बालक चारि सदा 'तुलसी' मन मंदिर
में बिहरैं ॥ - कवितावली
कनक-रतनमय पालनो रच्यो मनहुँ मार-सुतहार
बिबिध खेलौना, किङ्किनी,
लागे मञ्जुल मुकुताहार
रघुकुल-मण्डन राम लला ||
जननि उबटि, अन्हवाइकै,
मनिभूषन सजि लिये गोद |
पौढ़ाए पटु पालने, सिसु निरखि मगन
मन मोद दसरथनन्दन राम लला॥
………….,,,,,,,
बालचरितमय चन्द्रमा यह सोरह-कला-निधान
चित-चकोर तुलसी कियो कर प्रेम-अमिय-रसपान
तुलसीको जीवन राम लला || -गीतावली
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई । आनन अमित
मदन छबि छाई
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे । नासा तिलक
को बरनै पारे ।
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला । अति
प्रिय मधुर तोतरे बोला ।
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे । बहु
प्रकार रची मातु सँवारे ।
पीत झगुलिया तनु पहराई । जानु पानि
बिचरन मोहि भाई ।
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा । सोइ जानइ सपनेहु जेहु देखा । रामचरित मानस
जीवन, व्यवहार, दर्शन, विज्ञान, मानवता, राजनीति, धर्म, आस्था और युद्ध की अनेक फिसलन भरी आज
की इस धरती में अविजित अयोध्या में जागने वाला ‘लला’ विश्व साम्राज्य का कल कौन सा
पृष्ठ अनावृत करेगा, अब तो इसकी प्रतीक्षा और परीक्षा भी पूर्ण हो गई है ।
प्रभुदयाल मिश्र,
प्रधान संपादक
4.
निर्वचन माह अप्रैल
2024
योग दर्शन और रामचारित मानस
गोस्वामी तुलसीदास
षड्दर्शन पारंगत थे । हम देख चुके हैं कि उनके महाकाव्य रामचरित मानस के कथानक में
सभी दर्शनों के सारतत्त्व का समावेश हुआ है । इसी क्रम में यहाँ योगदर्शन की
यत्किंचित झलक का अभिचिन्तन किया जा रहा है ।
बालकांड के स्तुति
क्रम में विदेहहराज जनक का स्मरण (16/2) करते हुए गोस्वामी जी मानस में लिखते हैं कि इस वीतराग राजर्षि ने राजभोग में
अपने ‘योग’ को प्रच्छन्न कर रखा था किन्तु राम (ब्रह्म) के साक्षात्कार के साथ ही
उनका ‘योग’ भाव सुस्पष्ट हो गया –
जोग भोग महँ राखेउ गोई
। राम बिलोकत प्रकटेउ सोई ।
योगाग्नि के
अभिव्यक्तीकरण दो दृष्टांत मानस में प्रकट है – सती का आत्मदाह (बा. 63/8) और सरभंग
ऋषि का स्वर्गारोहण-
अस कहि जोग अगिनि तन
जारा । भयेऊ सकल मख हाहा कारा ।
अस कहि जोग अगिनि तनु
जारा । राम कृपा बैकुंठ सिधारा । अर. 8/1
लक्ष्मण गीता प्रसंग
में श्री राम लक्ष्मण को योग का वही सूत्र प्रदान करते हैं जो भगवान श्री कृष्ण
गीता में अर्जुन को देते हैं –
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रामिह
विद्यते
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि
विंदति । 4/38
धर्म ते बिरति जोग ते ग्याना
। ग्यान मोचछप्रद बेद बखाना । अर. 15/1
योग दर्शन का उद्देश्य पुरुष को दुःख, अज्ञान से, मुक्त कराना है। कोई उसे कैवल्य कहता है, कोई मोक्ष,
कोई निर्वाण। ऊपर पहुँचकर जिसको जैसा अनुभव हो वह उसे उस प्रकार
कहे। वस्तुत: वह अवस्था ऐसी है, यतो वाचो निवर्तते
अप्राप्य मनसा सह - जहाँ मन ओर वाणी की पहुँच नहीं
है।
पतंजलि ने 'पुरुष विशेष'
नाम से ईश्वर की सत्ता को भी माना है। योग की साधना की दृष्टि से
ईश्वर को मानने, न मानने का विशेष महत्व नहीं है। ईश्वर की
सत्ता को मानने वाले और न मानने वाले, दोनों योग में समान
रूप से अधिकार रखते हैं।
गीता १८ वें अध्याय के ६५-६६ श्लोकों में श्री कृष्ण
द्वारा जिस "मैं" के प्रति समर्पण के लिये कहा है उस "मैं"
में समग्र सृष्टि और स्रष्टा समाविष्ट तो हैं ही, हमारा अपना वह मैं
भी समाविष्ट जिसे अलगकर हम अपनी प्रातिभासिक पहचान को वास्तविक मान बैठे हैं । इस ‘मैं’
को वे 15 वें अध्याय के श्लोक 15 में समझाते हुए बताते हैं –
‘वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यो वेदांतकृद्वेदविदेव चाहम्’
अर्थात् वेदों में जानने योग्य ‘मैं’ (आत्मतत्त्व) ही है जो
कि वेदान्त का कर्ता और कारक दोनों ही है ।
श्रीकृष्ण गीता में बार-बार उसे अपना भक्त और परमप्रिय
मानते हैं जो "सर्वभूत हिते रत:" है । इस प्रकार जब कोई समर्पण भाव से
भी भगवान के निकट पहुँचता है तो वह इस अविभाज्य एकत्व की आत्मानुभूति हो जाने के
कारण स्वभावत: जीव मात्र के हित की कामना करने लगता है ।
श्री रामचरित मानस के उत्तरकांड में अयोध्या की प्रजा को
समझाते हुए जैसे ईश्वर की इसी विराटता का आख्यापन करते हैं –
‘नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो । सन्मुख मरुत अनुग्रह
मेरो।‘ 43/ 4
योग की क्षमता और विभूतियों का मानस के अनेक चरित्रों में
परम प्रकर्ष ही देखने को मिलता है ।भगवान शिव की अखंड समाधि,श्री
वशिष्ठ और विश्वामित्र द्वारा श्री राम और लक्ष्मण को दुर्लभ योग क्षमताओं का
अभिदान आदि इसके कुछ अन्य उदाहरण हैं ।
महारामायण (योगवाशिष्ठ) तो योग और वेदान्त के समन्वय का परम
प्रकर्ष ही है जिसमें गुरु वसिष्ट श्री राम को कागभुशुंडि, चूड़ाला और सरस्वती आदि
चरित्रों के माध्यम से योग की परम सिद्धावस्थाओं का अभिचित्रण करते हैं जिसकी झलक मानस
के श्री हनुमान, संपाती, स्वयंप्रभा, अगस्त्य और आकाशगामी असुरों के चरित्र में
देखी जा सकती है ।
प्रधान संपादक
5. निर्वचन मई 2024
वेदान्त मानस में
गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस
की रचना के ध्येय का प्रतिज्ञा कथन वेदव्यास की श्रीमद्भागवत के इस शार्दूल
विक्रीड़ित छंद में रचे प्रथम श्लोक में स्पष्टत: देखा जा सकता है -
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदि - कवये
मुह्यन्ति यत् सूरयः ।
तेजो-वारि- मृदां यथा विनिमयो
यत्र त्रि-सर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं
सत्यं परं धीमहि ॥
इसके सरल अर्थानुसंधान में यह
समझना उचित है कि- अपनी परम भास्वरता में अंधकार के विदारक उस परम सत्य (
श्रीकृष्ण) का हम अवराधन करते हैं जो सृष्टि का आदि और अंत और प्रत्यक्ष तथा अनुमान
के भी परे अस्तित्व की सम्पूर्ण अर्थवत्ता से सर्वथा अभिज्ञ है। जिसके हृदय में ब्रह्मा स्थित हो उस बोध को
प्राप्त करते हैं जिससे परम विज्ञ भी अग्नि, जल और मिट्टी में एक दूसरे का आभास
(मृग मरीचिका आदि) कर विभ्रमित होते है तथा जिससे त्रिगुणमय मिथ्या संसार सत्य
प्रतीत होता है ।
इसी प्रकार रामचरित मानस के आरंभ
के छठे श्लोक में तुलसीदास जी श्रीराम की वंदना इस प्रकार करते हैं –
यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव
भाति सकलं रज़्जौ यथाहेभ्रम:
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देsहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं
हरिम् ।
मानस के इस भाव में परमात्मा की रचना, प्रकाश, परिपूर्ण सत्ता और उनकी
विभ्रमकारी माया के भाव के साथ श्रीराम के रक्षक और उद्धारक सगुण स्वरूप का भी
स्मरण किया गया है । यह तुलसी की युगीन साक्ष्य और युग सत्य का प्रवर्तन है ।
इन प्रतिज्ञा कथनों में जैसे वेदान्त की प्रस्थान त्रयी -उपनिषद,
ब्रह्म सूत्र और भगवद्गीता का सार संग्रह तो हो ही गया है, परम सत्य स्वरूप
परमात्मा को मानवीय चेतना की परिधि में भी पहुंचा दिया गया है। यहाँ ऋग्वेद के ऋषि
हिरण्यगर्भ के नासदीय सूक्त की भांति सृष्टि रचना से वह परमव्योम का
‘अध्यक्ष’ अनविज्ञ (यदि वा न वेद !) न होकर उसकी उत्पत्ति, रक्षा और संहार का संप्रभु (स्वराट्) निमित्त और उपादान कारण है ।
वेद के शिरोभाग
वेदान्त का सार संदेश यदि एक पंक्ति में समाहित करना है, तो यजुर्वेद 40/1 से निम्नलिखित
मंत्र उद्धृत किया जा सकता है -
ईशावास्यमिदं
सर्वं यत्किंचजगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन
भुन्जीथः मा गृधः कस्यस्वित्धनम् ।
ईशावास्य के ४ से लेकर ८ तक के पांच मंत्र ईश्वर की
‘निखिल धर्म विरुद्ध आश्रयी’
विशेषताओं का निरूपण करते हैं।
इसके अनुसार ईश्वर देवताओं और मन
से भी तीव्रतर गतिशील, भीतर और बाहर सामान रूप से समुपस्थित,
अकाय,
शुद्ध,
कवि,
मनीषी,
परिभू और स्वयम्भू है।
उसे इस रूप में देखने वाले मैं और
तू जैसा भेद नहीं रखते. अतः उनके लिए जीवन में किसी प्रकार का शोक या मोह उत्पन्न
नहीं होता।
मानस में तुलसी ने ईश्वर की इन विशेषताओं का अनेकशः वर्णन
किया है. वह –
बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना,
कर बिनु करम करइ विधि नाना ( बाल.
११७ ३-४) है तथा उसे इस रूप में देखने वाले यही जानते हैं कि –
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत (किष्कि. ३)
वैदिक दर्शन के व्याख्याकारों ने इन सिद्धांतों की विस्तृत
और गहन व्याख्या की है। सामान्यतया इन्हें भौतिक और अध्यात्म तथा व्यक्त और
अव्यक्त धाराओं का प्रतीकार्थी कहा जा सकता है. तुलसी ने भी सृष्टि संरचना में
प्रधान ईश्वरीय सामर्थ्य ‘माया’ को ‘विद्या अपर अविद्या दोऊ’
(बाल १४/२) भेद वाला माना है।
संक्षेपतः यहाँ यह कहना भी आवश्यक है कि उपनिषद् में
‘विद्या’
और
‘सम्भूति’
के लिए
‘रत’
विशेषण प्रयुक्त है।
इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञान के
प्रति आसक्ति होने पर वह भी बंधनकारी ही होता है।
तुलसीदास जी जैसे सार रूप में समझा
देते हैं-
ज्ञान मान जहं एकउ नाहीं,
देख ब्रह्म समान जग माहीं (आरण्य.
१४/४)
औपनिषदिक शब्दावली में ही तुलसी
‘ज्ञान पथ’
की तुलना कृपाण की धार
(उत्त.११८/१) से करते हैं. अर्थात ज्ञान के मार्ग में भटकने के पूरे अवसर हैं.
किन्तु जब ईश्वर की सर्वव्यापकता किसी की अनुभूति बन जाती है तो यहीं मृत्यु से
संतरण के बाद उसकी अमृत में प्रतिष्ठा होती है।
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक
6. निर्वचन जून 2024
रामकथा के विविध आयाम
ब्रह्म राम आध्यात्मिक, राम अवतार आधि दैविक और
दशरथ पुत्र आधिभौतिक हैं । इस कथा के मानस के तीन वक्ता
क्रमश: ऋषि याज्ञवल्क्य, भगवान शिव और काकभुशुंडि जी महाराज हैं । इनके सामने जो
मूल प्रश्न समाधान के लिए प्रस्तुत हुए हैं वे इस प्रकार हैं –
1.
ऋषि भारद्वाज ने महर्षि याज्ञवल्क्य
जी से मुख्यत: निम्न प्रश्न का समाधान चाहा गया है –
राम नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान
उपनिषद गावा ।
... प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि
जपत त्रिपुरारि । 1/46
2.
माता पार्वती ने भगवान शिव से राम के
अवतारत्व को लेकर अपना मूल प्रश्न इस प्रकार उपस्थित किया –
जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि
बिरहं मति भोरि
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि
अति मोरि । 1/108
3.
मोह ग्रस्त गरुड ने कागभुशुंडि जी
से अपना अनुरोध इस प्रकार प्रस्तुत किया –
अब श्री राम कथा अति पावनि ।
सदा सुखद दुख पुंज नसावनि
सादर तात सुनावहु मोही । बार बार बिनबउं प्रभु तोही । 7/64
रामकथा के बहुआयामी विस्तार और महत्व को स्वयं
गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस में 20 बार जिस प्रकार रेखांकित करते हैं, वह
इस प्रकार है -
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी । राम कथा जग
मंगल करनी । 1/10
रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु । 1/31
राम कथा कलि कामद गाई । सुजन सजीवन मूल
सुहाई । 1/31
रामकथा कलि पनंग भरनी । पुनि बिबेक पावक
कहुँ अरनी । 1/31
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि । रामकथा कलि कलुष बिभन्जनि । 1/31
राम अनंत अनंत गुण अमित कथा विस्तार
सुनि आचरज न मानहहिं जिन्ह के
बिमल बिचार । 1/33
रामकथा कै मिति जग नाहीं । असि प्रतीति
तिन्ह के मन माहीं । 1/33
महामोहु महिशेषु बिसाला । रामकथा कालिका कराला ।
1/47
रामकथा मुनिबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुख
मानी । 1/48
तब कर अस बिमोह अब नाहीं । रामकथा पर रुचि
मन माहीं । 1/109
उमा बचन सुनि परम बिनीता । रामकथा पर
प्रीति पुनीता । 1/ 120
रामकथा सुरधेनु सम सेबत सब सुख दानि
सत समाज सुरलोक सब को न सुनै आस जानि । 113
रामकथा कलि बिटप कुठारी । सादर सुनु
गिरिराजकुमारी । 1/114
रामकथा सुंदर करतारी । संसय बिहग उडावनिहारी । 1/114
सो मैं तुम्ह सन कहहुँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ । 1.141
भवसागर चह पार जो पावा । रामकथा ता कहुँ
दृढ़ नावा । 7/53
राम कथा सो कहहि निरंतर
। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर । 7/62
पावन पर्बत बेद पुराना । राम कथा रुचिराकर
नाना । 7/120
रामकथा के तेइ अधिकारी । जिन्ह के सत संगति
अति प्यारी । 7/128
रामकथा गिरिजा मैं बरनी । कलि मल समनि
मनोमल हरनी । 7/129
सार रूप में कहें तो श्री राम और
रामकथा के दो प्रमुख आयाम हैं- निर्गुण निराकार ब्रह्म राम तथा सगुण साकार श्री
श्री राम । और इसे भी यदि सम्पूर्ण सारवत्ता में समेटना है तो हं कह कह सकते हैं –
राम भारत की
आत्मा और परमात्मा हैं । वे विश्वमय हैं और विश्वोत्तीर्ण भी । वे सगुण साकार हैं
तो पूर्ण निर्गुण निराकार भी । वे मनुष्य के भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ ही सभी
कालों के परे एक चिरंतन सत्ता हैं। किसी अस्तित्व की इतनी परिपूर्ण जागतिक इकाई
पुराण अथवा महाकाव्य की परिकल्पना न होकर ब्रह्मांड चेतना का सम्पूर्ण साक्षात्कार
ही है ।
प्रधान
संपादक, तुलसी भारती, मानस भवन, श्यामला हिल्स, भोपाल-2 (9425079072)
7. निर्वचन जुलाई 24
सीता का भागपत्य स्वरूप
रामचरित मानस की वंदना के पांचवें श्लोक
-उद्भवस्थिति संहार कारिणीम्, कस्यप-अदिति द्वारा उनके दर्शन काल में – भृकुटि
बिलास जासु जग होई (बालकांड 147/2) और राम की वन यात्रा में वाल्मीकि वाक्य- जो
सृजति जगु पालति हरति (अयोध्या कांड छंद) में सीता के भगवदीय संदर्भों से ‘सीताराम’
के भक्तों का इस अर्थ में विस्मित होना स्वाभाविक है कि वनवास, अपहरण, परीक्षा और
जागतिक संताप भोगने वाली सीता की उक्त पहचान गोस्वामी तुलसीदास कहाँ से उठाते है ?
रामकथा के आदि स्रोत वाल्मीकि रामायण में राम की भांति ही ‘सीताया: महतं चरित’ का
बखान मात्र है, उनके पराशक्ति होने का अनुसंधान नहीं । यहाँ तक कि अध्यात्म रामायण
में सीता के संघर्ष को आध्यात्मिक स्वरूप में व्याख्यायित किया गया है । इस प्रकार
तुलसी की अवधारणा का मुख्य आधार सीतोपनिषद् प्रतीत होता है । सीतोपनिषद् 108 उपनिषदों की सूची में सम्मिलित
प्राप्त है तथा इसके मंत्रों की कुल संख्या 37 है । इसमें प्रजापति ब्रह्मा इसके
आरंभ में ही देवताओं को सीता का परिचय इस प्रकार प्रदान करते हैं –
मूलप्रकृतिरूपत्वात् स: सीता प्रकृति स्मृता
प्रणवप्रकृतिरूपतत्वात् सा सीता प्रकृतिरुच्यते ।
गीता के सातवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण श्लोक 4
में पाँच महाभूतों और मन, बुद्धि तथा अहंकार युक्त अष्टधा प्रकृति को अपरा तथा
श्लोक 5 में परा उस चेतन प्रकृति का वर्णन करते हैं जो सम्पूर्ण जगत को संधारित
करती है –
भूमिरापोsनालो वायु: खं मनो
बुद्धिरेव च
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।
अपरेयमितस्त्वन्या प्रकृतिं बिद्धि मे पराम्
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् । गीता
7/4-5
इस प्रकार सीता के भागवत्य स्वरूप दर्शन के सनातन
सिद्धांत के प्रचुर आधार हैं ।
सीतोपनिषद् के अगले मंत्र 7 में कहा गया है –
श्रीरामसान्निध्यवशाज्जगदाधारकारिणी
उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी सर्वदेहिनाम्
सीता भवति ज्ञेया मूल प्रकृति संज्ञिता
प्रणवत्वात् प्रकृतिरिति वदंति ब्रह्म वादिन: । 7-8
सीता के वेद, उपवेद, वेदांग, इतिहास और पुराण में
व्यापकत्व पर प्रकाश डालते हुए इस उपनिषद में यह भी कहा गया है –
इतिहासपुराणाख्यामुपांगश्च प्रकीर्तित:
वास्तुवेदो धनुर्वेदो गांधर्वो दैविकस्तथा
आयुर्वेदश्च पंचैते उपवेदां प्रकीर्तिता: 30
भगवती के रूप में माता सीता समग्र
ऐश्वर्य, धर्म, यश,
श्री, ज्ञान और वैराग्य की अधिष्ठात्री हैं । रामचरित मानस
में गोस्वामी तुलसीदास ने सीता के विभूतिमय ऐश्वर्य का बालकांड में राम की बारात
के सत्कार कार्य में स्पष्ट रूप से वर्णित किया है जो इस प्रकार है –
जानी सिय बरात पुर आई । कछु निज महिमा
प्रकट जनाई ।
हृदय सुमिरि सब सिद्धि बुलाई । भूप
पहुनई करन पठाई
सिधि सब सिय आयसु अकनि गई जहां जनवास
लिए संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास ।
बालकांड 306
लंकाकाण्ड के अंत में जब श्री हनुमान
सीता की मुक्ति की सूचना सहित लंका पहुँचते हैं,
तब सीताजी पुन: हनुमान से पूछती हैं कि वे त्रैलोक में उन्हें क्या प्रदान करें तब
हनुमान घोषणा करते हैं कि वे तो उनके आशीर्वाद संसार के सम्राट ही बने बैठे हैं, इससे बड़ा तो कोई पद है ही नहीं –
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आज न
संशयम्।
रामचरित मानस में सीता जी द्वारा
हनुमान को दिया दिया गया आशीर्वाद वरदाताओं की श्रंखलाओं में अमोघ है । कितने देव
दानवों और मनुष्यों ने कितनी तपस्या नहीं की किन्तु अजर और अमर होने का वरदान ब्रह्मा, विष्णु या महेश में से कोई देव किसी को भी नहीं दे पाया । पर सीता जी
हनुमान को यह वरदान इसकी परिपूर्णता में प्रदान करती हैं –
अजर अमर गुननिधि सुत होऊ । करहि सदा
रघुनायक छोहू ।
प्रभुदयाल मिश्र, प्रधान संपादक
(9425079072)
8. निर्वचन अगस्त 2024
श्रीराम तवास्मि- चरम मंत्र
श्रीमद्भगवत्गीता के 18 वें अध्याय का 66वां यह
श्लोक गीता का परमोत्कर्ष और श्रीकृष्ण के ‘चरम मंत्र’ के रूप में अभिज्ञात है –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षिष्यामि मा शुच: ।
अपने ‘सर्वगुह्यतं’ और ‘परम’ वाक्य के रूप में श्रीकृष्ण
अर्जुन को अंतत: यहाँ यही कह रहे हैं कि सभी कर्म-धर्म और विधि-निषेध क्रियाओं का
त्याग कर मात्र उनके शरणागत हो जाओ । इस प्रकार आगे वह पूरी तरह से निश्चिंत हो
जाए । वे उसे सभी पापों (कृत- अकृत) से मुक्त कर देंगे ।
यहाँ इस विषय पर विस्तार से विचार का प्रसंग
नहीं है तथा यह विचार कि ‘धर्म’ क्या है, ‘मैं’ क्या है, ‘पाप’ क्या है तथा विधि
और निषेध अथवा कृत-अकृत क्या है आदि पर भी विचार योग्य नहीं है क्योंकि हम केवल शीर्षोक्त
इस कथन की मंत्रात्मक शक्ति पर ही केंद्रित हैं ।
श्रीकृष्ण के इस कथन का समान मंत्रार्थी श्लोक
वाल्मीकि रामायण में श्रीराम का उनके शरणागत हुए समुद्र के प्रति यह संवोंधन सर्वथा
स्मरणीय है –
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम् ।
(वाल्मीकि रामायण 6/18/33)
वाल्मीकि के राम किसी के भी समर्पण की इस
आकस्मिक प्रपन्नता में जितनी परिपूर्णता भरते हैं तुलसी के राम विभीषण की शरणागति
में जैसे उसकी प्रगाढ़ता में सम्पूर्ण फलश्रुति ही प्रकट कर देते हैं –
सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहिं बांध बरि
डोरी
समदरसी इच्छा कछु नाहीं । हरष सोक भय नहिं मन
माहीं ।
अस सज्जन मम उर बस कैसे । लोभी हृदय बसइ धन जैसे
।
स्पष्ट है कि तुलसी के राम यहाँ वाल्मीकि के राम
और व्यास के श्रीकृष्ण की भांति ही एकबारगी सभी लौकिक सम्बंध, इच्छा, और राग-
द्वेष के परे परमात्मा के प्रति जिस चरम समर्पण की बात कर रहे है विभीषण की उसी
‘निर्भरा’ भक्ति से वे यहाँ रीझ रहे हैं तथा आगे उत्तरकाण्ड में कागभुशुंडि को सार
रूप में इसे कुछ इस प्रकार समझाते हैं –
सत्य कहहुँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय
अस बिचारि भजु मोहि परिहर आस भरोस सब । उत्तर
87ख
श्री रामोपासना के षडक्षर महामंत्र (तारक) द्वै
मंत्र- श्रीमते रामचन्द्राय नम: तथा ‘एक छत्रु’ और एक ‘मुकुटमनि’ द्विवर्णी ‘राम’
के अतिरिक्त क्रियात्मक इस ‘चरम मंत्र’ की साधना की फलवत्ता समग्र, तात्कालिक और दुर्निवार कही गई है ।
श्रीरामचरित मानस में इस कोटि के उपासक अनेक हैं
। श्री दशरथ, भरत, लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण, केवट, शबरी, जटायु, कागभुशुंडि, नारद
आदि नाम तो लिए ही जा सकते हैं पर उनके वन और युद्ध भूमि के सहचर तथा अयोध्या की
प्रजा भी इस परम साधना भूमि में अवस्थित देखी जा सकती है ।
और सबसे अलग तथा सर्वोत्कृष्ट केंद्र भूमिका में
तो गोस्वामी तुलसीदास ही स्थित देखे जा सकते हैं जिन्होंने भक्ति की इस अजस्र धारा
को मानस के महासागर में जैसे संविलीन ही कर लिया। सुंदरकांड के आरंभ में वसन्ततिलका
छंद में निबद्ध यह दूसरा श्लोक तो उनका स्वयं इस भक्ति धारा में सतत प्रवहमान होना
ही संसूचित करता है -
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेsस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।
इस प्रकार आपका हूँ श्रीराम –‘तवास्मि श्रीराम’ अथवा ‘तवास्मि श्रीकृष्ण’ ही वह चरम मंत्र है जिसका समर्पण भाव जीवन मुक्त भगवद् सानिध्य प्रदान कराता है । यही वह निर्भरा भक्ति भी है जो भागवतों का परम ध्येय और तुलसी की समाराधना का ध्यातव्य है ।
9. निर्वचन सितंबर 2024
शीर्षोक्त पद श्रीमद्भागवत के पहले श्लोक के द्वितीय चरण का एक अंश है। इसका संक्षिप्त आशय इतना है कि परंब्रह्म के हृदय में अवस्थित होकर आदि कवि- ब्रह्मा जी ने वेद के ज्ञान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया । हमारी सामान्य धारणा के अनुसार ‘आदिकवि’ वाल्मीकि जी हैं जिन्होंने सृष्टि के प्रथम महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की । किन्तु वेदव्यास जी इस श्लोक में ब्रह्मा को ही आदिकवि बताते हैं । विद्वानों की मान्यता है कि इन ब्रह्मा जी ने पश्चात् स्वयं ही वाल्मीकि के रूप में जन्म लेकर यथार्थत: आदिकवि की संज्ञा प्राप्त की तथा वेद का सार तत्त्व को रामायण के रूप में प्रस्तुत किया जो कालांतर में वेद का सार तत्त्व, वैश्विक मर्यादा और जीवन के सनातन ध्येय का आधार बनता है ।
किन्तु संस्कृत के 24 हजार श्लोकों में लिखे इस
महाकाव्यात्मक ग्रंथ की पारंगतता की भी सीमाएं हैं । यद्यपि इस कथा का विस्तार
नाना पुराणों में स्वयं व्यास ने और अनेक लोक
भाषाओं में देश और देशान्तर के विविध मनीषियों और कवियों ने किया किन्तु
मध्यकाल में उत्तर भारत की विविध बोलियों जैसे ब्रज, अवधी, बुन्देली, राजस्थानी,
कुमाउनी, गढवाली, भोजपुरी, मैथिली, मागधी-हिमाचली, हरियाणवी की समन्वित (हिन्दी)
भाषा में जिस सत्य-बोध की आवश्यकता थी उसकी पूर्ति इसे ‘भाषा बद्ध’ कर गोस्वामी
तुलसीदास ने ही की जिन्हें नाभादास जी ने अपने भकतमाल की ‘सुमेरु मणि’ मानकर यह
घोषणा ही कर दी –
कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो ।
(129)
यह बहुत स्पष्ट है कि तुलसी को अपने काल के बोध
के साथ-साथ इस सनातन प्रज्ञान को सभी वर्गों जैसे विद्वान, ग्रहस्थ, सन्यासी,
जिज्ञासु, राज, समाज, साहित्य और मानव मात्र को
अनुकरणीय और अनुगमनीय बनाना था इसलिए उन्होंने वाल्मीकि जी के परवर्ती पुराण,
संहिता और दर्शन आदि विभाग तथा लोक जीवन को भी आत्मसात् कर उसका सम्यक उपयोग किया
। यह अनुमान किया जा सकता है कि रामकथा को इतना बहुआयामी धरातल प्रदान करने के लिए
तुलसी ने भाषा की व्यंजना शैली का भी उपयोग किया जिसके कारण जहां इस ग्रंथ के
निरंतर पाठ की आवश्यकता उत्पन्न हुई वहीं इसके भावबोध को ठीक से समझने के लिए विद्वानों,
कथावाचकों और साहित्यिक शोधाचार्यों की उपयोगिता स्वाभाविक रूप से थी । तुलसीदास
जी के समकालीन वेदान्त के परमाचार्य मधुसूदन जी सरस्वती से लेकर, टोडर मल, रहीम,
मीराबाई, केशवदास तथा वर्तमान युग में जार्ज ग्रियर्सन, रामचन्द्र शुक्ल, फादर
कामिल बुल्के, धर्मसम्राट करपात्री जी आदि सभी उनके निहितार्थ को समझाने में
प्रवृत्त हुए । किन्तु यह ज्ञातव्य ही है कि रामकथा की जहां ऐतिहासिकता के
प्रमाणों की आवश्यकता बनी रहती है वहीं इसकी वर्तमान प्रासिंगकता पर विचार भी हमें
अभीष्ट हो जाता है ।
आज से सौ वर्ष पूर्व आविर्भूत युग तुलसी पंडित
रामकिंकर जी उपाध्याय ने रामकथा के दर्शन को सार्वभौमिक और सार्वकालिक संदर्भ देकर
इसके अर्थ का अभिनव विस्तार किया । स्वयं गोस्वामी जी का कहना है कि ‘वेद पुरान
उदधि घन साधू’ । अर्थात् जिस प्रकार समुद्र के खारे जल को बादल पेय बनाते है वैसे
ही साधु महात्मा वेद और पुराण के दुरूह बोध को हमारे लिए समझने योग्य बनाते हैं । इसीलिए
लसी स्वयं ही जैसे युगानुकूल श्री ‘राम किंकर जी’ के रूप में प्रकट होकर अपने निहितार्थ
को प्रकट कर रहे होते हैं । जब तुलसी ‘निज
मन मुकुर सुधार’ की स्वचेष्टा और आवश्यकता पर जोर देते हैं तो वे जैसे यही संदेश
देते हैं कि रामकथा को हम दर्पण बनाकर अपने परिष्कार की पाठ के साथ समानांतर जीवन यात्रा
को भी गति और विस्तार दें । उनके अनुसार
जब राजा दसरथ राजसभा में स्वभावत: ‘कर मुकुर’ लेकर ‘मुकुट’ सँवारते हैं तो यही
संदेश देते हैं कि हमें किस प्रकार आत्मावलोकन करते हुए वर्तमान के साथ चलना
आवश्यक है ।
हम इसी दृष्टिकोण और ध्येय से पत्रिका के इस अंक
को ‘युग तुलसी श्री रामकिंकर’ विशेष के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं ।
10 अक्टूवर 24
निर्वचन अक्तूबर 2024
गुन सागर
नागर नाथ बिभो
रामचरित मानस लंकाकाण्ड में रावण वध के उपरांत
ब्रह्मा जी श्री राम का स्तुति गान करते हुए कहते हैं –
जय राम सदा सुखधाम हरे । रघुनायक सायक चाप धरे
भव बारन दारन सिंह प्रभो । सुन सागर नागर नाथ
बिभो
अर्थात् श्री राम गुणों के समुद्र और सभी कलाओं
के स्वामी हैं । भारत की सनातन ज्ञान परंपरा में भगवान के मुख्य 10 अथवा कुल 24
अवतारों में श्रीराम और श्रीकृष्ण का अवतार सम्पूर्ण कला सम्पन्न हैं । यद्यपि लोक
व्यवहार में श्रीराम को द्वादश तथा श्रीकृष्ण को सोलह कला युक्त माना जाता है
किन्तु इसका एक आशय उनका क्रमश: सूर्य और चंद्र वंश से संबंधित होना भी कहा जाता
है जिनकी क्रमानुसार बारह और सोलह कलाएँ प्रसिद्ध हैं । भगवान वेदव्यास श्रीकृष्ण
को भागवत के आरंभ (1.1.1) में ब्रह्मा के साक्षात्कार में ‘स्वराट्’ और ‘परम सत्य’
के प्रत्यक्ष पर्याय कहकर उपसंहारत: (12/13/19) ‘सत्यं परम धीमहि’ कहते हैं ।
जीवन में जहां गुण प्रधानतया संस्कार जन्य
(ज्ञान सापेक्ष) हैं वहीं कलाओं का बोध उच्च शिक्षा और सतत अभ्यास (क्रिया) सापेक्ष
होता है । किन्तु भगवान के संबंध
में अग्नि पुराण और विष्णु पुराण में निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया गया है -
उत्पत्तिं प्रलयञ्चैव भूतानामगतिं
गतिम्।
वेत्ति विद्यामविद्याञ्च स वाच्यो
भगवानिति ॥ (अग्निपुराण अध्याय ३७९ श्लोक – १३
अर्थात् भगवान संसार की रचना, इसके
संहार तथा प्राणियों के विकास और विनाश सहित विद्या और अविद्या (ज्ञान) का स्वामी
है ।
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य
यशसरिश्रयः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥ (विष्णु पुराण ६।५।७४)॥
अर्थात भगवान में समग्र संप्रभुता,
धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य आदि छ: गुण विद्यमान रहते हैँ । वाल्मीकि जी धरती के
आदि महाकाव्य रामायण की रचना में संलग्न होते हुए देवर्षि नारद से श्रीराम के जिन
गुणों और कलाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं वे इस प्रकार परम विशिष्ट ही हैं –
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनै: श्रुत: ।
नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान्धृतिमान्वशी।।
बुद्धिमान्नीतिमान्वाग्मी श्रीमाञ्छत्रुनिबर्हण:।
विपुलांसो महाबाहु: कम्बुग्रीवो महाहनु ।।
महोरस्को महेष्वासो गूढशत्रुररिन्दम:।
आजानबाहु: सुशिरा: सुललाट: सुविक्रम: ।।
सम: समविभक्ताङ्ग: स्निग्धवर्ण: प्रतापवान् ।
पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवाञ्छुभलक्षण: ।।
धर्मज्ञ: सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रत: ।
यशस्वी ज्ञानसम्पन्न: शुचिर्वश्य: समाधिमान् ।।
प्रजापतिसम: श्रीमान्धाता रिपुनिषूदन: ।
रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ।।
रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता ।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठित: ।।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ: स्मृतिमान्प्रतिभावान् ।
सर्वलोकप्रिय: साधुरदीनात्मा विचक्षण: ।।
सर्वदाभिगत: सद्भि: समुद्र इव सिन्धुभि: ।
आर्य: सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शन: ।।
स च सर्वगुणोपेत: कौसल्यानन्दवर्धन: ।
समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ।।
विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शन: ।
कालाग्नि:सदृश: क्रोधे क्षमया पृथिवीसम: ।।
(श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणे बालकाण्डे प्रथमसर्गे श्लोक ८-१८)
यहाँ श्री राम के जिन गुणों और कलाओं
का हमें परिचय प्राप्त होता है उन्हें सारत: निम्नानुसार परिगणित किया जा सकता है –
1.मनोनिग्रही, 2.
महावीर, 3. शलाका पुरुष, 4. धैर्यवान, 5. आत्मनिग्रही 6. बुद्धिमान, 7. नीतिवान, 8. वाग्मी, 9. कीर्तिवान,
10.शत्रुहन्ता, 11. स्कन्ध स्थूल, 12. लंबी भुजाएँ, 13. ग्रीवा शंख के समान,14. ठुड्डी
मांसल, 15. छाती चौड़ी, 16. धनुष बड़ा, 17. गले के नीचे की हड्डी (हँसुली) मांस से
ढँकी, 18. शत्रु संहर्ता, 19. पोषक, 20. शत्रु नाशक, 21. घुटने तक भुजाएँ, 22. सुंदर मस्तक, 23. ललाट भव्य, 24. गति मनोहारी, 25. शरीर सुडौल, 26.समरूप, 27. स्निग्ध वर्ण, 28. प्रतापी, 29. चौड़ा वक्ष:स्थल, 30. धर्मज्ञ, 31.
आँखें बड़ी, 32. सत्य प्रतिज्ञ, 33. प्रजा
हित सन्निरत, 34. यशस्वी, 35. ज्ञान सम्पन्न, 36. पवित्र, 37. जितेंद्रिय, 38 . समाधिलब्ध, 39.
प्रजापालक, 40. जीव धर्म रक्षक, 41. स्वजन-धर्म रक्षक, 42. वेद-वेदांग वेत्ता, 43.
धनुर्वेद निष्णात, 44. शास्त्रज्ञ, 45. तत्वज्ञ, 46. सुस्मृति सम्पन्न, 47. प्रतिभावान,
48. लोकप्रिय, 49. साधु संरक्षक, 50. निर्धनों के रक्षक 51.सर्व समाहारी, 52. प्रिय
दर्शन, 53. कौशल्या माता का सुख बढ़ाते, 54. समुद्र की तरह गंभीर, 55. हिमालय की
तरह धैर्यवान, 56. विष्णु जैसे बली, 57. चंद्रमा की तरह आकर्षक, 58. काल तरह उग्र 59.
पृथिवी की तरह क्षमाशील, 60. त्याग में कुबेर 61. सत्य में द्वितीय धर्मराज, 62. इक्ष्वाकु
वंश का वैभव
यह विचारणीय है कि इन श्लोकों में श्री राम के चरित्र के सभी आकल्पनीय भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक, दैवीय, और अपरिमित व्यावहारिक गुणों का परिपूर्ण परिपाक है जो उनमें प्रकटत: परिलक्षित थे । इस प्रकार भारतीय ज्ञान परंपरा में कलाओं और विद्या का अर्जन और इनकी शिक्षा की ऐसी विद्यमानता की परिपुष्टि होती है जो सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् का डिंडिभि नाद कहा जा सकता है ।
11. नवंबर
भातीय ज्ञान : परंपरा अथवा सनातनता
सही संदर्भ में भारतीय ज्ञान परंपरा की वास्तविक
पहचान इसकी सनातनता है । इस अर्थ में यह एक सार्वलौकिक, सार्वकालिक बोध और विधान
की परिचायक है । किसी सामान्य इतिहास, विकास और भविष्य के अभिचित्रण से भिन्न
इसमें शाश्वत सृष्टि के स्थिति बोध के अतिरिक्त उस आत्म साक्षात्कार की भी प्रतीति
है जो मनुष्य जैसे प्राज्ञ प्राणी के लिए उसके जीवन में सर्वथा विधेय है ।
इस संदर्भ में भारतीय धर्म की वास्तविक पहचान पर
भी किंचित विचार आवश्यक प्रतीत हो जाता है । यद्यपि ‘धर्म’ को उसकी बहुज्ञ
व्यापकता से छिटका कर वर्तमान सीमित संदर्भ में देखना कदापि उचित नहीं है, किन्तु
जब भारतीय जीवन पद्धति को कभी ‘धार्मिक’, कभी ‘वैदिक’ और कभी ‘हिन्दू’ कहकर उसे
आधुनिक संदर्भ में ख्यापित किया जाता है तो उसके सीमित अर्थबोध की ओर हमारा ध्यान
भटक जाता है । कुछ समय पूर्व अमेरिका में संचालित शोध और विचार अभियान में इसे
‘धार्मिक’ संज्ञा प्रदान की जाती रही है जो एक सामान्य संज्ञा ‘धर्म’ का ही विशेषीकृत
कर दिया जाना है । इस प्रकार का सामान्यीकरण किसी विशेष पहचान से स्वत: दूर ही ले
जा रहा होता है । इसके अतिरिक्त पश्चिम में भारत की अमूल्य ज्ञान निधि ‘वेद’ को भी
सामान्यीकृत किया जा कर रामायण, पुराण और महाभारत, सूत्र आदि को भी वेद का पर्याय बता दिया जाता है
जिससे वेदों के वास्तविक स्वरूप के प्रति भ्रम उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही है ।
जहां तक ‘हिन्दू’ शब्द को भारतीय धर्म, अध्यात्म
और जीवन शिल्प का पर्याय बना देने का प्रश्न है तो यह प्राय: स्पष्ट ही है कि यह
एक दूरी से देखे और समझे गए सत्य की ही प्रतीति है जो वास्तविक कदापि नहीं है ।
इसमें इतिहास, भूगोल और भाषाई यात्रा देखी जा सकती है, किन्तु भारत की
अंत:प्रज्ञा, आंतरिकता और असीमता का साक्षात्कार संभव नहीं है ?
अत: भारत की भौगोलिक पहचान के परे उसकी आंतरिकता
के बोध के लिए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि भारत के ज्ञान को संज्ञा अथवा विशेषण
के रूप में ‘सनातन’ के रूप में ही प्रख्यापित किया जाना आवश्यक है ।
सनातन शब्द को अथर्ववेद में इस प्रकार परिभाषित
किया गया है –
सनातनमेनामाहुरुताद्य
स्यात्पुनर्णव: (10/8/23)
अर्थात् सनातन वह है जो आज भी नया है । यह
स्पष्ट है कि भारतीय ज्ञान को हम अध्ययन की सुविधा के लिए ही एक परंपरा में
परिप्रेक्षित करते हैं। जहां तक इसकी वास्तविक पहचान का प्रश्न है तो उसे किसी
इतिहास अथवा भूत भविष्य के काल क्रम में नहीं बांधा जा सकता क्योंकि सही संदर्भ
में वह कालातीत ही है ।
सनातन शब्द की एक दूसरी परिभाषा वाल्मीकि रामायण
में भी बताई गई है जो उसकी सार्वलौकिकता के संदर्भ को रेखांकित करती है –
कृते च प्रतिकर्तव्यं एष धर्म सनातन:
सोsयं तत्
प्रतीकारार्थी त्वत्त: सम्मानमर्हति । 1/100
अर्थात् कर्तृत्व के प्रति हमारा उपकृति भाव ही
सनातन धर्म है ।
यहाँ यजुर्वेद (काण्व संहिता 40/17) के मंत्र के
उत्तरार्ध की यह पंक्ति भी स्मरण में आती है-
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर कृतो स्मर कृतं स्मर ।
यहाँ वेद के ऋषि ने मनुष्य को कर्ता के रूप में
अपने कर्तृत्व और अपने कर्म का स्मरण करने के इस निदेश को दो बार दोहराया है । इसे
स्वयं के बोध के संदर्भ में इसका आशय यह है कि हमें स्वयं को और स्वयं के कार्यों
के प्रति सदा सचेत रहने की आवश्यकता है । यदि इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में हम
देखते हैं तो इसमें दूसरे के उस अहोभाव-कृतज्ञता ज्ञापन का भी संकेत है स्पष्ट
दृष्टिगोचर होता है ।
सार रूप में सनातन वह सत्य है जो कार्य और कारण
के भी परे है । गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझसे परे कहीं कुछ नहीं है –
मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय । (7/7)
अस्तु गीता के एकादश अध्याय में श्रीकृष्ण के विराट रूप के दर्शन करते हुए अर्जुन
ने तो स्पष्ट रूप से उन्हें ‘सनातन’ की संज्ञा के रूप में ही संबोधित किया है –
सनातंस्त्वं पुरुषो मतो मे (11/18)
12. दिसंबर
निर्वचन दिसंबर 24
आवेग-कंपित, पौरुष-दृप्त परशुराम
तुलसीदास जी द्वारा परशुराम संवाद की उद्भावना
के मूल का प्रश्न महत्वपूर्ण है क्योंकि सभी रामायणों की मूल वाल्मीकि रामायण में
तो जहां लक्ष्मण जी की भूमिका प्रायः शून्य है वहीं परशुराम जी राम से उनके
विवाहोपरांत अयोध्या लौटने पर मार्ग में मिलते हैं, रंग भूमि में नहीं । वे यहाँ
बिना किसी अनावश्यक विवाद में पड़कर राम को सीधे वीरोंचित द्वंदव की चुनौती देते
हैं –
तदहं ते बलं दृष्टवा धनुषोsस्य प्रपूरणो
द्वन्द्वयुद्धं प्रदास्यामि वीर्यश्लाघ्यमहं तव
। वाल्मीकि रामायण 7/75/4
-राम ! मैंने तुम्हारे शिव चापभंजन कर्ता शौर्य
के विषय में सुना है । यदि तुम मेरे इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दो तो मैं तुम्हें
द्वंदव युद्ध से सम्मानित करूंगा ।
श्री राम भी बिना किसी लाग लपेट के परशुराम जी
की चुनौती को स्वीकार कर उनसे कहते हैं –
वीर्यहीनमिवाशक्तं क्षत्रधर्मेंण भार्गव
अवजानासि मे तेज: पश्य मेSद्य पराक्रमम् । 1/17/3
- क्षात्रधर्म में स्थित मुझे आप निर्वीर्य और
अशक्त जानकर अपमानित कर रहे हैं । अत: द्वंद्व युद्ध में मेरे पराक्रम को देखिए ।
श्री राम का शर तो अमोघ ही था अतः उससे श्री
परशुराम के तपसा अर्जित पुण्य लोक नष्ट हो गए ।
अध्यात्म रामायण के अनुसार भी मार्ग में मिले
परशुराम इसी तरह की चुनौती देते हैं –
द्वंदव युद्धं प्रयच्छासु यदि त्वं क्षत्रियोsसि वै । अध्यात्म रामायण 1/6/11
और इस चुनौती का भी परिणाम वही हुआ ।
कालिदास के रघुवंश के ग्यारहवें सर्ग के श्लोक
58 से 92 तक इस आख्यान का उक्तानुसार ही
काव्यात्मक विवर्णन है ।
भवभूति के महावीर चरित (4/22) में परशुराम श्री
राम के शौर्य की स्वीकृत में यह स्वीकार करते हैं कि उनकी दर्प व्याधि का शमन कर
राम ने उनका उपकार ही किया है –
‘शमित: क्षेमाय दर्पा मय;’
उक्त के अतिरिक्त हनुमान्नाटक, अनर्घराघव और
प्रसन्नराघव (जयदेव) में भी कुछ काव्यात्मक और नाटकीय स्थितियों को छोड़कर कोई
भिन्नता विशेष नहीं है ।
आगम ग्रंथ ‘त्रिपुराराहस्यम्’ ‘हयग्रीव
शाक्तदर्शनम्’ और ‘श्रीपरशुरामकल्पसूत्रम्’ आदि में जहां श्री परशुराम जी के जीवन
का उत्तर पक्ष समादृत हुआ है, उसमें इस प्रसंग का भी समाहार हुआ है क्योंकि इसे
वहाँ एक ऐसी सीढी के रूप में स्वीकार किया गया है जहां से परशुराम जी का स्वयं का
साधनात्मक पक्ष तो उद्घाटित होता ही है, उनके अवगुंठित लोकोपकारी महत् अवदान का भी
पथ प्रशस्त होता है ।
यह संदर्भ हमें सीधे परशुराम के शिष्य सुमेधा
प्रणीत ‘त्रिपुरारहस्यम्’ (हरितायन संहिता) की ओर ले जाता है जिसमें हारितायन
(सुमेधा का दूसरा नाम) परशुराम से संबंधित उनके सम्पूर्ण जीवन और साधना का
साक्षात्कार करते हुए इस आगम शास्त्र का भावी पीढ़ियों के लिए सम्पादन करते हैं ।
इसके माहात्म्य खंड के तीसरे अध्याय में श्री राम द्वारा भगवान शंकर के पिनाक धनुष
को भंग कर अयोध्या लौटते हुए श्री राम से उनके उग्र संवाद का बहुत विस्तीर्ण
विवेचन है । शिवधनुर्भंग की सूचना जब उन्हें ‘आकाशचारियों’ से प्राप्त हुई तो वे
बहुत क्रोध में भरकर अपने आश्रम से वैष्णव धनुष लिए हुए निकले । मार्ग में राम के
मिलते ही उन्होंने उन्हें स्पष्टत्त: कहा –
रे राम क्षत्रबंधो त्वं वीर्योत्सिक्तोsतिमंदधी: । त्वया कृतमकरतव्यमग्यात्वा शूरमानिना
अद्य यावन्न श्रुत: किमहं क्षत्रकुलांतक: । रामोsस्तीति मदाद्यन्मामवग्याय कृतं अघ: । (61/62)
- क्षात्रबंधु
राम ! अपने पराक्रम के मद में तुम अत्यंत मंदबुद्धि हो । अपने को व्यर्थ ही वीर
मानकर तुमने वह किया है जो तुम्हें नहीं करना चाहिए । तुमने आज तक क्या यह नहीं
सुना कि मैं क्षत्रिय कुल का संहारक हूँ । राम हो न, इसलिए तुमने मेरी अवहेलना कर
यह पाप किया है ।
परशुराम जी यहाँ अपने परशु
की धार, गुरु के अपमान और क्षत्रिय कुल संहार के उन सभी संदर्भों का उद्घाटन करते
हैं जिनकी गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस में भी अनेकश: आवृत्ति हुई है ।
इसमें राम की विनयशीलता भी
मानस के राम के अनुरूप ही है जब वे परशुराम के कुठार के सामने अपने कंठ को आगे कर
देते हैं- अयं कंठ: कुठारेण छिद्यतां मे यथासुखम् (72)
अंतत: इस प्रसंग में मानस के
परशुराम का राम की बारम्बार जय जय करना करना इस ‘रहस्यानुरूप’ ही है –
जानामि त्वां परात्मानं
पुरुषं प्रकृते: परम् । जगद्रक्षाविधानार्थं जातो नटनरोपम : (87)
मैं जानता हूँ, आप तो प्रकृति
के परे स्थित परम ब्रह्म हैं । आपने संसार की रक्षा के लिए ही लीला रूप में यह
अवतार लिया है ।
इस संवाद का जो गहन अर्थबोध
सामने आता है वह परशुराम के क्षत्रिय द्रोह के परिमार्जन के साथ उनके आगमोचित
शैव-शाक्त लोक सिद्ध साधन के संवर्धन में संलग्न हो जाने में होता है । इस प्रकार
वे मानव समाज को वह व्याज सहित लौटा पाते हैं जिसका उन्हें पछतावा भी कम नहीं था –
पुरुषादेनेव मया कृतं कर्म
सुगर्हितम् । अभिमान: क्रोधमूलो यस्माद्धेतुवशादहम् ।
त्रिपुराराहस्यम् 4/12
श्री परशुराम को इस प्रकार यदि हम उनकी एक ‘संहारक’ भूमिका से जोड़कर ही देखते हैं तो यह हमारी परंपरा को बहुत एकांगी स्वरूप का ही निदर्शन कराता है । इससे हमारे देश में वर्ण और जाति के आधार तथा इनकी वैज्ञानिकता से दूर एक अवांछित काल्पनिक उस सामाजिक विलगाव के अस्तित्व का आभास कराया जाता है जिसका इस व्यवस्था में कहीं कोई अस्तित्व नहीं था प्रकारांतर से श्री परशुराम भारतीय अवधारणा के विष्णु और शिव के ऐसे समन्वित स्वरूप ही हैं जिनमें संरक्षक और संहारक दोनों का संकल्प और सिद्धि एक साथ फलित देखी जा सकती है ।
प्रभुदयाल मिश्र
प्रधान संपादक
(‘त्रिपुरारहस्य’
के अनुसार भगवान दत्तात्रेय द्वारा भार्गव परशुराम को महात्रिपुर सुंदरी द्वारा
प्रदत्त परम तत्त्व ज्ञान
ज्ञाता ज्ञानं ज्ञेयमपि फलं चैकं यदा भवेत्
तदा हि परमो
मोक्ष: सर्वभीति विवर्जित: । (20/69-70)
अर्थात्
जब ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तथा इसका परिणाम एक हो जाते हैं उसी को परम मोक्ष कहा
गया है । इसमें किसी भी प्रकार के भय की उपस्थिति की संभावना नहीं रहती।
य: पश्यन्
बंधजालानि सर्वदा स्वातमनि स्फुटम्
मोक्षं
नापेक्षते क्वापि स सिद्धेषूत्तमो मत: । 20/133
अर्थात्
जब कोई सभी बंधनों को स्वत: स्फूत मानकर मोक्ष की आकांक्षा नहीं करता वह सभी
सिद्धों में उत्तम है ।
इत्युक्त्वा
सा परा विद्या विरराम भृगूद्वह
श्रुत्यैतद्ऋषय:
सर्वं संदेहमपहाय च ।
नत्वाशिवादीन
लोकेशान् जग्मु स्वं स्वं निवेशनम् । 20/135-136)
अर्थात् हे परशुराम ! वह परा विद्या स्वरूपिणी देवी त्रिपुरा यह कहते हुए मौन हो गईं
जिन्हें श्रवण कर सभी ऋषयों के संदेहों का निवारण हो गया और वे शिव आदि देवताओं को
प्रणाम कर अपने अपने स्थान पर चले गए ।)